वेदांग (छः)

वेदांग (छः)
सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! वेदांग से तात्पर्य वेद से उद्भूत एवं वेद के ही अंगीभूत उस जानकारी से है, जो शरीर और संसार के मध्य आपसी ताल-मेल तथा विकास से सम्बन्धित हो ।ऐसे तो यथार्थपूर्ण एवं परिपूर्ण जानकारी ही वेद है, फिर भी कठिनाइयों से बचाव एवं समझदारी की सुविधा हेतु ही अंगों एवं उपांगों के रूप में पृथक्-पृथक् विभ---- में विभाजित करके उन विषय-वस्तुओं की गहराई तक जानकारी की जाती है, जिससे गहन से गहन विषय-वस्तु भी जानने-समझने हेतु आसान (साधारण) हो जाता है, जिससे मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार सांसारिक विषय-वस्तुओं को उपलब्ध करता एवं उपयोग में लाता है । संसार के अन्तर्गत परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या यहोवा या गाॅड या अल्लाहतआला के सिवाय किसी भी मनुष्य, योगी-यति, ऋषि-महर्षि अथवा देवी-देवता या पीर-पैगम्बर आलिम्-औलिया या प्राफेट्स-फरिश्ता आदि में शक्ति-सामर्थ्य एवं क्षमता नहीं है कि वह सृष्टि (खिलकत) के रहस्य यथार्थतः एवं परिपूर्णतः जान -समझ लेवें; इसी को कोई मनुष्य किसी विषय-वस्तु के माध्यम से, तो कोई किसी अन्य विषय-वस्तु के माध्यम से स्रैष्टिक विषय-वस्तु की जानकारी करता तथा उसके अनुरूप ही वह उसे व्यवहार करता-कराता है । सृष्टि के रहस्य की वास्तविक जानकारी तो एकमात्र परमब्रह्म या परमेश्वर या गाॅड या अल्लातआला या भगवान् को ही रहती है तथा उसी की कृपा या मेहरबानी प्रेरणा के अनुसार ही अपनी-अपनी क्षमता भर मनुष्य प्राप्त करता है चूँकि परमब्रह्म परमेश्वर का अंशमात्र ब्रह्म या परमेश्वर का अंशमात्र ईश्वर या परमात्मा का अंशमात्र आत्मा या गाॅड या अंशमात्र सोल या अल्लाहतऽला का अंशमात्र नूर  तथा परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप शब्द-ब्रह्म का अंशमात्र सोऽहँ-ह ँ्सो और तत्त्वज्ञान का अंशमात्र योग-साधना या अध्यात्म होता है; ठीक उसी प्रकार परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा से उत्पन्न योग तथा साधना या अध्यात्म का अंशमात्र विचार होता है । पुनः चूँकि परमब्रह्म-ब्रह्म-जीव या परमेश्वर-ईश्वर-जीव या परमात्मा-आत्मा-जीव या गाॅड-सोल-सेल्फ या अल्लातऽला-नूर-रुह तथा आत्मतत्त्वम् या गाॅड या अलम् सोऽहँ-ह ँ्सो या सोल या वही’ ( वह्य) तथा अहं या सेल्फ या रुह और तत्त्वज्ञान या ट्रू नालेज या हुरुफ मुकत्तऽत; योग-साधना या अध्यात्म या मेडिटेशन या स्पिरिट चुअल या मुतशाविहात् या नुरानी तथा विचार या थिंकिंग या रूहानी आदि की यथार्थतःपूर्ण जानकारी परमकारण-- कारण सूक्ष्म होती है । इसलिये समस्त एवं सामान्य मनुष्य को ये जानकारियाँ सामान्यतः नहीं हो पाती है । यहाँ पर सामान्य मनुष्य से तात्पर्य गरीब, अनपढ़, त्रसित, किसान, मजदूर आदि से नहीं है, अपितु शारीरिक, पारिवारिक एवं सांसारिक विषय-वस्तु में जो जितना ही आसक्त एवं लीन है वह उतना ही सामान्य, नीच, अज्ञानी, जढ़ी, मूढ़, नमकहाराम एवं अधम है, से है । पुनः क्रमशः जो व्यक्ति या मानव क्रमशः जीव-आत्मा-परमात्मा या जीव-ईश्वर-परमेश्वर या जीव-ब्रह्म -परमब्रह्म या जीव-ईश्वर-परमेश्वर या जीव-ब्रह्म-परमब्रह्म सेल्फ-सोल -गाॅड या रुह-नूर-अल्लातऽला में से जिस और जितना ही सम्बन्धित और व्यवहृत होता है, वह उतना ही उच्च-उच्चतर-उच्चतम या श्रेष्ठ-श्रेष्ठतर-श्रेष्ठतम या उत्तम-उत्तमतर-सर्वोत्तम होता है तथा साथ ही जो जिसका जितना ही जानकार और सम्बन्धित होता है, वह उसी स्तर आनन्द-चिदानन्द-सच्चिदानन्द या प्लीज-ब्लिश-मर्सी या रूहानी-नूरानी-मेहरबानी प्राप्त गेन या हासिल करता है तथा उसी स्तर पर समाज में मर्यादित-प्रतिस्थापित-पूजित होता है । ऐसा रहने या होने के बावजूद भी मानव कितना जढ़ी एवं मूढ़, नाशुक्र या नमक हराम हो गया हे कि उसे आत्मोत्कर्ष, आत्म-कल्याण, आत्मोद्धार आदि से सम्बन्धित बातें नहीं सूझती है, जो नैतिक उत्थान-- शान्ति और आनन्द -- मुक्ति और अमरता आदि छोड़कर, नाशवान, तुच्छ एवं क्षणिक शारीरिक, पारिवारिक एवं सांसारिक सुख-सम्पत्ति हेतु रात-दिन परिश्रम करता रहता है । इस प्रकार जीव-आत्मा-परमात्मा से विमुख तथा शरीर-सम्पत्ति या व्यक्ति-वस्तु या कामिनी-कांचन के प्रति उन्मुख मनुष्य ही सामान्य, अज्ञानी, जढ़ी, मूढ़, नमकहराम, नीच एवं अधम होते हैं जिसे समाज सुधार एवं समाजोद्धार तथा पारिवारिक सुधार और पारिवारिक उद्धार कौन कहे ? आत्मा और आत्मोद्धार की भी बात सोच-समझ में नहीं आती है । यही कारण है कि ये लोग विचार; योग-साधना या अध्यात्म तत्त्वज्ञान से बिल्कुल ही अनभिज्ञ एवं वंचित रह जाते हैं जिससे जीव से सम्बन्धित आनन्द; आत्मा से सम्बन्धित चिदानन्द और परमानन्द से सम्बन्धित सच्चिदानन्द या परमानन्द से भी अनभिज्ञ एवं वंचित रह जाते हैं, जो मानव योनि का चरण और परम लक्ष्य है ।

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