सत्यम् शिवम् सुन्दरम्

सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
सद्भावी सत्याभिलाषी बन्धुओं ! सत्यम्से तात्पर्य शाश्वत शान्ति और शाश्वत आनन्द से युक्त अपरिवर्तनशील सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य से है जो परमतत्त्व (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमभाव या परमसत्य रूप परमात्मा या यहोवा या गाॅड या बचन या अल्लातआला या अलम् से है जो सदा-सर्वदा अपने दिव्य आकाश रूप परमधाम या अमरलोक या विहिस्त में ही वास करता है; जो युग परिवर्तन या कयामत की घड़ी में भू-मण्डल पर अवतरित होता रहता है, जिसकी यथार्थ जानकारी भू-मण्डल पर किसी को नहीं रहती है जिसको वह स्वयं जनाते, समझाते, दर्शाते और बात-चीत करते-कराते हुये पहचान करा देता है वही उसे जान, देख, पहचान सकता है । कुछ शैतान किस्म के अज्ञानी जढ़ एवं मूढ़ जन हास्यास्पद रूप में पत्र-पत्रिकाओं में स्व’- घोषित भगवान् कह-कह कर छाप-छपवा रहे हैं, उन्हें कौन समझावें कि वास्तव में उनका यह कथन अक्षरशः सत्य एवं प्रमाणित ही है । ठीक ही है । ये इतने जढ़ी एवं मूढ़ होते हैं कि इनकी सारी गति-विधि ही आसुरी और राक्षसी रूप शैतानियत की हो जाती है ये थोड़ा सा भी जानने-समझने की कोशिश या प्रयत्न नहीं करते कि भगवान् जिसको कि उसके सिवाय कोई अन्य जानता ही नहीं, तो आखिरकार उसकी घोषणा भी तो उसे खुद या स्वयं ही करनी होगी, जो होने पर ये सब खिल्ली या हास्यास्पद मान बैठ जाते हैं जबकि यही यथार्थता है कि भगवान् सदा ही स्व-घोषित होता है ।

सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् वास्तव में परमात्मा, आत्मा, जीव का ही वाचिक शब्द रूप है । वही शब्द और रूपमय होकर रहते हुये क्रियाशील और गतिशील होता रहता है जिसमें सत्ता-शब्द-रूप तथा शक्ति-वस्तु रूप में कायम होकर सृष्टि रूप में मूर्त-अमूर्त रूप में क्रियाशील और गतिशील है जो सृष्टि या संसार या ब्रह्माण्ड कहला रहा है । इस सृष्टि में सत्यम् - परमात्मा का वाचक होता है जो सत्’ ‘आनन्दरूप तीनों अंगों से परिपूर्ण होता है । यह सत् चिद् आनन्द रूप सच्चिदानन्द ही सत्यम् का वास्तविक रूप है यही परमात्मा का भी पूर्ण रूप होता है जो पूर्णब्रह्म अथवा परमब्रह्म या अल्लातआला भी कहलाता है । यह सच्चिदानन्द रूप सत्यम् के अन्तर्गत ही शिवम् तथा सुन्दरम् भी सदा-सर्वदा निहित रहता है जो समयानुसार उत्पन्न और क्रियाशील होता रहता है। इसी सच्चिदानन्द रूप सत्यम्की यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी मात्र ही ऋग्वेदहै जो परमब्रह्म या परमेश्वर या गाॅड या अल्लातआला या परमात्मा के अवतार रूप सत्पुरुष या परमपुरुष से सुना गया । यही कारण है कि वेदको श्रुतिनाम से भी जाना गया, जिसका अर्थ सुना हुआहै अर्थात् सच्चिदानन्द रूप सत्यम् की यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम् जानकारी ही जो एकमात्र परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा से ही सुनकर जानी गयी हो वही वेदभी श्रुति है । यही सर्वप्रथम ऋग्वेद नाम से जाना गया अथवा जनमानस के समक्ष प्रस्तुत हुआ । परन्तु प्रस्तुतकत्र्ता ऋषि-महर्षियों ने इसमें (ऋग्वेद) अपनी मनमानी बातों को भी घुसेड़ने या मिलाने से बाज नहीं आयेयानी आज जो ऋग्वेद समाज में प्रचलित है वह देखने से लगता है कि मूलतः ऋग्वेदके कुछ ही मन्त्र या ऋचायें इसमें है शेष सब ऋषि-महर्षियों की अपनी-अपनी मनमानी अनुभूतियाँ ही मन्त्रवित् रूप में रचकर तथा तत्काल भौतिक लाभ प्रदान करने वाले अभीष्ट देवी-देवताओं की ही प्रशंसा, स्तुति करते हुये मन्त्र रूप में रचकर के वेदमें लिखकर  उसे भी वेद-मन्त्रका ही रूप दे दिया है जिससे आज वेदमूलतः तो लुप्त प्रायः ही है उसमें परमब्रह्म, परमात्मा के स्थान पर देवी-देवता ही प्रतिस्थापित हो गये हैं, जो मूलतः परमब्रह्म या परमात्मा के यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी थी अब ब्रह्म या आत्मा एवं देवी, देवताओं की जानकारी से छायी हुई दिखलायी दे रही है । यही कारण है कि वेदभी अपरा विद्या या अविद्या के अन्तर्गत चला गया । यदि वेदवास्तव में अपने में परमब्रह्म, परमात्मा से सम्बन्धित यथार्थपूर्ण जानकारी वाला ही होता, तो अपरा-विद्या या अविद्या तो अपरा विद्या या अविद्या है परा विद्या या विद्या से भी परे या परमविद्या या तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या विद्या-तत्त्व पद्धतिके रूप में कायम रहता; परन्तु ऋषि-महर्षियों की करतूत यानी मनमानी विचारों के मिलावट ने वेदको तत्त्वज्ञान या सत्य-ज्ञान या परम-विद्या या विद्यातत्त्वम् पद्धति से घसीटकर अपरा विद्या या अविद्या के रूप में कायम कर-करवा दिया । पराविद्या या विद्या या योग या अध्यात्म विद्या भी नहीं रहने दिया । वेदको भी ज्ञान के निम्नतम रूप कर्म-काण्ड प्रधान बनाकर ही छोड़ा । यही कारण है कि परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म परमात्मा के पूर्णावतार रूप श्रीकृष्ण चन्द्र जी महाराज ने अर्जुन को गीता रूपी उपदेश देते हुये स्पष्टतः कहा था कि-- त्रैगुण्यविषया वेदा निस्मैगुण्योभवार्जुन ।यानी हे अर्जुन ! वेदतीन गुणों के विषयों से सम्बन्धित मात्र ही है इसलिये आप तीनों गुणों से परे या उच्च या परमबनो । इस प्रकार परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या बचन या गाॅड या अलम् या यहोवा या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या अल्लातआला या सत्सिरी अकाल या सत्पुरुष या परमपुरुष की यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी रूप परमविद्या या तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या विद्यातत्त्वम् पद्धति रूप सत्य बचनको लिपिबद्ध करते हुये हिन्दू, जैन, बौद्ध, यहूदी, ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख आदि अनुयायियों ने मनमानी बातों, विचारों को घुसेड़ कर यानी मिलाकर वेद, पुराण, गीता, रामायण, जबूर, तौरेत, बाइबिल (इन्जिल), र्कुआन, गुरुग्रन्थ साहब आदि को समस्त सद्ग्रन्थों को ही साम्प्रदायिक रूप में पृथक्-पृथक् रूप में घोषित कर-करवा कर सद्ग्रन्थों के मूलभूत सिद्धान्त अद्वैत्तत्त्वम् या एको ब्रह्म द्वितीयो नास्तिया वन्ली वन गाॅड या ला। अिलाह अिल्ला हुव या तौहीद या ‘1 ’  एक कारा या एकत्वबोध रूप से ठीक उल्टा या प्रतिकूल पृथक्-पृथक् धर्म तथा जाति घोषित कर-करा कर समाज को डाह, द्वेष रूपी दूषित भाव, दूषित विचार, दूषित व्यवहार, दूषित प्रेम एवं दूषित कर्मों से युक्त हो-होकर या बन-बना कर मानव समाज  को हिन्दू, जैन, बौद्ध, यहूदी, ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख आदि आदि विभिन्न रूप में विभाजित कर-करवा कर वर्ग-संघर्ष द्वारा विनाशक रूप ले लिया है ।

