मुद्राएँ

मुद्राएँ
सद्भावी बन्धुओं ! मुद्रा एक विशिष्ट साधना-पद्धति होती है जो तुरन्त फलदायी होती है । अर्थात् जिस लक्ष्य को धारण करके मुद्रा की जाती है या मुद्राएँ हो जाती है, वह मुद्राओं से तुरन्त प्राप्त हो जाता है या उसकी अनुभूति तत्काल ही होने लगती है । भिन्न-भिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु भिन्न-भिन्न मुद्रायें करनी पड़ती है । जिनमें से कुछ प्रमुख स्थान रखने वाली मुद्राओं का वर्णन ही यहाँ पर हो रहा है ।

षण्मुखी-मुद्राः- षण्मुखी-मुद्रा अन्य सभी मुद्राओं में एक अहंभूमिका वाली मुद्रा है । इतनी प्रभावी अन्य कोई मुद्रा नहीं होती । इसके प्रारम्भिक अभ्यास में या अभ्यास के शुरूआत में थोड़ी-बहुत मात्रा में कठिनाई या परेशानी होती है जो कुछ दिनों के बाद ठीक होकर स्वाभाविक गति-विधि में बदल जाती है । प्रत्येक मानव जो मानवता का यथार्थ आनन्द लेना चाहता हो तो उसे यह मुद्रा अवश्य करनी चाहिये । तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वं तो आनन्द प्रदान करने वाली यानी आनन्द बांटने वाली तथा मुक्ति और अमरता देने वाली सर्वोत्तम् पद्धति है परन्तु लेने वाली उत्तम-पद्धति षण्मुखी मुद्रा ही होती है और किसी भी मुद्रा में वह आनन्द तथा अभीष्ट लाभ नहीं मिल पाता है जिसकी प्राप्ति तथा अनुभूति षण्मुखी मुद्रा में होती है ।
पञ्च-तत्त्वों की पृथक्-पृथक् अनुभूति तथा पहचान करने की यह अन्य समस्त अनुभूति परक जानकारियों की श्रेष्ठ और उत्तम पद्धति है । पञ्च-पदार्थ-तत्त्वों तथा आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति की पृथक्-पृथक् अनुभूति करनी हो तो यह मुद्रा अवश्य करनी चाहिये । अभीष्ट वस्तु प्राप्ति की भी श्रेष्ठतर तथा उत्तमतर पद्धति है । सक्षम गुरु के बगैर लाभ सन्देह ही होता है ।
षण्मुखी-मुद्रा की प्रक्रियाः- षण्मुखी मुद्रा की प्रक्रिया में दोनों नासापुटों (नासाछिद्रों) को दोनों मध्यमा अंगुलियों से; दोनों कानों को हाथ के दोनों अंगूठों से; दोनों नेत्रों को हाथ की दोनों तर्जनी अगुंलियों से तथा मुख को शेष अनामिका तथा कानी अंगुलियों से अच्छी प्रकार बन्द करके दृढ़तापूर्वक स्थिर भाव से नाक, नेत्र, श्रोत और मुख के द्वारा इनकी कोई अपनी क्रिया या गति-विधि न हो सके, तत्पश्चात् ध्यान-साधना ये तीसरी दृष्टि या शिव-नेत्र या दिव्य-दृष्टि से भू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र में स्थिर-भाव से देखा जाय । इस प्रक्रिया से मन शरीर में इन्द्रियों के द्वारों को बन्द देखकर विषय-भोग हेतु बाह्य वृत्तियों से अवरोधित हो जाता है, तब इसकी परेशानी बढ़ जाती है और वह भीतर ही भीतर सब तरफ आनन्द की खोज में व्यग्र हो जाता है । अन्दर ही अन्दर जिधर जाता है उधर ही अन्धकारमय देखता है। ब्रह्माण्ड भी उसे अन्धकारमय ही दिखलायी देता है जिससे उसकी परेशानी और व्यग्रता और ही बढ़कर आत्म-रक्षार्थ आत्मा की तलाश या खोज में लग जाता है । अभ्यास की दृढ़ता से चिदानन्द रूप ब्रह्मदर्शन करने में सफल हो जाता