‘सियाराममय सब जग जानी’ - भ्रामक

सियाराममय सब जग जानी’ - भ्रामक
सद्भावी सियाराममय प्रेमी बन्धुओं ! आज कल सर्वाधिक चर्चित सियाराममय सब जग जानी से तात्पर्य भगवद्-शक्ति ही में लीन भक्ति-भाव की अभिन्नतासे है । तुलसीदास जी सोऽहँ वाले थे जैसा कि उनके अभिव्यक्तियों से जाहिर होता है जैसा कि श्री रामचरित मानस के मूल-शीर्षक ज्ञान-दीपकमें स्पष्ट किया है --- सोऽहमस्मि इति वृति अखण्डा । दीप सिखा सोई परम प्रचण्डा ।। आतम अनुभव सुख सुप्रकाशा । मिटहिं भेद-भव मूल भ्रमनाशा ।।  तुलसीदास जी सोऽहमस्मि वाली आत्म-ज्योति वाली आत्मा वाले ही थे जैसा कि स्पष्ट हो रहा है कि आतम अनुभव सुख सुप्रकाशाआत्मा अथवा आत्म-ज्योति तथा आत्मानुभव को ही वे ज्ञान समझते थे । इसीलिये इसे ज्ञान दीपक शीर्षक कहा है । आत्मा वाला सारे संसार को आत्मवत् देखे यही उसकी यथार्थता है परन्तु जब वह आत्मा को ही खुदा या परमात्मा घोषित करना शुरू करता है तब ही उसकी यह जबर्दस्त अहंकारिता या उसके मिथ्याज्ञानाभिमान का स्पष्टतया पता चल जाता है कि अब ये आत्माभिमानी हो गये । इसी प्रकार के मिथ्याज्ञानाभिमानी रूप आत्माभिमानी तुलसीदास भी थे । यहाँ पर यह बात भी स्पष्ट ही है या सत्य ही है कि तुलसीदास के प्रेमी एवं तुलसीदास में निष्ठावान् व्यक्तियों को विशेष कष्ट हो परन्तु थोड़ा सा व्यक्तिवाचक से सत्यवाचक होते हुये निष्पक्ष मस्तिष्क या स्वतन्त्र एवं शुद्ध विचार करके देखें कि जो बातें बतलायी जा रही है, वह सत्य है या असत्य । हालांकि सत्य-असत्य का निर्णय विचार से भी सम्भव नहीं होता है । यह तो मात्र सत्यज्ञान पर ही आधारित होता है कि सत्य-असत्य में क्या अन्तर होता है । सत्यज्ञान के बगैर सत्य-असत्य का यथार्थ होना कठिन ही नहीं, अपितु असम्भव ही होता है । फिर भी आभासित सत्य से ही निर्णय कर लिया जाय कि मैं तुलसीदास जी की निन्दा कर रहा हूँ अथवा सत्यता को सबके समक्ष रखते हुये यथार्थता की जानकारी दे रहा हूँ ।
बन्धुओं ! आदिकालीन शंकर जी से लगायत वर्तमान कालिक समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्मा महानुभावों ने जिसमें वशिष्ठ एवं व्यास भी तथा बाल्मीकि और याज्ञवल्क्य भी हैं, सभी आत्मा वाले महानुभावों ने एक स्वर से ही आत्मा को ही परमात्मा अथवा डिवाइन लाईट रूप सोल को ही गाॅड अथवा नूरे इलाही को ही अल्लातआला अथवा ब्रह्म-शक्ति को ही परमब्रह्म-आदिशक्ति मानने, कहने अपने अनुयायियों को उपदेशित करते हुये इसी भाव का सद्ग्रन्थों की रचना आदि भी कर दिये और कर रहे हैं । हालांकि बाद में चलकर कुछ महानुभावों ने परमात्मा या परमब्रह्म के पृथक् अस्तित्त्व को स्वीकार किया और उनका अनुगमन एवं अनुशीलन भी किया जिसमें से शंकरजी, ब्रह्माजी, नारदजी, बाल्मीकिजी, वशिष्ठजी, व्यासजी तथा तुलसीदास जी आदि-आदि प्रमुख हैं परन्तु अधिकाधिक संख्या में आत्माभिमानियों या मिथ्याज्ञानाभिमानियों ने श्रीविष्णुजी महाराज, श्रीरामचन्द्रजी महाराज एवं श्री कृष्णचन्द्रजी महाराज आदि को तथा इनके परमतत्त्व रूप आत्मतत्त्वं रूप को आत्मा या ब्रह्म से श्रेष्ठ परमात्मा या परमब्रह्म माना ही नहीं ।
