"द्वैत-सिद्धान्त" सृष्टि-विधान

"द्वैत-सिद्धान्त" सृष्टि-विधान
सद्भावी द्वैत् प्रेमी बन्धुओं ! आइये अब द्वैत् को देखा-समझा जाय कि यह कहाँ से कैसे-कैसे आ गया क्योंकि इसकी भी एक अपनी अहं भूमिका है जो सत्पुरुष तथा महापुरुषों के ओझल होते ही अपने प्रभाव को सब पर प्रभावी रूप से थोप देता है।
आदि सृष्टि के पूर्व  परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) बचन रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म रूप परमेश्वर रूप यहोवा रूप गाॅड रूप अल्लातआला रूप खुदा रूप सत्पुरुष रूप सत्सीरी अकाल रूप परमात्मा थे । जो अद्वैत्तत्त्व रूप या वन्ली वन् गाॅड या ला अिलाह अिल्ला हुव या एको ब्रह्म द्वितीयो नास्तिवाली बात थी जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हेतु सर्वप्रथम आत्मशब्द परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप बचनसे पृथक् हुआ जो स्वयं ज्योति से युक्त था । वह ज्योति परमसत्य रूप परमेश्वर या परमात्मा से उत्पन्न हुई थी इसलिये वह सच्ची ज्योति थी । चूँकि वह आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति चेतनों का चेतन रूप परमात्मा से उत्पन्न हुई थी इसलिये उसमें चेतनता रूपी जीवन भी था जो जीवन-ज्योति भी है । इस प्रकार सर्वप्रथम अद्वैत्तत्त्व रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् से सृष्टि-उत्पत्ति हेतु आत्म-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति रूप ईश्वर या डिवाइन लाईट रूप जीवन-ज्योति रूप सोल या लाइफ या नूरे इलाही रूप फरिश्ता या वहीया चाँदना रूप आत्मा या सोऽहँ-ह ँ्सो व ज्योति रूप आत्मा-जीव-जीवात्मा रूप द्वैत् उत्पन्न हुआ तत्पश्चात् उसी आत्म-ज्योति से द्वैत् पुनः द्वैत् से द्वैत् रूप में होता गया ।
सद्भावी मानव बन्धुओं ! जब परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप बचन रूप अलम् रूप गाॅड रूप शब्द-ब्रह्म से आत्मशब्द पृथक् हुआ जो ज्योर्तिमय होने के कारण आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या डिवाइन लाईट या नूरे इलाही आदि है । इस प्रकार परमतत्त्व तत्त्वरूप में तो अपने दिव्य आकाश रूप परमधाम में विराजमान रह गया परन्तु आत्म-ज्योति रूप आत्म-शक्ति रूप ब्रह्म-शक्ति द्वैत्-सिद्धान्त रूप से पृथक् होकर सृष्टि-उत्पत्ति का कारण रूप हुई और परमतत्त्वम् रूप तत्त्व महाकारण या परमकारण या मूलकारण हुआ । चूँकि आत्म-शक्ति द्वैत्-सिद्धान्त रूप से उत्पन्न एवं पृथक् हुई थी इसलिये द्वैत् से पुनः द्वैत् रूप आत्म और शक्ति यानी आत्मसे पुनः शक्ति पृथक् हो गयी जो द्वैत् से द्वैत् है । सर्वप्रथम तो अद्वैत्तत्त्वम् से द्वैत् हुआ था परन्तु अब द्वैत् से द्वैत् का क्रम चलना प्रारम्भ हुआ ।
