त्याग और समर्पण प्राप्ति का ही पूर्वरूप

त्याग और समर्पण प्राप्ति का ही पूर्वरूप
सद्भावी बन्धुओं ! त्याग और समर्पण ही प्राप्ति का पूर्व रूप एवं आधार होता है । जैसा कि अभी-अभी पहले वाले पकरण में बतलाया गया है कि भोगी खोता और रोता है; योगी देखता और हँसता है तथा तत्त्वज्ञानी भगवद् प्रेमी, भगवद् सेवक, भगवद् सेवक, भगवद् भक्त पाता और खाता यानी लाभ लेता है। यह ईमान और त्याग-समर्पण का ही परिणाम है जो जैसा करता है वह वैसा ही पाता है जो जैसा ही बोता है वह वैसा ही काटता (पाता) है । यह शत-प्रतिशत अनुभूत सिद्धान्त है ।

बन्धुओं ! जहाँ तक मेरी जानकारी और दृष्टि की बात है तो  मैं तो त्याग और समर्पण कुछ है ही नहीं क्योंकि किसी की सम्पत्ति या कोई वस्तु अनजान या जानकारी में भी हमारे पास हो और जानकारी तथा उसके मांगने या न मांगने पर भी उसकी वस्तु उसको दे देना है तो फिर इसमें त्याग और समर्पण की बात ही कहाँउठ रहा है । यहाँ तो मात्र ईमानदारी की बात है कि उसी की वस्तु को उसी के बिना किसी हिचकिचाहट के सुपुर्द का दी जा रही है तो फिर इसमें त्याग और समर्पण की क्या बात है । ठीक यही बात यहाँ पर है कि तन-मन-धन परमप्रभु का है ही, तब उनका तन-मन-धन उन्हीं को जान, देख पहचान करते हुये दे दी जा रही है तो फिर इसमें त्याग और समर्पण किस बात का नाम है ? हाँ, एक बात है कि बेइमानी वश वह अपनी महशूस हो रही हो तो उसी बेइमानी का त्याग और समर्पण है परन्तु धन्य है दुनिया कि मिथ्या और बेइमानी का भी त्याग और समर्पण नहीं कर पा रही है फिर और क्या करेगी ?

सद्भावी बन्धुओं कोई व्यक्ति यह महशूस करता हो कि उसके द्वारा उसका आभासित हम और हमारया मैं और मेराउसका अपना है, यही उसकी मिथ्या जानकारी या मिथ्याभास है और मिथ्याहंकार तथा मिथ्याभिमान है । यही सांसारिक बन्धन का कारण है; इसी को खोना और इसी के लिये रोना पड़ता है जिसने इस हम और हमारया मैं और मेराको इसके यथार्थतः मालिक रूप परमप्रभु को जान, देख, पहचान कर बिना विचार किये ही सुपुर्द कर दिया वह तो वास्तव में मुक्ति और अमरता का बोध तो किया ही एवं करेगा ही साथ-ही-साथ भगवद् भक्ति, भगवद् सेवा तथा भगवद् प्रेम जैसी देव-दुर्लभ आनन्द को भी पायेगा। परन्तु जो इस हम और हमार या मैं और मेरा को पकड़ या धारण कर शारीरिक, पारिवारिक एवं सांसारिक रूप बन्धन में बंध कर आसक्ति और ममता रूप मोह-पाश में तो फंस ही जाता है साथ ही साथ काल-पाश और कर्म-पाश में भी फंस जाता है । इसलिये इन तीनों-- कर्म-पाश; काल-पाश, मोह -पाश-पाशों में फंस कर जन्म-जन्मान्तर रूप चैरासी लाख योनियों का चक्कर काटता रहता है और यह चक्कर सृष्टि-चक्र के अनुसार तब तक काटते रहना पड़ता है जब तक मनुष्य शरीर सहित हम और हमार को अवतरित हुये परमप्रभु को जान, देख, पहचान करते हुये उनके तन-मन-धन को उनको ही समर्पित या सुपुर्द करके अनन्य सेवा-भक्ति करके आत्मतत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् का यथार्थतः तत्त्वज्ञान पद्धति से एकत्वबोध नहीं कर लेता । मुक्ति और अमरता तथा भगवद् भक्ति, भगवद् सेवा और भगवद् प्रेमानन्द रूप परमानन्द की प्राप्ति भी किसी भी स्थिति-परिस्थिति से तत्त्वज्ञान को हासिल करके हम-हमार को भगवद्-अर्पण ठीक से मुसल्लम ईमान से अनन्य श्रद्धा भक्ति से करके ही पाया जा सकता है ।

