कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ।
जो जस करै सो तस फल चाखा ।।
वास्तव में:
अज्ञान एवं जढ़ता मूलक
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! आइये अब हम-आप
भगवद्-भक्त सन्त तुलसीदास कृत ‘रामचरित मानस’ की यह उक्ति आज
इतनी प्रचलित है कि सामान्य से सामान्य स्तर के व्यक्तियों द्वारा भी कहते-कहाते
सुना जाता है । अर्थात् यह सर्वाधिक प्रचलित ‘कथन’ या ‘उक्ति’
हो
गयी है । इसकी यथार्थता क्या है ? यहाँ पर तुलसीदास जी के प्रति निष्ठा
वाले बन्धुओं को नाजानकारी एवं नासमझदारी वश कष्ट तो स्वाभाविक है परन्तु मानव को
व्यक्ति और वस्तु या शरीर और सम्पत्ति या कामिनी और काँचन प्रधान या परक नहीं बनना
चाहिये । उसमें भी वह तो और ही जढ़ता-मूलक है जो चेतना रहित मात्र शरीर (मृतक) के
प्रति निष्ठावान् हैं । आइये हम लोग व्यक्ति-वस्तु या शरीर-सम्पत्ति परक से
शक्ति-सत्ता परक या शक्ति और प्रभु सत्ता प्रधान बना जाय ।
‘कर्म’ अज्ञान एवं जढ़ता-मूलक शब्द है । कर्म
की प्रधानता को कहना एवं स्वीकार करना अपने अज्ञानता एवं जढ़ता को जाहिर करना है ।
कर्म की गति-विधि एवं महत्ता अज्ञानता के अनतर्गत ही आता एवं रहता है । हालांकि
कर्म-प्रधान व्यक्तियों को वास्तव में ‘कर्म’ क्या है ?
कर्म
की उत्पत्ति और लय कहाँ से और कहाँ पर होता है ? आदि नहीं मालूम
है ।
कर्म-प्रधान कर्म-काण्डी बन्धुगण को थोड़ा कष्ट
अवश्य होगा, क्योंकि ‘कर्म’ अज्ञानता
के अन्तर्गत अहंकार-मूलक शब्द एवं गति-विधि है । जिसकी यथार्थता से कर्म-प्रधान
कर्म-काण्डी तो बिल्कुल ही अपरिचित होते हैं क्योंकि कर्म की गति भी ‘अति-गहन’
है
। कर्म की उत्पत्ति तथा कर्म का लय तो कर्मचारी (कर्ममय आचरण वाला कर्मचारी कहलाता
है) को भी मालूम नहीं होता है । किसी भी विषय-वस्तु की उत्पत्ति एवं अन्त की
यथार्थ जानकारी के बगैर यदि कोई व्यक्ति उक्त विषय-वस्तु का जानकारी बनता हो,
यह
उसकी जढ़ता के साथ ही साथ मूढ़ता ही होती है । यही हाल कर्म-प्रधान ‘कर्म-चारी’
बन्धुओं
की है। ‘कर्म’ भी मात्र कर्म कह देने से ही उसकी यथार्थ जानकारी
नहीं है क्योंकि ‘कर्म’, ‘अकर्म’,
‘विकर्म’,
‘सुकर्म’,
‘कुकर्म’
आदि
‘कर्म’ का अनेक रूप है जिसकी यथार्थ जानकारी कर्म-चारी
हेतु अनिवार्य होता है । क्योंकि किसी भी कार्य के करने या होने तथा उससे उसका
आनन्द उपलब्ध करने हेतु उसकी यथार्थ जानकारी अत्यावश्यक ही नहीं, अपितु
अनिवार्य होता है । इसी को आधार बनाकर समाज में कर्म-क्षेत्र में उतरने हेतु एवं
यथोचित सफलता एवं आनन्दोपलब्धि हेतु शिक्षा-क्षेत्र से गुजरना अनिवार्य होता है ।
यही कारण है कि विश्व समाज आज अशिक्षा-उन्मूलन अभियान चला-चला कर मानव-समाज को
शिक्षित बना रहा है। इतना ही नहीं, आज ‘शिक्षा की
यथार्थता’ पर भी विशेष जोर चल रहा है । आज का समाज शिक्षा-पद्धति में आमूल
परिवर्तन चाह रहा है । इसका एकमात्र मूल कारण गलत एवं अधूरी शिक्षा-पद्धति ‘कर्म’
का
आधार-शिक्षा शिक्षा पर माना जा रहा है जो बिल्कुल ही गलत है । कर्म का आधार-शिक्षा
विद्या-तत्त्व होना चाहिये । हालांकि आज विद्वत्-समाज में जढ़ता एवं मूढ़ता की ‘काई’
