ॐ की उत्पत्ति का रहस्य
ॐ कारी सद्भावी बन्धुओं ! जिस प्रकार
माता-पिता के संयोग से सन्तान की उत्पत्ति होती है ठीक उसी प्रकार ब्रह्म-शक्ति के
संयोग से ॐ की भी उत्पत्ति होती है । थोड़ा सा भी गहराई (सूक्ष्मता) से
जानने-समझने की कोशिश करेंगे, तो अवश्य समझ में आयेगा । रहस्य के
बातों को रहस्य जैसा ही देखना चाहिये । आइये अब रहस्य देखेंः-- जैसा कि सर्वविदित
है कि किसी भी सन्तान हेतु स्त्री-पुरुष दो का होना अत्यावश्यक होता है ठीक उसी
प्रकार शक्ति-ब्रह्म या ब्रह्म-शक्ति दो के मेल से ही ॐ रूपी
सन्तान की उत्पत्ति होती है । जिस प्रकार स्त्री-पुरुष विवाह से पूर्व पृथक्-पृथक्
लड़का और लड़की के रूप में रहते हैं, उसी प्रकार योग-साधना से पूर्व न तो ‘सः’
रूप
शक्ति का ही महत्व रहता है और न ‘अहं’ रूप जीव योग के
पश्चात् शिव या ब्रह्म; शंकर नहीं, का ही विवाह के
पश्चात् ही लड़का-लड़की वर-वधू बनते हैं ठीक उसी प्रकार योग-साधना- रिद्धि-सिद्धि
के पश्चात् ही ‘सः’ और ‘अहं’ शक्ति
और शिव या ब्रह्म कहलाते हैं या हो जाते हैं । पुनः वही वर-वधु एक रहने लगने पर
स्त्री-पुरुष कहलाने लगते हैं वैसे ही निरन्तर योगाभ्यास से सः और अहं सोऽहँ रूप
शक्ति-ब्रह्म या ब्रह्म-शक्ति कहलाने लगते हैं । जब स्त्री-पुरुष एक होते हैं तो
आपसी बीच का मिलने-लज्जा भाव समाप्त होकर संकेत मात्र रह जाता है; लड़का-लड़की
वाला जो पृथक् था वह समाप्त प्रायः हो जाता है; ठीक उसी प्रकार ‘सः’
शक्ति
‘अहं’ रूप ब्रह्म से एक होने में बीच में लज्जा-भाव
रूप अहं का ‘अ’ समाप्त प्रायः होकर मात्र ‘ऽ’
अवग्रह
चिह्न रह जाता है जबकि शक्ति और ब्रह्म एक होते हैं जैसे सः अहं सोऽहँ । ॐ कारी बन्धुओं एक बात और देखें कि जैसे ही लड़की की शादी होती है उसका
लड़की वाला रूप सिंदूर युक्त होकर स्त्री वाला हो जाता है ठीक उसी प्रकार जब ‘सः’
रूपी
शक्ति योग-साधना के पश्चात् विसर्ग (ः) ओ बदलकर ‘स’ शक्ति
से युक्त होकर ‘सो’ रूप शक्ति बन या हो जाती है । यह रही
स्त्री-पुरुष की तथा सोऽहँ की बात । अब आइये ॐ कारी
बन्धु माता-पिता तथा सन्तान की बात की जाय । जिस प्रकार सन्तानोत्पत्ति हेतु
स्त्री-पुरुष आपस में मिलन रूप मैथुनी सम्बन्ध (घर्षण) करते हैं ठीक वैसे ही
योगाभ्यास में या साधनाभ्यास में शक्ति-ब्रह्म रूप सोऽहँ का बार-बार मिलन रूप
घर्षण होता है या किया जाता है तो यह भी यहाँ देखें, खासकर
भाषा-विज्ञान वाले बन्धु भी देखें कि यथार्थता या सत्यता क्या है ? स्त्री-पुरुष
दो ही नहीं, बल्कि चार हैं, उसी प्रकार
सोऽहँ भी दो नहीं चार हैं । जैसे-
स्त्री-शरीर तथा उसकी बीज (मूल) रूप रज एवं पुरुष-शरीर तथा वीर्य है, वैसे