वास्तविकता या यथार्थता या सत्यता तो यह है कि जो सच्चा हिन्दू है वही सच्चा जैन भी है और जो सच्चा जैन है वही सच्चा बौद्ध है पुनः जो सच्चा बौद्ध है वही सच्चा यहूदी है और जो सच्चा यहूदी है वही सच्चा ईसाई है पुनः जो सच्चा ईसाई है वही सच्चा मुसलमान भी है और जो सच्चा मुसलमान है वही सच्चा सिक्ख भी है । इस प्रकार हम सभी हिन्दू, जैन, बौद्ध, यहूदी, ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख आदि आदि समस्त मात्र समाज ही एक ही है । जो सच्चे हैं वे सभी एक हीहैं ।परन्तु जो दूषित भाव, दूषित विचार, दूषित व्यवहार, दूषित प्रेम एवं दूषित कर्म वाले हैं मात्र वे ही आपस (मानव समाज) में नाना तरह के भेद, भ्रम उत्पन्न कर-करवा कर अपना-अपना तुच्छ निहित स्वार्थ साधते रहते हैं । समाज कल्याण तो समाज कल्याण है, इन दूषित भावों वाले दुष्टों को आत्म कल्याण की भी चिन्ता नहीं हो पाती है । समाज में भेद एवं भ्रम कायम रहने में ही ये प्रसन्न रहते हैं । सच्चे बन्धुओं, जो सत्य-ईमान या सत्य-धर्म के प्रति अपना सर्वस्व न्यौछावर या समर्पण करके मानव तो मानव है प्राणिमात्र में ही सद्भाव, सद्विचार, सद् व्यवहार, सद्प्रेम एवं सत्कर्म को करते हुये निष्काम भाव से प्राणिमात्र में ही मेल-मिलाप, सद्भावी प्रेम-व्यवहार रूपी सत्यं वद: धर्मं चरया दीन की राह पर मुसल्लम ईमान के साथ चलते हुये दोष-रहित अथवा निर्दोष जीवन-पद्धति का समाज में प्रचार करते-कराते हुये निष्काम भाव से समाज सुधार एवं समाजोद्वार में लगे रहते हैं । ऐसे सच्चे बन्धु ही सच्चा हिन्दू या सच्चा जैन या सच्चा बौद्ध या सच्चा यहूदी या सच्चा ईसाई या सच्चा मुस्लिम या सच्चा सिक्ख आदि होते हैं, भेद वाले नहीं ।
शिवम्से तात्पर्य कल्याण से है । शिवम् शब्द आत्मशब्द का ही वाचक शब्द रूप है । आत्म-ज्योति रूप आत्म-शक्ति ही ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म-शक्ति होती है । पुनः ब्रह्म-ज्योति रूप स्वयं ज्योति ही शिवम् की ज्योति रूप शिव-शक्ति होता है । इस प्रकार शिवम् शब्द आत्म का ही वाचक शब्द रूप मात्र होता है । शिवम्-चिद् आनन्द रूप दो अंगों से युक्त होता है यानी चिद् और आनन्द रूप चिदानन्द रूप ही शिवम् है । शिवम्् चेतन-आत्मा तथा आनन्द जीव से युक्त तो होता है परन्तु इसमें सत्यम्नहीं होता है अर्थात्् सत्यम् में तो शिवम् रहता है परन्तु शिवम् में सत्यम् नहीं होता है क्योंकि सत्यम् परमात्मा वाचक तथा शिवम् आत्मा वाचक और सुन्दरम् जीव वाचक होता है । दूसरे शब्दों में शिवम् सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामथ्र्य के दो अंशों या अंगों या दो युनिट शक्ति-सत्ता से युक्त चिद् और आनन्द का संयुक्त रूप चिदानन्द रूप ही होता है । परमात्मा के पूर्णावतार तथा उसके प्रेमी, सेवक, अनन्य भक्त एवं अनुयायी के अतिरिक्त समस्त ऋषि, महर्षिगण, योगी-यति; ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पीर, पैगम्बर, प्राफेट्स तथा समस्त आध्यात्मिक सन्त महात्मा ही इसके अन्तर्गत आते हैं । इस प्रकार परमात्मा या परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) शब्द-रूप या शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म रूप होता है जो सत्यम् रूप में रहते हुये शिवम् तथा सुन्दरम् से भी युक्त होता है परन्तु आत्मा आत्म’ - ज्योति रूप ब्रह्म-ज्योति रूप स्वयं-ज्योति शिवम् रूप में रहते हुये सुन्दरम् से युक्त तो रहा है परन्तु सत्यम् इसमें नहीं रहता है। इसी शिवम् से सम्बन्धित यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी ही यजुर्वेदनाम से कहा गया था ।