एक तरफ ज्योति रूपा शक्ति प्रवाह युक्त प्रचण्ड अक्षय तेज पुँजरूप में शून्याकाश में गतिशील होने लगी और दूसरे तरफ आत्मशरीरों का सम्पर्क पा-पा कर सोऽहँ- आत्मा से जीव यानी आत्मशरीर से पृथक् सःसे तथा शरीर के अन्दर अहम्शब्द से चेतनता के कारण क्रियाशील होने लगा । इस प्रकार अज्ञातावस्था में आत्मशब्द ही सःरूप में शून्याकाश में इधर-उधर विचरण करने लगा तथा प्राण-वायु के सहारे शरीरों में प्रवेश करके जहाँ पर यह अहम् शब्द रूप धारण करके स्वास में सः तथा निःस्वास में अहं शब्द रूप में भीतर-बाहर ह ँ्सो तथा बाहर-भीतर सोऽहँ शब्द रूप द्वैत् रूप से एक साथ आत्म-शक्ति या ब्रह्म-शक्ति या शिव-शक्ति या स्वयं-शक्ति रूप में स्वर-संचार रूप में शरीर से सम्बन्धित रहते हुये क्रियाशील होने   लगा । उधर प्रवाह युक्त प्रचण्ड अक्षय तेज पुँजरूपा शक्ति द्वैत्-सिद्धान्त से पृथक् होते हुये तारा पुच्छल तारों आदि रूप में होते हुये द्वैत् पद्धति से विभिन्न रूपों में होता हुआ आज पदार्थ-रूप तथा वस्तु रूप में बिखरे द्वैत्-सिद्धान्त की बातें कितनी बतलायी जाय जबकि एक से अनेक क्या, अनेकानेक दिखलायी देने वाली हर व्यक्ति और वस्तु, शरीर और सम्पत्ति, शक्ति और सत्ता, कामिनी और कांचन, चाँद और सूर्य, इंगला और पिंगला, स्त्री और पुरुष, रात और दिन, माता और पिता, पति और पत्नी, भाई और बहन, पुत्र और पुत्री, दादा और दादी, आदि और ब्रह्म और शक्ति, शिव और शक्ति, लक्ष्मी और नारायण, सीता और राम, राधा और कृष्ण, आदिशक्ति और परमब्रह्म, भक्त और भगवान्, सेवक और स्वामी, गुरु और शिष्य आदि-आदि सारी दुनिया ही द्वैत्-सिद्धान्त पर आधारित है । दुनिया ही जाहिर करती है कि हर वस्तु और व्यक्ति, शक्ति और सत्ता भी दोमें ही क्रियाशील होते हैं । यदि दो शब्द हट जाय तो सृष्टि या दुनिया की सारी क्रियाशीलता और गतिशीलता ही रूक या बन्द हो जायेगी । विद्युत शक्ति भी धन और ऋण दो भागों में ही दिखलायी देती है । द्वैत् में ही भक्ति, सेवा तथा प्रेम भी कायम रह सकता है । यही कारण है कि स्वयं अद्वैत्तत्त्व रूप परमब्रह्म या परमात्मा भी द्वैत्-सिद्धान्त रहने देते हैं । परमात्मा क्या करते हैं एवं कैसे रहते हैं द्वैताद्वैत-सिद्धान्त में देखें ।

अद्वैत्तत्त्वम्
सद्भावी तत्त्वनिष्ठ बन्धुओं ! अद्वैत्तत्त्वम्से तात्पर्य परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् से है जिससे पृथक् कुछ है ही नहीं; सृष्टि की वस्तु तो सृष्टि की वस्तु है, जड़-चेतन रूप सारी सृष्टि ही जिसमें निहित रहती है तथा जिसके संकल्प के आधार पर ही जो उत्पन्न तथा लय होती है वह परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् ही अद्वैत्तत्त्वम्’   है । यह सदा ही परमआकाश रूप परमधाम में विराजमान रहता है जहाँ पर समस्त देवता तथा विश्व और चारों वेद ही जिसके सेवार्थ ही वास करते हैं तथा आदि-शक्ति स्वयं ही जिसके सेवा में प्रेम-मग्न लवलीन रहती हैं वह परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्ही अद्वैत्तत्त्वम् है । यथार्थतः अद्वैत्तत्त्वम् एवं एकत्वबोध दोनों तरफ एक ही परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा का रूप है ।