ही सो स् शरीर रूप तथा ओ उसका रज रूप और
हं - ह् शरीर रूप तथा वीर्य रूप अं । भाषा-विज्ञान वाले बन्धु स्पष्टतः जानते हैं
कि अक्षरों में स्वर बीज रूप माना जाता है और है भी । जिस प्रकार स्त्रियाँ रज
स्खलन तथा पुरुष वीर्य स्खलन के पश्चात् दोनों शरीर क्रियाहीन होकर कुछ समय विशेष
के लिये बेकार हो जाती है ठीक उसी प्रकार सोऽहँ रूप अक्षरों से ओ रूप रज तथा अं
रूप बीज (वीर्य) के पृथक् हो जाने से स् तथा ह् रूप दोनों अक्षर ही तब तक के लिये
बेकार हो जाते हैं, जब तक कि स्वरों से या स्वरों से युक्त अक्षरों
के सम्पर्क में नहीं होते हैं । पुनः देखें कि जिस प्रकार स्खलन के पश्चात् दोनों
शरीर पृथक्-पृथक् हो जाते हैं या एक साथ रहकर भी बेकार पड़े रहते है। क्योंकि
दोनों शरीर तो क्रियाहीन रूप में है और वह तब तक रहेगी जब तक कि शरीर में पुनः
रज-वीर्य न उत्पन्न हो जाय । ठीक उसी
प्रकार रज-बीज (वीर्य) रूप ओ - अं पृथक् हो जाने पर स् - ह् बेकार पड़े रहते हैं ।
न तो एक में मिल ही सकते हैं और न पृथक्-पृथक् रूप में उच्चारित ही हो सकते हैं
इतना ही नहीं दोनों स् ह् एकसाथ मिलकर भी उच्चारित नहीं हो सकते हैं । जैसे
स्त्री-पुरुष स्खलन के बाद क्रियाशील नहीं हो सकते, ठीक उसी प्रकार
स् ह् उच्चारित नहीं हो सकते । दूसरे तरफ जिस प्रकार पुरुष का वीर्य, स्त्री
के रज में आकर गर्भाशय में दोनों ही अपना-अपना रज-वीर्य रूप छोड़कर तीसरा बालक
(शिशु) रूप ग्रहण कर लेते हैं । ठीक वैसे ही ‘हं’ का
अं, सो के ओ में आकर ब्रह्माण्ड (सिर) में दोनों ही अपना-अपना ओ - अं रूप
छोड़कर तीसरा ॐ रूप ग्रहण कर लेते हैं या ॐ रूप में हो जाते हैं । अन्ततः जिस प्रकार शिशु माता-पिता के रूप में
ही (आदमी) होते हैं ठीक उसी प्रकार ॐ भी अपने
माता-पिता रूप सोऽहँ के रूप (दिव्य ज्योति या ब्रह्म-ज्योति) में तथा ब्रह्म-शक्ति
के समान ही होता है । शिशु जैसा ॐ तथा माता-पिता
के प्यार-व्यवस्था में शिशु प्रौढ़-व्यक्ति (आदमी) बन जाता है उसी प्रकार निरन्तर
योगाभ्यास या साधनाभ्यास तथा सक्षम-गुरु के व्यवस्था में ॐ, ब्रह्मतेज से
युक्त हो जाता है और साधना सिद्ध या योगी-योग-सिद्ध तथा आध्यात्मिक-अध्यात्मवेत्ता
हो जाता है ।
सः +
अहम् = सोऽहँ (स्वास-निःस्वास में)
सोऽहँ = स्
ओ ह् अं
स्
ह् = ओ + अं
स्
ह् = ॐ (यह अक्षर नहीं है ।)
ॐ पुत्र सोऽहँ
माता-पिता
ॐ ब्रह्म-पुत्र = ब्रह्म समान
ॐ शक्तिपुत्र = स्वरसती समान
आत्म-शक्ति ही ब्रह्म-शक्ति
ब्रह्म-शक्ति ही शिव-शक्ति
शिव-शक्ति ही सोऽहँ = ह ँ्सो
सोऽहँ =
ह ँ्सो ही स्वरसती है ।
ॐ कारी सद्भावी बन्धुओं ! अब तक तो हम