की
परत बहुत मोटी हो गयी है । वह इसी मोटी हो गई है कि ज्ञान एवं योग की पद्धतियाँ तो
भीतर (कामना रूपी ‘काई’ के भीतर) छिप ही गयी है, नीति-परक
विचार और बुद्धि भी काई रूपों परतों में ढक कर बिल्कुल ही कुण्ठित हो गयी है ।
जिसका परिणाम है कि विद्या-तत्त्व और शिक्षा को एक ही पर्याय मानने और समझने लगे
है । इतनी ही बात नहीं है । इनकी मति-गति भी जढ़ता एवं मूढ़ता के कारण इतनी
कुण्ठित हो गयी है कि कत्र्ता और ज्ञान पर कर्म की प्रधानता तथा विद्या-तत्त्व तथा
अध्यात्म एवं नीति पर व्याकरण की प्रधानता थोप रहे हैं जिससे वेदान्त के मन्त्र भी
तहश-नहश होते जा रहे हैं इससे भी आगे देखिये तो इनके आँख रहते अन्धेपन का ही परिचय
मिलता है कि व्याकरण में पढ़ते-पढ़ाते हैं कि वाक्य या समाज में भी ‘कत्र्ता’
प्रधान
होता है । तत्पश्चात् कत्र्ता की पहचान करने-कराने तथा विषय-वस्तुओं की यथार्थतः
जानकारी उसके व्यवहार एवं उपयोग हेतु अत्यावश्यक एवं प्रधान ही नहीं, अपितु
अनिवार्यतः भी है क्योंकि ज्ञान कत्र्ता की पहचान एवं विषय-वस्तु की यथार्थतः
जानकारी के बगैर यथार्थ व्यवहार या यथोचित प्रयोग और उपयोग असम्भव, कल्पना
से भी परे, स्वप्न में भी कल्पना से दूर की बात है । आज
जोर-जुल्म, अत्याचार-भ्रष्टाचार के मूल में जढ़ता एवं
मूढ़ता मूलक कर्म-प्रधान शिक्षा-पद्धति ही है ।
सद्भावी विद्याभिलाषी बन्धुओं ! सदाचारी ब्रह्मचारी
तथा कर्म-चारी रूप सत्पुरुष, आध्यात्मिक तथा भौतिक तीनों स्तर के
बन्धुओं से निवेदन है कि अपने दूषित-भावों को हटाकर सद्भाव को स्थान दें । अपने
दूषित व्यवहारों को हटाकर सद्व्यवहार को स्थान दें । अपने दूषित प्रेम को हटाकर
सद्प्रेम एवं भगवद् प्रेम को स्थान दें । अपने दूषित कर्म को हटाकर सत्कर्म को
स्थान दें ।
उपर्युक्त पाँचों वचन-पूर्ति हेतु अनिवार्यतः ‘एक
ही जादू’ है कि अपने ‘दूषित शिक्षा’ को हटाकर
सद्-शिक्षा रूप तत्त्वज्ञान रूप विद्यातत्त्वम् रूप परम विद्या को स्थान दिया जाय
। अन्यथा जोर-जुल्म रूपी श्रद्धा का अत्याचार एवं उग्रतम भ्रष्टाचार का समूल सफाया,
असम्भव,
अकाल्पनिक
एवं थोथी दलील होगी । कर्म एवं आपसी व्यवहार विद्यातत्त्वम् या सद्-शिक्षा पर ही
आधारित होता और रहता है । यही कारण है कि शिशु का शैशव अवस्था और युवावस्था के बीच
का समय सुस्पष्ट सुनिश्चित एवं सुफल भविष्य जीवन-यापन हेतु विद्यातत्त्वम् से
गुजरना पड़ता है जिसकी औसत आयु २५ या पच्चीस वर्ष मान्य है । जिसको
ब्रह्मचर्य-जीवन कहा जाता था और होना भी चाहिये । जब तक वर्तमान जढ़ता एवं मूढ़ता
मूलक कर्म-प्रधान शिक्षा को विद्यातत्त्वम् प्रधान नहीं बनाया जायेगा तब तक
मानव-समाज से शरीर और सम्पत्ति या व्यक्ति और वस्तु या कामिनी और कांचन से शान्ति
और आनन्द की परिकल्पना, परिकल्पना मात्र ही रह जायेगी और दूसरे तरफ
शरीर और सम्पत्ति की प्रधानता के कारण ही लूट, डकैती, राहजनी,
आगजनी,
अपहरण,
व्यभिचार,
अत्याचार
रूप जोर-जुल्म तथा समस्त अपराधों का उद्गम एवं संरक्षण रूप घुसखोरी रूप भ्रष्टाचार
मानव-समाज तो मानव-समाज है प्राणिमात्र से ही शान्ति और आनन्द समाप्ति हो गयी है