द्वैत् के पूर्व भी अद्वैत्तत्त्वम् ही था । अद्वैत्तत्त्वम् आत्मतत्त्वम् से ही सर्वप्रथम आत्म-ज्योति रूप आत्मा की उत्पत्ति हुई जिससे कि द्वैत् रूप सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई । बन्धुओं ! दुनिया जो द्वैत् रूप भास रही है वास्तव में देखा जाय तो मूलतः यह अद्वैत्तत्त्वम् रूप में ही है जैसा कि पिछले शीर्षक सर्वं खल्विदं ब्रह्ममें स्पष्ट किया गया है । यदि यथार्थतः थोड़ा भी गहराई में जाया जाय तो स्पष्ट दिखलायी देगा कि जो कुछ भी दिखलायी दे रहा है । सब ही स्वप्न जैसा ही है परन्तु  स्वप्न से ही इसका महत्व हल्का है जैसे जड़-चेतन रूप दो वस्तु से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है तथा जड़-चेतन रूपी दोनों की उत्पत्ति शक्ति और आत्मा हुई है अर्थात् आत्म-ज्योति रूप आत्म-शक्ति ही आत्मा तो चेतन ही चेतन रही परन्तु ज्योति रूपा शक्ति जड़-पदार्थ रूप ले लिया जो जड़-चेतन ही सृष्टि की मूलतः दो वस्तुयें पुनः देखिये कि आत्म-ज्योति रूप आत्मा रूप आत्मशब्द की उत्पत्ति और पृथक्करण भी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् से ही हुआ जो अद्वैत्तत्त्वम्रूप है ही ।
बन्धुओं ! यथार्थतः बात तो यहाँ है कि इस द्वैत् दुनिया में अद्वैत्तत्त्वम् की बात कैसे और कहाँ से आयी । इस आवागमन-चक्र रूप सृष्टि-चक्र एवं काल-चक्र में द्वैत् के कारण फंस कर मैं-मेरा या हम-हमार तथा तू-तोहार या तू रूपी व्यक्ति-वस्तु या शरीर-सम्पत्ति या कामिनी-कांचन मोह-बन्धन में से मोह-भंग या बन्धन-मुक्त होने हेतु नाना तरह के जीव-स्तरीय विचार तथा योग-साधना या आत्मा स्तरीय आध्यात्मिक शोध-प्रक्रियाओं के द्वारा मूल-कल्याण की तलाश जब विचारक तथा योगी-यति, ऋषि-महर्षि, ब्रह्मर्षि, प्राफेट्स, पैगम्बरों, आध्यात्मिक, महानुभावों, नाना-विधानों से सृष्टि-चक्र या मैं-मेरा, तू-तेरा का मूल शोध करने लगे तो उसी प्रक्रिया में शंकर जी आदि कुछ महानुभावों ने योग-साधना एवं स्वर-संचार साधन के माध्यम से आत्म-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म या दिव्य-ज्योति रूप ईश्वर सोऽहँ-   ह ँ्सो-ज्योति रूप शिव-शक्ति या स्वर-शक्ति रूपा स्वरसती की या विषय पकड़ या जानने-समझने में आया । इससे भी सर्वं खल्विदं ब्रह्म रूप अद्वैत् की अनुभूति हुई परन्तु मूल  . . .  . . नहीं मिटा कि आखिरकार यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जो जड़-चेतन द्वैत् रूप या आत्म-ज्योति रूप है तो यह आत्म-ज्योति कहाँ से आयी । सृष्टि-चक्र ने आगे चलते हुये आत्म ज्योति रूपा आत्म-शक्ति या ब्रह्म-ज्योति रूपा ब्रह्म-शक्ति को जान-समझकर अपने अहं रूप जीव को आत्मामय या ब्रह्ममय रूप ह ँ्सो व ज्योति बनने-बनाने के बजाय उल्टी पद्धति से आत्मा या ब्रह्म को ही अपने साथ अपने अहं को कायम रखते हुये सोऽहँ व ज्योति की अनुभूति कि वही मैं हूँ’, ‘सोऽहँ’ - ‘वही मैंआदि बार-बार अनुभूति करते हुये आत्मसाधना या ब्रह्म-साधना करने लगे जिससे कि सामान्य अहंएवं शक्ति से युक्त एक महान् या शक्तिशाली अहंकार या बलवती अहंकार या जबर्दस्त अहंकार की उत्पत्ति और स्थापना शुरू हुआ । यह एक साथ ही अनेकों द्वारा अनेकों में उत्पन्न और कायम हुआ जिससे आपस में छोटा-बड़ा का भेद, पुनः एक-दूसरे की निन्दा, एक-दूसरे से घृणा, बैर-विरोध, डाह-द्वेष आदि इतने बड़े पैमाने पर हो गया कि  समाज सतयुग में ही दो भागों में विभाजित हो गया जो सुर-असुर कहलाये । ये सुर और असुर आपस में बैर-विरोध तक ही सीमित नहीं रह पाये और इतना जबर्दस्त संग्राम आपस में कर दिये कि असुरों का सफाया एवं सुरों की रक्षा व्यवस्था हेतु स्वतः परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप वचन या शब्द-ब्रह्म को शरीर धारण करना पड़ा और अपना यथार्थतः अद्वैत्तत्त्वम् रूप दिखाना पड़ा ।