शिवम् कदापि सत्यम् नहीं
सद्भावी शैव बन्धुओं ! शैव से तात्पर्य योग-साधना या अध्यात्म से सम्बन्धित समस्त योगी-साधक-सिद्ध या आध्यात्मिक बन्धुओं से है । हालांकि वर्तमान में योग-साधना या अध्यात्म वाले अपने शैव न मानकर वैष्णव मानने लगे हैं जबकि वैष्णव परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा वाले श्री विष्णुजी महाराज, श्रीरामचन्द्रजी महाराज एवं श्री कृष्णचन्द्रजी महाराज तथा उनके अनन्य प्रेमी, अनन्य सेवक, अनन्य भक्त एवं अनुयायीगण आते हैं, आत्मा ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म या दिव्य ज्येाति रूप ईश्वर या स्वयं ज्योति रूप शिव नहीं । आज-कल तो श्रीविष्णु, राम, कृष्ण जी के मूर्ति पूजक एवं कण्ठी-माला वाले ही अपने को वैष्णव मानने लगे हैं एवं शंकरजी की नाना रूपों में मूर्तियाँ एवं प्रस्त-खण्ड (पत्थर का टुकड़ा) को ही शंकर जी मान-मान कर पूजना शुरू कर दिये हैं जिससे शैव का स्थान ले लिये हैं । वैष्णव और शैव की यह मूर्ति प्रधान धारणा गलत एवं भ्रामक है ।

शिवम् को शंकर ही मानने वाले नाजानकार एवं नासमझदार जन भूल एवं भ्रमवश गलत धारणाओं के कारण अपने को शैव मान लेने वाले शंकर जी को ही आदिपुरुष, सत्पुरुष, परमपुरुष, भगवान्, परमेश्वर, परमात्मा, महेश, महादेव, महेश्वर, तारक देव (मुक्ति देने वाले) मानने लगे हैं जबकि यह सारी मान्यतायें भूल एवं भ्रम मूलक तो होती ही है साथ ही साथ थोथी एवं समाज को भ्रमित कर-करके परमात्मा तथा मुक्ति और अमरता से काफी दूर कर देते हैं । ये शैव जन वैष्णव को भी अपने ही अधीन करने, मानने, समझने लगे हैं जिससे इन्हें शैव और वैष्णव का अन्तर भी नहीं समझ में आता है और दोनों को एक ही मानने लगे हैं जबकि उनकी यह मान्यता बिल्कुल ही गलत है ।

शिवम् कदापि सत्यम् नहीं अर्थात् शैव कदापि वैष्णव नहीं या सोऽहँ-ह ँ्सो वाले आध्यात्मिक-साधक जन कदापि परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परम-ब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा वाले तत्त्वज्ञानी या सत्यज्ञानी या परमविद्या या विद्यातत्त्वम् पद्धति वाले ज्ञानी नहीं । शिवम् तो सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य के मात्र दो अंश मंे ही चिद् और आनन्द रूप में ही होता है जबकि सत्यम् तीनों--- सत् चिद् और आनन्द रूप सच्चिदानन्द रूप पूर्ण होता है । शिवम् कभी भी पूर्ण नहीं होता है । पूर्ण तो एकमात्र सत्यम् ही होता है क्योंकि शिवम् आत्म तथा सत्यम् परमतत्त्वम् का रूप होता है । शिवम्, सत्यम् का अंश तथा सत्यम् शिवम् का अंशी रूप होता है । दोनों एक नहीं हो सकते हैं । जैसे सूर्य और सूर्य-किरण एक ही नहीं, दो है वैसे ही सत्यम्् और शिवम् एक ही नहीं  दोनों दो हैं । सत्यम् सूर्य जैसा है तो शिवम् उसके किरण जैसा ।