है और जब तक मुद्रा की स्थिति रहती है तब तक मन (योगियों की दृष्टि में), जीव (ज्ञानियों की दृष्टि में) बाह्य विषय-भोगी वृत्तियों से निवृत्त रहता हुआ आत्मानन्द या चिदानन्द या ब्रह्मानन्द या दिव्यानन्द रूप आत्म-ज्योति या चेतन ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति का दरश-परश करता हुआ उसी आनन्दमय अवस्था में पड़ा रहता है जो असम्प्रज्ञात् या निर्विकल्प या निर्बीज या निर्विचार समाधि-अवस्था कहलाता है । यही योग-साधना; स्वर-संचार-साधना तथा मुद्रा की अन्तिम अवस्था या उपलब्धि है । यही चेतन-आत्मा की स्थिति है ।

शाम्भवी-मुद्राः- शाम्भवी-मुद्रा से तात्पर्य उस ध्यानावसथा से है जिसमें    ह ँ्सो रूप शम्भु सदा-सर्वदा ही मग्न या मस्त रूप में पड़े रहते हैं । शाम्भवी-मुद्रा शिव जी की विशेष मुद्रा है तथा शिव या शम्भु ही इस मुद्रा के आदि-प्रणेता या शोध-कर्ता हैं।  इसीलिये यह मुद्रा शम्भु के नाम से ही कहलाने लगी । योग-साधना के सर्वश्रेष्ठ सिद्ध शम्भु ही माने जाते हैं । इसीलिये इन्हें महेश, महादेव, शिव तथा शम्भु आदि उपाधि नामों से भी जाना जाता है जबकि उनका असल नाम शंकर है। शेष सभी नाम उपाधिमूलक हैं । यह मुद्रा प्रक्रियात्मक रूप में सबसे सुगम, सबसे आरामदायक तथा शीघ्र फलदायी होता है । इसके निरन्तर अभ्यास से जीव शिवहो जाता है ।
शाम्भवी-मुद्रा की प्रक्रियाः- शाम्भवी मुद्रा में सिद्धासन या पद्मासन पर या स्वस्तिकासन या भद्रासन में से किसी भी आसन पर भी, परन्तु शम्भु-सिद्धासन का प्रयोग अधिक करते थे, तो सिद्धासन पर बैठकर प्राणायाम-धारणा-ध्यान मिश्रित, ध्यानावस्था में सोऽहँ-ह ँ्सो का स्वास-निस्वास अथवा पूरक-रेचक अथवा रेचक-पूरक की क्रिया-प्रक्रिया (अजपा-जप) के साथ ही ध्यानावस्था में जीव रूप अहंका ज्योतिर्मय-शिव रूप ह ँ्सो बनकर या होकर आत्मानन्द या ब्रह्मानन्द या चिदानन्द या दिव्यानन्द अवस्था रूप मस्त पड़ा रहना तथा शान्ति और आनन्द के साथ ही कल्याणमय अवस्था में अवस्थित रहना ही शाम्भवी मुद्रा है । यह भी उत्कृष्टतम् तथा उत्तम मुद्रा है । इस मुद्रा के गुण-दोषों को मात्र इसी से अनुमान कर लेना चाहिये कि जिसको शंकर जी ही अपना अभिन्न रूप ही स्वीकार किया था ।

खेंचरी-मुद्राः- खेंचरी-मुद्रा अमृत-पान करने-कराने वाली एक प्रक्रियात्मक या साधनात्मक योग-पद्धति है । मुद्राओं में यह षण्मुखी मुद्रा तथा शाम्भवी-मुद्रा आदि सभी मुद्राओं की जान तो है ही, यह साधक, सिद्ध-योगी तथा समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं आदि की माता के रूप में प्रयुक्त होती है । यह अजपा-जप का मार्ग तो प्रशस्त करती ही है साथ ही साथ योग-सिद्ध होने में सर्वोत्कृष्टतम् भूमिका अदा करती   है । यह मुद्रा मात्र योग सिद्धि हेतु ही नहीं स्वास्थ्य की भी जननी कहा जाय तो इसमें सन्देह की बिल्कुल ही गुन्जाइश नहीं होगी। इतना ही नहीं भूख, प्यास, मूर्छा विष आदि की तो यह कट्टर शत्रु होती है । खेंचरी मुद्रा के निरन्तर अभ्यासी को भूख, प्यास, मूर्छा, विष आदि कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते ।