वास्तव में तत्त्वज्ञानया विद्यातत्त्वम् या सत्यज्ञान या अद्वैत्तत्त्वम् रूप सत्य-धर्म कहलाया । यही सत्य सदा धर्म घोषित और स्थापित हुआ ।
जिसे तत्कालीन बन्धुओं नारद, ब्रह्मा, शंकर, गरुण, इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण आदि आदि सभी महान् देवताओं ने भी स्वीकार किया ।
वास्तव में किसी का दोष तब तक तो नहीं ही कहा जा सकता है जब तक कि वह अज्ञान में है । नाजानकारी एवं नासमझदारी के दोष सामान्यतया दोष नहीं ही मानना चाहिये । नाजानकारी एवं नासमझदारी की बात पद-सुनकर तो सोऽहँ वाले बन्धुओं को कष्ट होना स्वाभाविक ही है फिर मैं तो उन बन्धुओं से निवेदन ही करुँगा कि थोड़ा सा अहंकार हटाकर या अहंकार रहित भाव में देखना शुरू करें तो यह पता लगेगा कि हम उन्हीं बन्धुओं के विशिष्ट समीपी एकमात्र उन्हीं के संरक्षण यानी रक्षा-व्यवस्था तथा मर्यादा-गरिमा को स्थिर और मजबूत करने हेतु ही भू-मण्डल पर आये हैं । भले ही वे अपना विरोधी माने, मर्यादा भंग करने वाला माने या चाहे जो भी माने । लेकिन मैं तो सत्यता एवं यथार्थता के साथ यही जानता हूँ कि आध्यात्मिक एवं भगवद् जिज्ञासुओं, बन्धुओं के लिये ही आया हूँ । मैं सोऽहँ या अहं या शरीर मात्र आधार मानकर चलने वालों में से किसी की भी निन्दा स्तुति करने नहीं आया हूँ, दुनिया वाले मेरी निन्दा-स्तुति चाहे जितने ऊँचे से ऊँचे स्तर पर क्यों न करें । खैर जो भी हो मैं तो सभी को सत्यता एवं यथार्थता का परिपूर्णतम् ज्ञान देने आया हूँ और वही कर रहा हूँ । एक तरफ से मैं अद्वैत्तत्त्वम्रूप एकत्वबोध के माध्यम से मुक्ति और अमरता का बोध कराता हूँ और दूसरे तरफ दुष्टों का सफाया । बन्धुओं यही मेरा कत्र्तव्य कर्म है जिसके लिये मैं आया हूँ । अब मेरे अपने कत्र्तव्य-कर्म करने में किसी को (दुष्टों को) शोक एवं सज्जनों को हर्ष होना स्वाभाविक ही है परन्तु यथार्थता एवं सत्यता यही है कि मैं अद्वैत्तत्त्वबोध द्वारा सभी का सहयोग करने के लिये मात्र आया हूँ ।

विशिष्टाद्वैत्
सद्भावी ब्रह्मविद् बन्धुओं ! आइये अब हम आप सभी एक नजर विशिष्टाद्वैत् के तरफ भी देखें कि इनकी यथार्थता का सत्यता क्या है ? ‘विशिष्टाद्वैत्से तात्पर्य ब्रह्म भी सत्य और जगत् भी सत्यसे है । विशिष्टाद्वैत् वाले बन्धुओं की यथार्थतः मर्यादा एवं कथन यह है कि सत्य तो सत्य है ही, सत्य से उत्पन्न एवं सम्बन्धित न रहने वाली सारी सृष्टि भी सत्य ही है ।