सद्भावी बन्धुओं ! कुछ देर के लिये त्याग और समर्पण का अस्तित्त्व ही मान लिया जाय तो यह भी तो उसी के साथ देख लेना चाहिये कि जो है ही कि त्याग और समर्पण ही प्राप्ति की पहली कड़ी या पूर्व रूप है । यदि त्याग बन्द कर दिया जाय या समर्पण समाप्त कर दिया जाय तो सृष्टि से ही प्राप्ति और व्यवहार उसी दिन घड़ी से बन्द और समाप्त हो जायेगी । जितनी ग्रहण और प्राप्ति की आवश्यकता है ठीक उतनी ही त्याग और समर्पण की भी आवश्यकता ही नहीं, अपितु अनिवार्यता भी है । हाँ, यह विधि का विचित्र विधान सबके समक्ष स्पष्टतः दिखलायी देता है कि त्याग और समर्पण अनेकानेक गुना प्रतिफल रूप में लौट आता है जैसे बीज बहुत कम या नाम मात्र का बोते हैं परन्तु फसल अनेकानेक गुना काटते और पाते हैं, पेड़-पौधों को देखे कि आम-अमरुद आंवला आदि एक-एक बीज लगा कर (बपन कर) जीवन भर फल खाते रहते तथा वैसा ही वैसा अनेकानेक गुना बीज भी पाते रहते हैं । ठीक यही स्थिति मानव शरीर सहित हम-हमार या मै-मेरा का है । इस हम-हमार या मैं-मेरा को बीज रूप मानते हुये धर्ममें विलय कर दिये जाने पर उसी प्रकार पेड़-पौधों की तरह अनेकानेक गुना सदा-सदा शाश्वत शान्ति और आनन्द के साथ ही मुक्ति और अमरता रूप मानव योनि का चरम और परम रूप वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है और जो ऐसा नहीं करता है वही समय चूक जाने पर पछताता है, रोता है, सिर धुन-धुन कर रोता है, जस-जस यमराज का नरक-यातना पाता है तब-तस आह भर-भर कर, सीना पीट-पीट कर जीव रूप बेचारा सूक्ष्म शरीर रोता है परन्तु वहाँ कोई सगा-सम्बन्धी पूछने-छुड़ाने का सहयोग करने नहीं जाते हैं । अज्ञानियों की यही गति होती है । वास्तव में यह परमसत्य बात है जो जान, देख, समझ-बूझ के साथ समय रहते, पहले ही चेत लेता है तथा हम-हमार या मैं-मेरा को धर्ममें विलय रूप मिलाकर परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म परमेश्वर या परमात्मामय या तत्त्वमय होकर उसी के आज्ञा आदेश, निर्देशन में रहने लगता है वह काल-पाश, कर्म-पाश एवं मोह-पाश रूपी बन्धनों या पाशों से मुक्त होकर सीधे परमप्रभु के दिव्य आकाश रूप परमधाम या अमरलोक में पहुँचकर शाश्वत् शान्ति के साथ भगवद् प्रेमानन्द में सदा आनन्दित रहते हुये जीवन व्यतीत करता है इसका लोक और परमलोक दोनों ही सफल हो जाता है । लोक में सदा-सदा के लिये लोक मर्यादा और लोक प्रतिष्ठा के साथ परमप्रभु की मूर्ति एवं चित्रों के साथ-साथ मूर्तियों और चित्रों रूप में प्रतिष्ठित होकर लोक में पूजनीय और मुद मंगलमय रूप में सदा-सदा के लिये कायम हो जाते हैं तथा परमलोक में वहाँ का शाश्वत्-आनन्द भी प्राप्त करते हैं । इस प्रकार बन्धुओं जो जड़, मूढ़, अन्धा और अधम रूप अज्ञानी मानव ऐसे परमशान्ति और परमानन्द रूप शाश्वत-शान्ति और आनन्द को छोड़कर क्षणिक सुख जिसके पीछे सदा दुःख और कष्ट ही के पीछे शारीरिक, पारिवारिक एवं सांसारिक सुख को देखकर फंसा रहता है । हाय ! कौन ऐसे जढि़यों, मूढ़ों एवं अज्ञानान्धों को समझावें कि जितना जल्दी हो सके उतना जल्दी हम-हमार या मैं-मेरा का त्याग रूप समर्पण करके परमप्रभु के यथार्थ विधान रूप वास्तविक या यथार्थ या तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान रूप सत्य-धर्ममें विलय कर देवें सत्य-धर्म हेतु अपना सर्वस्व समर्पित करके मुक्त हो जायें । 

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