लोगों ने ॐ के उत्पत्ति का रहस्य को देखे, परन्तु आइये अब ॐ का प्रणव रूप देखा जाय । जैसा कि पिछले प्रकरण में बतलाया गया कि
संसार में योग-साधनाओं के प्रक्रियाओं (प्रणव) की कमी नहीं है। अधिकतर बन्धुओं ने
तो ॐ को ओम् बताना व लिखना शुरू कर दिया था और है भी, तो
कुछ ने तो ओइम् बताना व लिखना; तो
कुछ ने सो.चा कि किससे कम हम हैं कि हम नहीं लिखें, तो ॐ को अ उ म ही बताना व लिखना आरम्भ कर दिया । इतना ही नहीं, अ
के साथ पूरक, उ के साथ रेचक तथा म के साथ कुम्भक करने का
उपदेश देने और मात्र उपदेश से ही सन्तोष नहीं हुआ तो उपनिषदों में भी लिखित रूप
में प्रतिपादित करते हुये प्रतिस्थापित कर दिये जिससे एक ॐ की
अनेक गलत एवं भ्रामक सिद्धान्त एवं पद्धतियाँ प्रतिपादित कर दिये, लगता
है कि साधनाभ्यास या योगाभ्यास में यथार्थ अनुभूति भी नहीं कर पाये थे, नहीं
तो ऐसा-ऐसा गलत एवं भ्रामक पद्धतियाँ जो मूल को ही समाप्त कर देती हों, प्रतिपादित
नहीं करते । कुछ तो प्राणायाम सामान्य पद्धतियों पर ही ॐ को
ओम् या ओं रूप में भी देखना, करना आरम्भ कर दिये हैं । इस प्रकार इन
नाना गलत एवं भ्रामक पद्धतियों ने मुझे भी सदानन्द वाली शरीर से एक पद्धति ॐ की देने के लिये मजबूर कर दिया । हालांकि यह हमारा उपदेश विधान नहीं
है । हमारा उपदेश तो परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या
परमात्मा का तत्त्वज्ञान-पद्धति या विद्यातत्त्वम्-पद्धति का ही होता है फिर भी
अनेक विधानों से ॐ की यथार्थता समाप्त होते देख कर नहीं
बर्दास्त होने पर ॐ की यथार्थ पद्धति देना पड़ा तथा लिखना
पड़ रहा है ।
ॐ कार - प्रणव की प्रक्रियाः- ॐ कारी सद्भावी
बन्धुओं ! आइये अब ॐ कार प्रणव की ओर चलें । सर्वप्रथम
सुगमता से जिस आसन पर बैठ सकते हों, बैठकर सीना, गर्दन तथा सिर
या ललाट एक सीध में करके आँख बन्द कर लेवें तत्पश्चात् आँख की दोनों पुतलियों को
भू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र, जो त्रिकुटी भी कहलाता है, में
पहुँचाकर ध्यान-मुद्रा में बैठ जायेें तत्पश्चात् पुनः स्वतंत्र नासा छिद्रों से
चाहे इंगला हो या पिंगला या सुषुम्ना भी हों तब भी किसी भी
बात की परवाह न करते हुये भरपूर मात्रा में पूरक करें, पूरक के पश्चात्
आवश्यकतानुसार बर्दास्त भर कुम्भक करें पुनः ऐसी अनुभूति के साथ कि ॐ ध्वनि अखण्ड रूप में ब्रह्माण्ड में सहस्रार में पहुँचकर चारो तरफ ही
पूरे ब्रह्माण्ड में गूँजन ॐ की आवाज (ध्वनि)
के साथ भर रहा है । आवाज यदि बाहरॐ कार गूँजन में
जिस गति से बाहर निकलता हो निकलने दें । यह क्रिया अखण्ड रूप में तब तक जारी रखें