बन्धुओं ! महानुभावों को क्या कहा जाय कि एक ही विषय-वस्तु को जानने-जनाने हेतु अनेकानेक शब्दों या उपाधियों या नामों से अभिव्यक्त कर-करा कर अपने मर्यादा एवं गरिमा को बढ़ाने और कायम या स्थिर रखने हेतु सत्यता एवं यथार्थता की मर्यादा एवं गरिमा के तरफ थोड़ा भी ध्यान नहीं देते हैं कि हमारे मर्यादा एवं गरिमा रूपी स्वार्थ-पूर्ति में हम-हमार तथा तू-तोहार का मूल रूप सत्य की मर्यादा या गरिमा भी समाप्त हो रही है । इनकी दशा ठीक उसी तरह का है कि सिर काटकर सिर के केश की रक्षा किया जाय या पेड़ के पत्ते की हरियाली का विकास एवं रक्षा हेतु पेड़ की जड़ ही काट दिया जाय । जबकि सृष्टि के पूर्व में अद्वैत्तत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् मात्र ही था जो परमब्रह्म रूप सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य से युक्त था । उसी से आत्म-शक्ति की उत्पत्ति हुई जिससे कि सृष्टि उत्पन्न हुई जो द्वैत् रूप में है । सृष्टि की द्वैत् से उत्पन्न, द्वैत् से क्रिया से द्वैत् से गतिशील होती है, हो रही है, होती रहेगी । विशिष्ट द्वैत् सर्वं खल्विदं ब्रह्मका ही दूसरा नाम है पर्याय रूप है । इसलिये उसे ही पुनः देखें । यह विचार न करें कि पढ़ चुके हैं । बार-बार पढ़ना भी अच्छा है ।

द्वैताद्वैत् - सिद्धान्त
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! द्वैताद्वैत् से तात्पर्य द्वैत् रूप सृष्टि तथा सृष्टि के अन्तर्गत कामिनी और कांचन, शरीर और सम्पत्ति अथवा व्यक्ति और वस्तु रूप संसार में हम-हमार तथा तू-तोहार अथवा मैं-मेरा तथा तू-तेरा रूप द्वैत् से सम्पूर्ण सृष्टि के मैं-मैं-तू-तू को अद्वैत्तत्त्वम् रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् वाले मैंसे ही उत्पन्न तथा उसी का प्रतिबिम्बवत् रूप है । जिसकी यथार्थ जानकारी दरश-परश एवं बात-चीत तथा अद्वैत्तत्त्वबोध या एकत्व बोध रूप में ज्ञान-दृष्टि या बोध-दृष्टि से दर्शन करानेवाली तत्त्वज्ञान-पद्धति मात्र से ही होता है तथा सृष्टि का सम्पूर्ण मैं-मैं, तू-तू का विलय रूप मैंही एकमात्र सत्य या यथार्थ मैंहै शेष शरीर, जीव, जीवात्मा तथा आत्मा वाला भी सभी मैं जिससे उत्पन्न एवं जिसमें लय होता है वही एकमात्र मैंही सत्य  एवं यथार्थ है । इस प्रकार बोध कराने वाला परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् ही अद्वैत्तत्त्वम् है । इस प्रकार अद्वैत्तत्त्वम् से द्वैत् रूप सम्पूर्ण सृष्टि तथा शरीर और सम्पत्ति है जो शरीर, शारीरिक, परिवार, पारिवारिक, संसार, सांसारिक, विचार, वैचारिक अध्यात्म, आध्यात्मिक आदि सब ही द्वैत् रूप में ही रहते हैं भले ही अद्वैत् की बातें क्यों न करते   हों । परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप बचन रूप शब्द-ब्रह्म भू-मण्डल पर अवतरित होकर द्वैत् या शरीर धारण कर उसी शरीर के माध्यम से सृष्टि के सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू उद्गम और विलय रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् को दर्शाता है । वही अद्वैत् है ।
सर्वशक्ति-सत्ता का उद्गम और लय रूप सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामथ्र्य रूप परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या यहोवा या गाॅड या अल्लातआला या खुदा मात्र ही एकमात्र पूर्णरूप है, शेष सब अपूर्ण है भले ही वह आत्मा हो या ब्रह्म, ईश्वर हो या स्पिरिट, सोल हो या नूर, सोऽहँ-ह ँ्सो व ज्योति हो या अहं ब्रह्मास्मि रूप विचार सब के सब ही अपूर्ण होते हैं । पूर्ण तो एकमात्र अद्वैत्तत्त्वम् ही है ।