खेंचरी-मुद्रा की प्रक्रियाः- खेंचरी मुद्रा में सुगमता पूर्वक किसी भी आसन पर बैठकर सर्वप्रथम शान्ति और स्थिरता हेतु अजपा-जप किया जाय । तत्पश्चात् जिह्वा को उलटकर जिह्वा-मूल के ऊपर कण्ठ-कूप रूप अमृत-कूप में ले जाना पड़ता है इसीलिये इसे खेंचरी-मुद्रा तथा अमृत-पीने वाली क्रिया-प्रक्रिया होने के कारण अमृतपान भी कहलाती है । खेंचरी-मुद्रा मुद्राओं में सबसे अधिक लाभदायी होने के साथ ही साथ सबसे कठिन एवं विशेष अभ्यास से ही सिद्ध हो पाती है । जिह्वा एक पतली झिल्ली एक सूक्ष्म परत से नीचली तालू से सम्बन्धित रहती है जिसको सक्षम-योग-सिद्ध गुरु के निर्देशन में ही सेंधा नमग आदि से आहिस्ते-आहिस्ते (धीरे-धीरे) दातून के पश्चात् बहुत दिनों में काट कर जिह्वा को स्वतन्त्र किया जाता है जिससे क्रिया आसानी से होने लगती है । कुछ साधक बन्धु तो साधना पर बैठकर दस-बीस मिनट खेंचरी-मुद्रा किये दो-एक बूँद जिह्वा में सटा हुआ लार जिह्वा-मूल या कण्ठ में आता है उसी को अमृत-बूँद मान कर चारो तरफ ढोल पीटने यानी हल्ला-गुल्ला करना या इधर-उधर कहते फिरना कि मैं अमृत-पान करता हूँ जबकि वे भ्रम में रहते हैं । पद्धति वह है कि जो करते हैं परन्तु वह अमृत नहीं है जो सामान्य रूप में पा जाते हैं । खेंचरी-मुद्रा सबसे कठिन मुद्रा होती है तथा काफी अभ्यास के पश्चात् सिद्ध होती है हालांकि यह जितना ही कठिन है उतना ही या उससे भी अधिक लाभ-दायी या फलदायी होती है । यथार्थतः बात तो यह भी है कि खेंचरी-मुद्रा के बगैर अजपा-जप रूप सोऽहँ- ह ँ्सो की क्रिया शुद्ध रूप में हो ही नहीं पाती है । साधक बन्धु करके जरा अनुभूति करें तो यथार्थता का पता चल जायेगा कि खेंचरी के साथ ह ँ्सो जप कितना शुद्ध तथा खेंचरी के बगैर कैसा होता है । दूसरी बात यह है कि खेंचरी-क्रियाध्यान से युक्त होने के पश्चात् ही खेंचरी-मुद्रा कहलाने योग्य होती है । ध्यान से रहित खेंचरी-मुद्रा, खेंचरी-क्रिया मात्र ही रहती है । तीसरी अत्यावश्यक बात यह है कि साधक या योगी, साधना सिद्ध या योग-सिद्ध तभी हो सकता है  जबकि वह अधिक-से अधिक मात्रा में वायु-संग्रह तथा कम से कम मात्रा में वायु खर्च करें, जिसकी सम्भावना कम से कम बोलने में ही है, जो खेंचरी-मुद्रा तथा खेंचरी-क्रिया से ही सम्भव है । बोलना वायु खर्च की सबसे बड़ी दिया है जिसके नियन्त्रण के बगैर साधना-सिद्ध या योग-सिद्ध होना असम्भव भी कहा जाय तो गलत नहीं है साधनाभ्यासी या योगाभ्यासी हेतु बोली पर नियन्त्रण रखना अत्यावश्यक ही नहीं, अपितु सिद्धि हेतु तो अनिवार्य ही है । योग या अध्यात्म में प्रवचन तक वर्जित है । प्रवचन  और सत्संग तत्त्वज्ञानके लिये अनिवार्यतः पद्धति है । परन्तु योग-साधना या अध्यात्म के लिये तो यह विशेष बाधक होता है इसके लिये उठते-बैठते, चलते-फिरते भी खेंचरी-क्रिया के स्वर-संचार से ह ँ्सो की जप प्रक्रिया तो अनिवार्य ही है अन्यथा सिद्धि स्वप्नावत् एवं काल्पनिक मात्र ही रह जायेगी ।  योग-साधना हेतु खेंचरी अनिवार्य मुद्रा है ।