जब तक कि पूरी शरीर वायु शून्य न हो जायें । पुनः पूर्व के अनुसार पूरक करें
तत्पश्चात् पुनः कुम्भक आदि क्रियायें करें । इस प्रकार पाँच आवृत्ति से शुरू करें
और क्रम से एक-एक करके प्रति-दिन बढ़ाते जायें। यदि दो-दो भी बढ़ जाय तो कोई बात
नहीं है । इस प्रकार ॐ कार प्रणव की प्रक्रिया नित्य-प्रति
प्रातः ३ बजे से ५ बजे या ६ बजे तक के बीच शुद्ध-पवित्र एवं एकांत स्थान में करने
से शीघ्र ही अभीष्ट लाभ की उपलब्धि होती है । योगी-साधक या आध्यात्मिक बन्धुओं को
क्या कहूँ या समझाऊँ सम्पूर्ण योग-क्रिया तथा स्वर-संचार प्रक्रिया और मुद्राओं
में भी किसी से भी तुलना ही नहीं है । शरीर स्वस्थ हेतु न तो इससे बढ़कर कोई
योग-साधना है और न स्वर-साधना ही ।
ॐ कारी सद्भावी बन्धुओं ! अब तक तो हम
लोग ॐ कार प्रणव की प्रक्रिया देख रहे थे परन्तु अब उसी प्रक्रिया को एक
सीढ़ी और आगे बढ़कर देखना है जिसे अमृत प्रणव कहेंगे ।
ॐ कारी सद्भावी बन्धुओं ! ॐ कारी अमृत प्रणव ॐ कारी प्रणव तथा
शीतली-मुद्रा दोनों का ही संयुक्त रूप मात्र है । यही एक ऐसी मुद्रा है जो शारीरिक
पुष्टि-तुष्टि अर्थात् स्वस्थ शरीर,
स्वस्थ-मस्तिष्क,
समस्त
रोग निवारक शान्ति और आनन्द तथा आध्यात्मिक उपलब्धि की एक साथ ही सर्वोत्कृष्ट एवं
सर्वोत्तम पद्धति है । दूसरे शब्दों में स्वास्थ्य वृद्धि एवं स्वास्थ्य-रक्षा के
साथ ही साथ योग-सिद्धि या साधना सिद्धि या आध्यात्मिक उपलब्धि यानी पुष्टि और
तुष्टि की इससे बढ़कर कोई खाद्य पदार्थ, पेय-पदार्थ, रोग-निवारक,
शान्ति
और आनन्द प्रदायक तथा योग-सिद्धि दायक अन्य कोई ही योग-साधना या आध्यात्मिक पद्धति
तथा औषधि और मुद्रायें भी नहीं है । वस्तुतः बात यह है कि पृथक्-पृथक् रूप में
समस्त साधन-साधना पद्धतियों में ही कोई भी ऐसी पद्धति के समान हो सके, तो
फिर इन दोनों से युक्त ॐ कारी अमृत-प्रणव विधान की तुलना किससे
किया जाय अर्थात् यह अतुलनीय साधना पद्धति है । इस पद्धति से चलने वाला किसी भी
रोग का रोगी क्यों न हो स्वस्थ हो जाता है, रोग पुनः नहीं
होने वाला पाता है, क्षुधा (भूख) तृष्णा (प्यास) नहीं लगता है फिर
भी शरीर स्वस्थ रहती है । साथ ही साथ योग-साधना या अध्यात्म की भी यह एक सर्वोत्तम
एवं सर्वोत्कृष्ट-विधान या पद्धति है । हम तो समस्त साधक ॐ कारी
बन्धुओं से कहेंगे कि मात्र एक सप्ताह ही विधिवत् करके निरीक्षण- परीक्षण किया जाय
और सत्य प्रमाणित होने पर अवश्य इस विधान को स्वीकार किया जाय। यह मात्र
आध्यात्मिक ही नहीं शारीरिक और मानसिक विकास हेतु भी अचूक लाभदायक विधान है ।
ॐ कारी अमृत प्रणव की प्रक्रिया जानने और