परमात्मा       -      आत्मा  -      जीव     -    शरीर    -   संसार
गाॅड  -      सोल    -      सेल्फ    -     बाडी    -   वल्र्ड
अल्लातआल    -      नूर    -     रुह    -   जिस्म   -   खिलकत
परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप परमप्रभु के एक अंश मात्र आत्मशब्द जो ज्योतिर्मय था जिससे-- आत्म-ज्योतिकहलाया से सम्पूर्ण सृष्टि ही क्रियाशील एवं गतिशील होती आयी है, हो रही है एवं होती रहेगी भी । तत्त्वज्ञान या सत्य-ज्ञान या विद्यातत्त्वम् तथा योग-साधना या आध्यात्मिक-क्रिया-प्रक्रिया एवं स्वर-संचार-पद्धति से रहित; शेष सम्पूर्ण प्राणिमात्र ही इसी एक अंश मात्र से ही उत्पन्न, संरक्षण एवं संचालन में रहते हैं । समस्त प्राणिमात्र शान्तिप्रिय, आनन्दित रूप आपस में मेल-मिलाप रूप में नीति के अनुसार रहते हैं तब तक तो कोई बात नहीं रहती है परन्तु जैसे नीति समाप्त होकर समाज नियम प्रधान हो जाता है तो समाज में दूषित-भाव, दूषित-विचार एवं दूषित कर्म शुरू एवं विकसित होने लगता है, तब परमप्रभु अपनी ही शक्ति-सत्ता में से एक और अंशसे युक्त करके प्रकाश-दूत भेजते हैं, जो सोऽहँ के माध्यम से अध्यात्मवेत्ता रूप महापुरुष प्रकट होकर ह ँ्सो व ज्योति के माध्यम से समाज में अशान्ति के स्थान पर शान्ति एवं शोक के स्थान पर आनन्द प्रदान करते हुये सामाजिक अशान्ति को शान्ति एवं सामाजिक शोक को सामाजिक प्रसन्नता रूप समाज-सुधार करते हैं जो योगी-यति, सन्त-महात्मा, प्राफेट-पैगम्बर, ईश-दूत आदि आदि उपाधियों से विभूतिषत होते हुये समाज में परमात्मा-खुदा-गाॅड के अस्तित्त्व को भगवद्-भक्ति के रूप में स्थापित करते  हुये समाज को शिक्षा एवं दीक्षा देते हैं कि समाज भगवद्-भक्ति मात्र से ही शान्ति और आनन्द की उपलब्धि कर सकता है । एक युग में ही दो बार अवतारी के अवतरण के मध्य या बीच-बीच में बार-बार ऐसे आध्यात्मिक महापुरुष समाज सुधार हेतु आते एवं समाज सुधार भगवद् भक्तों के माध्यम से करते हुये, ‘यहीघोषित एवं स्थापित भी करते रहते हैं ।
संसार में अथवा सृष्टि में सृष्टि-चक्र के साथ ही आवागमन-चक्र तथा समय-चक्र भी चलता रहता है । एक मिनट में सेकण्ड की सुई साठ-चक्र करती है यानी हर एक स्थान से साठ बार गुजरती है इसी प्रकार हर एक घण्टा में मिनट की सुई भी साठ चक्र ही करती है, हर दिन रात में घण्टे वाली सूई चैबीस चक्र करती है, हर सप्ताह में दिन-रात सात चक्र करते हैं, हर माह में लगभग सप्ताह बार-चक्र करते हैं, हर वर्ष में माह बार चक्र करते हैं तथा समय-चक्र में युग-चक्र अन्तिम मापक ईकाई होता है जो चार भागों में है -- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग । यह चारों बराबर चक्र काटते रहते हैं । हर युग के उतार-चढ़ाव के मध्य या बीच में ही परमब्रह्म रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप बचन या शब्द-ब्रह्म का भू-मण्डल पर पूर्णावतार रूप शरीर-धारण होता है जैसे सतयुग के उतार