कारी-मुद्राः- भगवद् प्रेमी सद्भावी बन्धुओं कारी-मुद्रा से तात्पर्य उस अवस्था से है जिसमें शरीरस्थ जीव रूप अहं रूप ब्रह्म में विलय करने से है । यह मुद्रा षण्मुखी-मुद्रा, शाम्भ्वी-मुद्रा तथा खेंचरी मुद्रा आदि में से किसी से भी कम की तो बात ही नहीं है अब रही अधिक की बात । तो यह कितनी मात्रा में अधिक है उसकी यथार्थता को जान-देखकर आप स्वयं निर्णय करें कि अन्य मुद्राओं में इसकी भूमिका क्या है ? क्या यह मुद्राओं में उच्चतम्, श्रेष्ठतम् तथा सर्वोत्तम है या नहीं ? को ब्रह्मस्वरूप मानने वालों की आज कर्मकाण्डी चापलूसों में कमी नहीं हैभले ही इसकी जानकारी नाममात्र की भी न हो तो क्या, लेकिन इसकी वृहद् महिमा गाने में थोड़ा भी कसर नहीं उठाते हैं, भले ही उनकी महिमा पूरब जाना है तो पूरब जाने के बजाय पश्चिम ही क्यों न जाते हों । जैसे कि  परमआश्चर्य की बात तो यह है कि -- श्री विष्णु जी, श्री रामचन्द्रजी तथा श्रीकृष्णचन्द्र जी के पुजारी तथा अनुयायी भी मेराविरोध करने में नहीं चूकते हैं इतना ही नहीं ये लोग मुझसेसंघर्ष पर भी उतारू हो जा रहे हैं । ये अपने को तो पुजारी और अनुयायी समझते हैं और मुझकोही विरोधी या नास्तिक समझ रहे हैं । ठीक यही दशा कार के पुजारी और अनुयायियों की भी है कि  मानेंगे परन्तु की यथार्थता से मतलब नहीं ।
कारी सद्भावी बन्धुओं ! आइये अब कार की यथार्थता को, इसके पृथक्-पृथक् स्वरूपों के आधार पर जाना-देखा-समझा जाय और सत्य होने पर इसे अपने जीवन में मिलाकर सामान्य जीवन को कार रूप दिव्य-जीवन में परिणत किया जाय ।
कार वाचिक के रूप में-  कार वाचिक रूप मेंसे तात्पर्य की उस पद्धति से है जिसमें कर्म-काण्डी पण्डित जन तथा शास्त्रीय महात्मन् बन्धुगण लगभग समस्त वाचिक मन्त्रों के अन्तर्गत बीज-मन्त्र के रूप में सर्वप्रथम इसे प्रयुक्त करते हैं । दूसरे शब्दों में ऐसा ऐसा कोई मन्त्र नहीं होगा जो से रहित हो और प्रभावी रूप में लागू हो । यहाँ तक कि आत्मतत्त्वम्और विद्यातत्त्वम्को भी तथा शिव तत्त्वंऔर सर्वतत्त्वैर्विशुद्धम्को भी मन्त्र ही मानकर उसके शुरूआत् यानी आरम्भ में भी का प्रयोग किये बगैर नहीं छोड़े हैं जबकि ये चारों ही के पितामह तथा पिता-माता और एक तरह से बन्धुत्व रूप ही है ।
ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
हृं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
क्लीं  विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
ऐं हं क्लीं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धम् शोधयामि नमः स्वाहा ।
कारी बन्धुओं ! यहाँ पर आत्मतत्त्वंसारी सृष्टि का पितामह; शिवतत्त्वं-पिता; विद्यातत्त्वं भी पितामह तथा सर्वतत्त्वैः- भ्राता; रूप में होता है; परन्तु सर्वतत्त्वैर्विशुद्धंका अर्थ परमात्मा से ही हो जाता है। दूसरे शब्दों में--- आत्मतत्त्वंरूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म रूप परमात्मा से; शिवतत्त्वं रूप आत्मा रूप ब्रह्म रूप ह ँ्सो रूप से; विद्यातत्त्वं रूप स्वर विद्या रूप स्वरसती से तथा सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं रूप भ्राताओं को विशुद्ध से है ।