करने के लिये अलग से कुछ भी जानना और करना नहीं पड़ता है । रेचक में - ॐ कारी प्रणव पद्धति या क्रिया करें तथा पूरक के स्थान पर शीतली मुद्रा का प्रयोग करें । दश
रेचक तथा दस पूरक नित्य प्रति प्रातः ३ बजे से ६ बजे के बीच तथा शाम ५ बजे से ९
बजे के बीच किया जाय तो अवश्य ही सिद्धि दायक होता है यह क्रम नित्य प्रति क्रमिक
रूप में बढ़ाकर पच्चीस रेचक तथा पच्चीस पूरक (शीतली-मुद्रा) तक तो कम से कम लें ही
जाना चाहिये । आसानी से पच्चीस आवृत्ति वाले साधक की अनुभूति हम क्या वर्णन करें,
वे
स्वयं करने लगेंगे क्योंकि जो भोजन का स्वाद होता है उसको यथार्थतः व्यक्त नहीं
किया जा सकता है अनुभूति किया जा सकता है ।
ॐ कारी सद्भावी बन्धुओं ! साधन-साधना या
कर्म तथा अध्यात्म दोनों के अन्तर्गत मुद्रा का अपना एक विशिष्ट स्थान होता है जो
अपने आप में सबसे आसान तथा सबसे गुणकारी साधन-साधना मार्ग है । यह योग-साधना तथा
स्वर-संचार-पद्धति का ही संयुक्त- पद्धति है ।
शीतली मुद्रा:- शीतली मुद्रा एक साधनात्मक क्रिया-कलाप होने के
बावजूद भी योग या अध्यात्म के उद्देश्य से नहीं, अपितु शारीरिक
पुष्टि-तुष्टि हेतु ही की जाती है । जैसा कि पिछले प्रकरण में बतलाया जा चुका है
कि शारीरिक विकास, मानसिक विकास, बौद्धिक विकास,
रोग
निवारक तथा रोग-अवरोधक की यह सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोत्तम पद्धति है ।
सद्भावी बन्धुओं ! सर्वप्रथम सिद्धासन या किसी
भी आसन पर स्थिरता पूर्वक सीधा (सीना, गर्दन, सिर) बैठकर मुख
को समेट कर जिह्वा बाहर जितना आसानी से हो सके करके उसे (जिह्वा को) दोनों तरफ
(दायें-बायें) से मोड़कर नाली जैसा बना लिया जाय तत्पश्चात् मुख को इस प्रकार समेट
लिया जायेगा कि पूरक करते समय वायु नाली जैसा जिह्वा के सिवाय अलग से किसी भी अन्य
तरीके से वायु शरीर में प्रवेश न कर सके । तत्पश्चात् उसी जिह्वा से वायु को पेट
या पूरी शरीर में भरपूर भरा जायेगा । उसके बाद जितनी देर तक आसानी से हो सके
कुम्भक क्रिया किया जायेगा तत्पश्चात् प्रक्रिया में नासाछिद्रों से रेचक से
अन्यथा योग या आध्यात्मिक सिद्धि हेतु करना है तो पूर्वोक्त ॐ कारी
प्रणव विधान से रेचक क्रिया कर दिया जायेगा । इस प्रकार यही क्रिया बार-बार करने
से उपर्युक्त समस्त लाभों की उपलब्धि हो जाती है । ॐ कारी
अमृत मुद्रा ही सर्वोत्तम है ।
ॐ कारी सद्भावी बन्धुओं ! अब तक तो हम
लोगों ने मुद्राओं की जानकारी लिये-दिये । आइये अब महावाक्यों का अध्ययन दिया-लिया
जाय कि आखिरकार महावाक्य क्या है ? इसकी उत्पत्ति कब और कैसे होती है ?
तथा
इसकी यथार्थता क्या है ?