यानी आज प्राणि-मात्र में कहीं पर भी शान्ति आनन्द हो, यह तो विचार तक
से उड़ गया है क्योंकि चारो तरफ तो हा-हा कार एवं त्राहिमाम्, त्राहिमाम्,
त्राहिमाम्
की आवाज चेतन तो चेतन है जड़ को भी विदीर्ण कर रही है । यदि शिक्षा के स्थान पर
सद्-शिक्षा पद्धति या विद्यातत्त्वम् पद्धति के तुरन्त प्रभावी रूप में लागू नहीं
किया गया तो अभी समाज को और ही, और कितनी बुरी दशा देखनी होगी, उसे
कही और लिखी नहीं जा सकती है । आज श्रीकृष्णचन्द्र जी महाराज की वाणी जो श्रीमद्
भगवद्गीता अध्याय नौ श्लोक बारह में उल्लिखित है और ही उग्रतम रूप में स्पष्टतः
दिखलायी देता है---
मोद्यशा
मोद्यकर्माणो मोद्यज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं
चैव प्रकृति मोहिनीं श्रिताः ।। गीता/9/12 ।।
अर्थात् व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म एव
व्यर्थ-ज्ञान वाले विक्षिप्त-चित्त अज्ञानीजन राक्षसी और आसुरी स्वभाव से मोहित और
आश्रित हो गये हैं या राक्षसी और आसुरी प्रवृत्ति को ही मोहवश धारण किये हैं ।।
गीता/अध्याय/9/12 ।।
श्रीकृष्णजी महाराज की यह उपर्युक्त वाणी अक्षर
ही नहीं, बल्कि और ही उग्रतम रूप में दिखलायी दे रही है जिससे जाहिर हो रहा है
कि उस समय तो महाभारत ही हुआ था मगर आजकल ‘महा-विश्व’ की झलक मिल रही
है ।
तत्त्वज्ञान:-- सद्भावी तत्त्वनिष्ठ बन्धुओं !
तत्त्वज्ञान में दो शब्द-तत्त्व और ज्ञान है अर्थात् तत्त्वज्ञान असल में तत्त्व
और ज्ञान रूपी दो शब्दों से बना है जिसमें
‘तत्त्व’ तो परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप गाॅड रूप
अलम् रूप बचन रूप शब्द-ब्रह्म का संकेत तथा सम्पूर्ण सृष्टि का उद्गम एवं लय रूप
है तथा ‘ज्ञान’ - ‘तत्त्व’ की यथार्थ
जानकारी, दर्शन एवं बात-चीत कराते हुये स्पष्टतः परिचय के साथ ही
अद्वैत्तत्त्वम् या एकत्वबोध के साथ ही समस्त विषय-वस्तुओं की पूर्ण जानकारी है
जिसके जान लेने पर कुछ जानना शेष नहीं रह जाता है उसी परिपूर्णतम् जानकारी को ‘ज्ञान’
कहते
हैं । दूसरे शब्दों में- वह परिपूर्ण जानकारी जिसमें परमतत्त्वम् रूपी
आत्मतत्त्वम् से ही आत्मतत्त्वम् को ही जानना, आत्मतत्त्वम् को
ही देखना एवं आत्मतत्त्वम् से ही बात-चीत करते हुये सृष्टि के अन्तर्गत होने और
रहने वाला सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू को उसी आत्म्तत्त्वम् से उत्पन्न तथा अन्त
में उसी आत्मतत्त्वम् में लय होते हुये
जानना-देखना तथा अपने को भी उसी के अन्दर देखते हुये अद्वैत्तत्त्वम् रूप एकत्वबोध
करना ही तत्त्वज्ञान है ।
संसार-शरीर-जीव-आत्मा आदि की सारी सृष्टि की मूलतः यथार्थ जानकारी भी
तत्त्वज्ञान में ही है ।
बन्धुओं ! तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या
सत्य-धर्म या परमविद्या या विद्यातत्त्वम् की वृहद् जानकारी ‘विद्यातत्त्वम्’ वाले शीर्षक में
देखें । तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वम् या परमज्ञान या परमविद्या की यथार्थ
जानकारी दरश-परश के साथ ही हम-आप सभी बन्धुओं को करना चाहिये तथा ‘दोष-रहित’
जीवन
जीने का संकल्प लेना और पूरा करना चाहिये ।