कारी बन्धुओं ! मन्त्रवेत्ता गण थोड़ा भी मन्त्रों की यथार्थता पर ध्यान नहीं देते, विचार-मन्थन नहीं करते तथा उसके अर्थ को समझने की कोशिश नहीं करते हैं कि आखिर में यह क्या है ? ऐसा क्यों किया जाय ? इससे क्या उपलब्धि है ? क्या जिस प्रकार से कह और कर रहा हूँ यही इसकी यथार्थ पद्धति है या कुछ और भी ? जो भी हो अब इस मन्त्र प्रकरण को यही स्थगित कर रहा हूँ क्योंकि इसका आगे एक प्रकरण ही आगे वाला है वहीं पर उसे भी देखा जायेगा । यहाँ पर मात्र से मतलब है । सब कुछ के बावजूद भी की अपनी अहम् भूमिकामन्त्रों में, चाहे जिसका भी हो प्रथम रहा है और है भी । परन्तु रही बात के ही विभिन्न स्वरूपों तथा उसकी जानकारियों की बात तो ऊ कार को हम-आप सभी ही पाँच स्वरूपों या अवस्थाओं में यहाँ पर देखा जायेगा जो क्रमशः कार वाचिक रूप में; कार आंशु रूप में, कार मानसिक रूप में; प्रणव (अजपा-जप) रूप में तथा कार अमृत-प्रणव के रूप में । इस प्रकार पृथक्-पृथक् रूप में इसे देखा जायेगा जिसमें से प्रथम या पहला प्रकरण चल ही रहा है। इन प्रकरणों को जितना ही गौर (ध्यान) से देखा जायेगा, उतना ही आनन्द मिलता जायेगा । क्योंकि किसी विषय-बात पर जितना ही ध्यान दिया जाता है वह उतना ही समझ में भी आता है और जितना समझ में आयेगा उतना ही आनन्द भी मिलता है और मिलेगा । इसलिये आनन्द हेतु समझदारी अनिवार्यतः पहलू है । किसी भी जाप में वाचिक से आंशु-जप की मर्यादा दश गुनी अधिक होती है तथा आंशु जप से सौगुनी अधिक मर्यादा मानसिक जप का होता है पुनः मानसिक जप से हजार-गुनी मर्यादा अजपा-जप का होता है, जो प्रणव भी है और अमृत प्रणव की तुलना ही अज्ञानता है ।
कार आंशु रूप में:- आंशु जप से तात्पर्य उस जप विधि से है जिस जप में जप किया जाय परन्तु वाचिक की तरह आवाज मुख से बाहर न हो सके । मात्र ओष्ठ और जिह्वा के सहारे बिना आवाज बाहर निकलने का किया हुआ जप ही आंशु-जप कहलाता है। जैसा कि सद्गन्थों की मान्यता है कि आंशु जप की मर्यादा या महत्व वाचिक जप से दस गुना से सौ गुना तक अधिक होता है । इसका एकमात्र कारण यह जाहिर होता है कि आंशु जप में बनने या जनाने की भावना रूप तथा झूठ की तो बिल्कुल जप के समय गुन्जाइश ही नहीं रहती है । झूठ की गुन्जाइश तो मात्र बोलने में होता है, और जहाँ पर बोली नहीं है, वहाँ झूठ भी नहीं ही रहेगा। झूठ संसार की सबसे बड़ी बुराई, सबसे बड़ा दोषसबसे बड़ा पाप तथा सबसे बड़ा अपराध होता है, क्योंकि संसार के समस्त अपराध स्वार्थ के लिये ही किये जाते हैं और झूठ में ही संरक्षण पाते हैं । आज संसार को भ्रष्टता के कगार पर पहुँचाने में झूठी-वाणी तथा मिथ्याचार में समस्त कर्मचारी अधिकारी, विधायक, सांसद तथा मिनिस्टर्स या मन्त्री गण के साथ ही लगभग समस्त नागरिकों, महात्माओं, आध्यात्मिकों के भी लिप्त होने में झूठी वाणी ही कारण होती है, जिसकी गुन्जाइश