जब-जब पृथ्वी पर अत्याचार एवं भ्रष्टाचार उग्रतम रूप ले लेता है, चारों तरफ ही अत्याचार एवं भ्रष्टाचार का ही बोल-बाला हो जाता है । चोरी, डकैती, लूट, हत्या, राहजनी, आगजनी, अपहरण, व्यभिचार, जोर-जुल्म तथा समस्त भ्रष्टाचार का उत्पत्ति, संरक्षक एवं संचालक रूप घूसखोरी अन्तिम रूप ले लेता है यानी पृथ्वी की व्यवस्था जब मानवीय और दैवी स्तर पर सुधारने एवं सम्भालने मान नहीं रह जाता है तब-तब सच्चिदानन्द रूप सत्यम् रूप परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा रूप परमतत्त्वम् का अपना दिव्य आकाश रूप परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता है । हालांकि अवतरण के पूर्व परमात्मा द्वारा आत्मा रूप शिवम् रूप चिदानन्द रूप आध्यात्मिक सन्त-महात्मा सोऽहँ-ह ँ्सो रूप शिवम् के साथ भू-मण्डल पर अग्रदूत रूप में प्रेषित किये जाते हैं अथवा होते हैं परन्तु ये शिवम् वाले बन्धुगण समाज सुधारक के स्थान पर स्वयं ही शिवम् को ही सत्यम् यानी आत्मा को ही परमात्मा, ब्रह्म को ही परमब्रह्म, ईश्वर को ही परमेश्वर, ह ँ्सो को ही परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप तथा अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान या सत्य-ज्ञान घोषित कर-कराकर स्वयं ही अध्यात्मवेत्ता महात्मा के स्थान पर तत्त्ववेत्ता परमात्मा या अवतारी बन-बन कर अध्यात्म रूपी मिथ्याज्ञान को ही तत्त्वम् रूपी सत्यज्ञान घोषित करने-करवाने लगते हैं जिससे समाज सुधार के बजाय समाज विनाश का रूप ले लेता है यानी परमात्मा के पूर्णावतार रूप तत्त्ववेत्ता सत्पुरुष या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामथ्र्य के पूर्णावतार वाले परमपुरुष के अवतार हेतु शिवम् वाले शंकर जी, नारदजी तथा सच्चे ऋषि-महर्षियों को भी करुण पुकार करनी पड़ती है तब पूर्णावतार होता है जो समाज को सर्वतोभावने सुधार तथा उद्धार करने की शक्ति-सत्ता सामथ्र्य रूप होता है । अन्ततः बतला देना चाहता हूँ कि शिवम् कदापि सत्यम् नहीं होता है । शिवम् आत्मा या ह ँ्सो वाला तथा सत्यम् परमात्मा या परमतत्त्वम् या आत्मतत्त्वम् होता है ।

सद्भावी सौन्दर्य प्रेमी बन्धुओं ! सुन्दरम् से तात्पर्य स्वर-प्रधान या आनन्द-प्रधान अच्छाई से है । सुन्दरम् स्वर-प्रधान या स्वर-संचार पद्धति से जीवन को क्रियाशील करने या होने से है । सुन्दरम् सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य के एक अंश मात्र जो आनन्द मात्र हैके अन्तर्गत क्रियाशील होता है । यह सत्यम् से रहित तो होता ही है, शिवम् से रहित भी होता है । सुन्दरम् सत्य एवं कल्याण से रहित एक आनन्द मात्र की क्रिया पद्धति है । प्राण संचार पद्धति या स्वर संचार पद्धति की यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी ही सामवेदकहलाता है । हालांकि कि वर्तमान सामवेद ऋषियों के मनमानागिरी के कारण वेदका तीनों अंग-- ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद ही अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है । यही तीन प्रकार की विद्या--- (१) तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान, जो परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा या परमसत्य से सम्बन्धित यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी (२) योग-साधना या अध्यात्म जो आत्म-ज्योति शब्द-रूप आत्मा या ब्रह्म ज्योति रूप ब्रह्म या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर या स्वयं ज्योति रूप शिवम् से सम्बन्धित यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी तथा (३) स्वर-संचार पद्धति या प्राण संचार पद्धति, जो जीव तथा शरीर  द्वारा संसार में कार्यों के प्रति अभीष्ट सफलता प्राप्त करते हुये जीवन को नीति-प्रधान विधानों से सम्बन्धित यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी ही तीन वेद यानी तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान, जो सच्चिदानन्द रूप परमात्मा रूप सत्यम् वाला तो ऋग्वेद; योग या अध्यात्म, जो चिदानन्द रूप आत्मा रूप शिवम् वाला यजुर्वेद तथा स्वर-संचार या प्राणसंचार जो आनन्द रूप जीव रूप स्वर वाला सामवेद है ।