और त्रेतायुग के आगमन या चढ़ाव के समय श्रीविष्णुजी महाराज के रूपमें; त्रेतायुग के गमन या उतार या द्वापरयुग के आगमन या चढ़ाव के समय श्रीरामचन्द्रजी महाराज के रूप में; तथा द्वापरयुग  के गमन या उतार या कलियुग के आगमन या चढ़ाव के समय श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज वाली शरीर के रूप में पूर्णावतार हुआ था । वर्तमान में उसी परमब्रह्म या परमेश्वर या यहोवा या गाॅड या अल्लातआला का ही भू-मण्डल पर पूर्णावतार एवं शरीर ग्रहण या धारण हुआ है क्योंकि कलियुग का गमन या उतार तथा पुनः सतयुग का आगमन या चढ़ाव का समय है । हम आप तथा सभी बन्धुओं का परम उद्देश्य या परमलक्ष्य एवं सर्वप्रथम सर्वाधिक अत्यावश्यक या अनिवार्य कत्र्तव्य कर्म यही है कि पूर्णावतार रूपी अवतारी सत्पुरुष की यथार्थ जानकारी दरश-परश एवं स्पष्टतः पहचान करते हुये उनके अनन्य सेवा-भक्ति हेतु उनके शरण में शरणागत होकर उन्हीं के आज्ञाओं, निर्देशनों, आदेशों एवं विनों में रहते हुये अपने जीवन को दोष-रहित-जीवनरूप में कायम करते हुये संकल्प लिया जाय कि हम आजीवन दूषित-भावों, दूषित-विचारों , दूषित-व्यवहारों एवं दूषित कर्मों को करना और देखना तो दूर रहा, सुनने के लिये भी पास नहीं आने देंगे । उसके स्थान पर सद्भाव, सद्विचार, सद्व्यवहार, सद्प्रेम या भगवद् प्रेम एवं सकर्मों को प्रतिस्थापित करेंगे ।
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप अलम् रूप गाॅड का पूर्णावतार रूप अवतारी सत्पुरुष ही एकमात्र सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामथ्र्य रूप भगवान् या यहोवा या गाॅड या अल्लातआला ही ऐसा होता है जो स्वयं अद्वैत्तत्त्वम् रूप रहते हुये द्वैत् रूप सांसारिकों के साथ द्वैत् सा व्यवहार करता हुआ सदा अद्वैत्तत्त्वम् रूप में मुक्ति और अमरता का बोध कराते हुये तत्त्वज्ञान पद्धति से जीव-जीवात्मा तथा आत्मा का अपने आत्मतत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप एकत्वबोध कराते हुये परमात्मा-खुदा-गाॅड के प्रति पूर्ण समर्पण कराते हुये परमात्मा या यहोवा या गाॅड या अल्लातआला तथा सत्य-ज्ञान या तत्त्वज्ञान या सत्य-धर्म या दीन की राह के संस्थापनार्थ पूर्ण समर्पित रूप में अनन्य सेवा-भक्ति में लगाते हुये शारीरिक द्वैत् को अद्वैत्तत्त्वम् प्रेम-रूप में परिवर्तित करके दिव्य-आकाश रूप परमधाम या अमरलोक सदा निवास हेतु योग्य बना देते हैं । जिससे बड़े आसानी से सेवक एवं भक्त परमधाम के वासी बन जाया करते हैं । चूँकि पूर्णावतार रूप अवतारी अद्वैत्तत्त्वम् रूप रहता हुआ भी द्वैत् रूप में सेवा अनन्य-भक्ति एवं अनन्य-प्रेम को कायम रखते हुये अद्वैत्तत्त्वम् भाव में एक साथ ही द्वैताद्वैत् रूप का जीवन-यापन जो पूर्णतः दोष - रहितहोता है करते-कराते रहते हैं । उद्धव ने गोपी सन्देश के रूप में राधा-कृष्ण के बीच यथार्थतः द्वैताद्वैत्त्वम् का परिचय राधा के माध्यम से पाया था । राधा-कृष्ण रूप में तथा कृष्ण को राधा के रूप में जानते-देखते एवं बोध करते हुये द्वैताद्वैत् को समझा था ।

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