थोड़ी भी आंशु जप में नहीं है परन्तु उस जाप करने वाले बन्धु को मिथ्याचार भी नहीं करना चाहिये । माला-जप आदि आंशु-जप से ही होता है। आंशु-जप के विशिष्ट निरन्तर अभ्यास से ही मानसिक जप की सम्भावना होती है परन्तु अहंकारिता वश माला-जप वाले जापक बन्धु इसको मानसिक-जप ही समझते हैं परन्तु यह मानसिक जप है नहीं । जिस जप में ओष्ठ और जिह्वा या पृथक्-पृथक् दोनों में से एक भी हिलता-डुलता हो तो वह जप मानसिक जप कदापि नहीं कहला सकता है, हाँ, वह आंशु जप है । फिलहाल जो भी हो आंशु-जप का महत्व वाचिक जप से दश गुना से शतगुना तक अधिक होता है । यह मात्र कथनी की बात नहीं, अपितु अनुभूति की भी बात है । करके देखें कि मन का केन्द्रीकरण वाचिक से आंशु में अत्यधिक हो रहा है या नहीं।
कार मानसिक रूप में:- कार मानसिक रूप से तात्पर्य उस जप से है जिसमें न तो ओष्ठ हिलता है और न जिह्वा, फिर भी जप होता रहता है । अर्थात् बिना किसी आवाज के तथा बिना किसी इशारे के मन द्वारा किये जाने वाले जप को मानसिक जप कहते हैं । इस प्रकार समस्त मन्त्रों का ही मानसिक जप होता है । चूँकि कार ही समस्त मन्त्रों की प्रक्रिया तथा समस्त मन्त्रों का बीज-मन्त्र होता है । इसलिये किसी भी मन्त्र के जप की विधि जप विधान पर ही आधारित रहती है । कार मानसिक रूप में जप कर्म-काण्ड में सर्वोत्तम विधान है । कार तथा में भी विशेष अन्तर है दोनों एक कदापि नहीं मानना चाहिये । कार वास्तव में तो का ही प्रणव रूप होता है फिर भी दोनों दो हैं एक ही नहीं । , कार रूप सोऽहँ का पुत्र या सन्तान होते हुये भी सोऽहँ का प्राण या बीज-रूप है । से रहित सोऽहँ की प्राण तथा जीव से रहित शरीर (मुर्दा या मृतक) जैसा होता है अर्थात् सोऽहँ, का शरीर तथा सोऽहँ का प्राण होता है । दूसरे स्थान पर सोऽहँ, का माता-पिता तथा सोऽहँ का सन्तान होता है । इस प्रकार यह जानकारी कर लेना भी जरूरी लग रहा है कि सोऽहँ के बगैर उच्चारित होता है परन्तु के बगैर सोऽहँ उच्चारित नहीं हो सकता । हालांकि सोऽहँ प्रणव होता है, उच्चारण नहीं । दोनों होता है ।
कार प्रणव के रूप में:- प्रणव से तात्पर्य प्राणायाम के माध्यम से जप से है । कार प्रणव से तात्पर्य प्राणायाम के अन्तर्गत कार का जप से है । जैसा कि सर्वविदित है कि कार का अर्थ प्रणव और प्रणव का अर्थ कार ही समस्त कर्म-काण्डी शास्त्रीय-महात्मा लोग ही लगाते हैं । सोऽहँ या शिवोऽहँ रूप प्रणव (अजपा-जप) में और के प्रणव में बहुत ही अन्तर होता है । कुछ प्रणव या अजपा-जप या प्राणायाम विधान ऐसा है कि रेचक-कुम्भक पूरक है तो कुछ ऐसा भी है कि पूरक कुम्भक रेचक है तो पुनः कुछ ऐसा भी है कि  कि पूरक-कुम्भक-रेचक-कुम्भक । इसके साथ ही अजपा-जप स्वास-निःस्वास दोनों से ही होता है यह सर्वमान्य परन्तु का प्रणव जप इससे बिल्कुल ही भिन्न पद्धति से किया जाता है । हालांकि की भिन्न-भिन्न रूपों में अनेकों ऐसी पद्धतियाँ महात्माओं द्वारा लागू या प्रतिपादित कर दी गई है कि यथार्थता से बिल्कुल दूर रहने के बावजूद भी समाज के