अतः सत्यम् सच्चिदानन्द रूप परमात्मा का वाचिक शब्द रूप होता है इसलिये सत्यम् में चिदानन्द रूप शिवम् तथा आनन्द रूप सुन्दरम् तो होता ही है; परन्तु शिवम्-- चिदानन्द रूप आत्मा की जीवन की ओर (सोऽहँ) तथा जीव का आत्मा की ओर (ह ँ्सो) रूप आत्म-शक्ति या ब्रह्म-शक्ति या दिव्य शक्ति या शिव-शक्ति का वाचिक शब्द रूप होता है जो आनन्द रूप सुन्दरम् से युक्त तो होता है परन्तु सत् रहित होता है, पुनः सुन्दरम् मात्र आनन्द रूप जीव या नीति या स्वर या प्राण-संचार का ही वाचिक शब्द रूप है जो सत् रूप सत्य तथा चिद् रूप चेतन या आत्मा या शिवम् से सर्वथा रहित होता है । अर्थात् दूसरे शब्दों में सत्यम्-- सत् चिद् आनन्द तीनों अंश वाला परमानन्द का रूप होता है जिसमें मात्र दो अंश चिद् आनन्द वाला शिवानन्द तथा एक अंश वाला आनन्द तो होता है परन्तु शिवम् दो अंश  वाला, तीनों अंश वाला नहीं, पुनः शिवम् दो अंश चिद् आनन्द में एक अंश आनन्द वाला सुन्दरम् तो है परन्तु सुन्दरम् आनन्द रूप एक अंश वालातीनों अंश वाला सत्यम् तथा दो अंश वाला शिवम् नहीं होता । इस प्रकार सत्यम् तो सत् चिद् आनन्द रूप सच्चिदानन्द तीनों अंश रूप परमात्मा वाचक होता है एवं शिवम् चिद् आनन्द रूप चिदानन्द रूप दो अंश वाला आत्मा वाचक है और सुन्दरम् आनन्द रूप मात्र एक अंशवाला जीव या स्वर या प्राण संचार वाचक होता है ।

इस प्रकार सत्यं शिवं सुन्दरम् को एक ही कदापि न मानना चाहिये और न कहना चाहिये । सत्यम्-परमात्मा-ऋग्वेद; शिवम्-आत्मा- यजुर्वेद तथा सुन्दरम्-जीव (स्व) सामवेद रूप ज्ञान का तीन रूप, शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य का -- रूप तथा उच्चारण एवं भाव का तीन रूप परम-आत्म-स्व आदि रूप तथा उच्चारण एवं भाव का तीन रूप परम-आत्म-स्व आदि है ।

सद्भावी वेदाभिलाषी बन्धुओं ! अब तक तो हम आप सभी बन्धुओं परमात्मा-सत्यम्-ऋग्वेद; आत्मा-शिवम्-यजुर्वेद तथा जीव या स्वर-सुन्दरम्-सामवेद रूप वेदत्रयी या त्रैविद्या को जाना, देखा और अब अथर्ववेद जो शरीर तथा शारीरिक व्यवस्था रूप सम्पत्ति (अर्थ) से सम्बन्धित जानकारी जानना देखना है । अथर्ववेद की मर्यादा बाद में हुई है पहले तो वेदत्रयी ही थी परन्तु बाद में अथर्ववेद भी विरचित होकर चैथे वेद का रूप ले लिया । अथर्ववेद अर्थ (धन) प्रधान तथा उसके व्यवस्था से सम्बन्धित यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी ही अथर्ववेद है । यह शरीर तथा संसार के मध्य कर्म का ही परिपूर्णतम विधान है ।

शरीर और संसार का जहाँ तक सवाल है, इसे भी स्थिर बुद्धि से जानना और समझना चाहिये तत्पश्चात् उसी जानकारी और समझदारी के आधार पर निष्काम भाव से अपने शरीर को कर देना चाहिये अन्यथा मुक्ति और अमरता एवं शान्ति और आनन्द की प्राप्ति तो हो ही नहीं सकती है सुख और ऐश्वर्य भी दुर्लभ हो जायेगा जिसका परिणाम यह होगा कि अशान्ति और अभाव रूपी दोनों 

सम्पर्क करें

परमतत्त्वम् धाम आश्रम
B-6, लिबर्टी कालोनी, सर्वोदय नगर, लखनऊ
फोन न॰ - 9415584228, 9634481845
Email- bhagwadavatari@gmail.com

Total Pageviews