विस्तृत वर्ग को अपने में फंसाकर बर्बाद कर-करा रहा है जबकि यह भ्रम एवं भ्रामक के सिवाय कुछ भी नहीं है और जब उन महात्मन् बन्धुओं की यथार्थता का परिचय दिया जाता है कि उनका सिद्धान्त भ्रामक है तो उनके अनुयायीगण बजाय यथार्थता को समझने के उल्टे टकराना, अहंकारी, धूर्त, आडम्बरी, पाखण्डी आदि-आदि उपाधियों से भ्रम के कारण कहने-सुनने लगते हैं जबकि इन उपाधियों से युक्त वे स्वयं होते हैं । हम तो प्रत्येक मानव बन्धु से ही चाहे वे जिस समाज के हों, हिन्दू हो या मुस्लिम, सिक्ख हों या इसाई किसी भी समाज या सम्प्रदाय के क्यों न हों, उन्हें यथार्थता या सत्यता को सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च एवं सर्वोत्तम स्थान देते हुये अवश्य स्वीकार करना चाहिये तथा अपने जीवन में यथार्थता या सत्यता को अथवा अपने जीवन को यथार्थता अथवा सत्यता में अवश्य लगाना चाहिये । यही जीवन की सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम उपलब्धि है ।
सद्भावी बन्धुओं ! एक ऐसा बहुचर्चित ब्रह्म मन्त्र हो गया है, जिसके उपदेशकों तथा लेखकों की आदि काल से लेकर वर्तमान काल तक में न तो कमी रही है और न है ही । फिर भी मुझे लिखना पड़ रहा है । यह भी बात सत्य ही है कि लोक-मर्यादा एवं प्रतिष्ठा प्राप्त महापुरुषोें जो ऋषि-महर्षि तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्मा जो प्रतिष्ठित है वे भी पर अपना विचार दिये एवं लिखे बगैर नहीं छोड़े हैं । परन्तु उनके विभिन्न पद्धतियों को देखने से ऐसा लगा कि क्या अजीब दुनिया हो गयी है कि इसे कुछ कहना ही नहीं बन रहा है क्योंकि न कहिये तो भ्रम में  पड़-पड़ कर लोग गलत एवं भ्रामक जानकारियों में फंसते- फंसाते हुये यथार्थता या सत्यता से उतना दूर फेंका या हो जाते हैं कि यदि यथार्थ जानकारी दिया जा रहा है तो सीधे अहंकारी, निन्दक तथा नास्तिक आदि उपाधियों से विभूषित करना प्रारम्भ कर देते हैं । जबकि सामने आकर या सामने पड़ने पर सीधे समर्पण ही करना उनका एकमात्र कार्य रहता है फिर भी अलग होने पर अपने आदत से मजबूर रहते हैं । इतना ही नहीं सदानन्द वाली शरीर के माध्यम से प्रतिपादित सिद्धान्तों की चुनौती तो सदा ही पूरे विश्व के विद्वानों, सन्त-आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं, मनोवैज्ञानिकों, वैज्ञानिकों, तान्त्रिकों-मान्त्रिकों तथा शास्त्रीय ज्ञाताओं आदि को रहती है और है भी कि यदि कोई हो तो इस सिद्धान्त को गलत कह कर प्रमाणित करें परन्तु कोई नहीं मिला ।
कारी सद्भावी बन्धुओं ! की यथार्थता से दूर करने वाले नाना तरह के सिद्धान्तों को देखते हुये की एक विवेचना कार के साथ ही देने के लिये मजबूर हूँ । कारी बन्धुओं डाह-द्वेष से दूर या पृथक् रहकर यथार्थता जानने-देखने तथा समझने का प्रयत्न करें और सत्य अनुभूति होने पर अपने जीवन की यथार्थता या सत्यता रूप सत्य-धर्म-न्याय-नीति की स्थापना में प्रभावी रूप में सहयोग देने-लेने का कष्ट करें ।

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