सद्भावी सियाराम प्रेमी बन्धुओं ! योग-शिरोमणि अथवा अध्यात्म शिरोमणि जिन-जिन बन्धुओं ने श्रीविष्णु जी महाराज, श्रीरामचन्द्रजी महाराज, श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज को सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च, सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोत्तम्, परमब्रह्म या परमात्मा का अवतार स्वीकार किया था । वे-वे या उन-उन बन्धुओं ने उनके रहते उनके परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् को जानने, समझने तथा उनके सेवा-भक्ति हेतु शरणागत होने में आत्म-ग्लानि एवं प्रतिष्ठा हनन मानते, समझते हुये शरणागत नहीं हुये, जिससे उनके यथार्थतः तत्त्वरूप को न तो जान-समझ एवं पहचान ही पाये थे और न ही सेवा ही भक्ति कर पाये थे, जब कि छोटे-छोटे स्तर के, निम्न स्तर के, अधमाधम स्तर के, पशु-पक्षी स्तर आदि-आदि के गरुण, नारद, केवट, सेवरी, जटायू, हनुमान, विभीषण, गोपियाँ, विदुर, कुब्जा आदि आदि भी सेवा-भक्ति एवं शरणागत होकर भवसागर से तर भी गये तथा समस्त योगी-आध्यात्मिक सन्त-महात्मा, ऋषि-महर्षि तथा ब्रह्मर्षि आदि महानुभावों के भी शिरमौर्य हो गये । यह होता है परमात्मा या परमब्रह्म के शरणागत का परिणाम और प्रभाव । आत्मा वाले बन्धुओं ने तो सबके बाद स्वीकार किया था । देखा-देखी और अपने रक्षार्थ स्वीकार किया था हालांकि दिल से तो पहले ही स्वीकार कर चुके थे परन्तु मर्यादा रूप अहंकार के कारण शरणागत होकर सेवा-भक्ति नहीं कर पाये, जिसका परिणाम ही हुआ कि सामान्य से सामान्य श्रेणी में दिखलायी देने वाले शिरमौर्य हो गये और वे योगी-यति ऋषि-महर्षि ही बने रह गये । चूँकि आत्मा वाले बन्धुओं ने परमात्मा या परमब्रह्म के तात्त्विक-रहस्यों को तो जाना नहीं था इसलिये सद्ग्रन्थों की रचना करने में आत्मा या ब्रह्म के गुण या प्रभाव तथा नाम-रूप को ही परमात्मा या परमब्रह्म का भी उल्लिखित कर दिया तथा कर भी रहे हैं जबकि उनका बिल्कुल ही भिन्न होता है । जैसे आत्मा सदा ही संसार में प्रत्येक शरीरों के भीतर और बाहर भी रहती है जबकि परमात्मा सदा ही परमआकाश रूप परमधाम या अमरलोक में रहता है, आत्मा अंश है तो परमात्मा अंशी; आत्मा सर्वव्यापी है तो परमात्मा एकदेशीय; आत्मा एक आत्म-ज्योति है तो परमात्मा आत्म-ज्योति रूप आत्मा का उद्गम श्रोत तथा विलयकत्र्ता रूप; आत्मा वाले ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि, योगी-यति, प्राफेट्स, पैगम्बर तथा आध्यात्मिक है तो परमात्मा वाले ज्ञान-द्वारा या सद्गुरु या अवतारी या पूर्णावतार या तात्त्विक; आत्मा साधना से जानी, देखी तथा अनुभूति की जाती है तो परमात्मा विद्यातत्त्वम् या तत्त्वज्ञान पद्धति या सत्यज्ञान या परमज्ञान से जाना, देखा तथा बात-चीत करते-कराते हुये पहचान करते हुये अद्वैत्तत्त्वबोध एवं एकत्वबोध या तौहीद या गाॅड इज वन् का यथार्थतः तत्त्वबोध द्वारा किया जाता है; आत्मा को प्राप्त करने पर शान्ति और आनन्द की अनुभूति होती है जबकि परमात्मा मिलता है तो परमशान्ति, परमानन्द, सच्चिदानन्द, पापमुक्ति, भव-मुक्ति, जन्म-मरण चक्र से मुक्ति, भगवद् सेवा, भगवद् भक्ति, भगवद्प्यार, भगवद् प्रेम, अमरता, परमधाम या अमरलोक में परमात्मा के साथ सेवार्थ सदा निवास आदि की उपलब्धि बोध के साथ ही होती है पापमुक्ति एवं परमपद का बोध तो तुरन्त ही होता है जबकि आत्मा से आत्मानन्द, ब्रह्मानन्द, चिदानन्द, दिव्यानन्द तथा मिथ्याज्ञानाभिमान की उपलब्धि होती है । इस प्रकार आत्मा वालों ने आत्मा और परमात्मा को एक ही कह-कह कर आत्मा के सम्पूर्ण व्यवहारों एवं क्रिया-प्रक्रिया को ही परमात्मा का भी उल्लिखित कर गये हैं और कर भी रहे हैं । उसी में से एक सन्त तुलसीदास जी भी हैं । आत्म-शक्ति रूप ब्रह्म-शक्ति को ही सियाराम के रूप में तथा सियाराम को ब्रह्म-शक्ति रूप में ही वर्णित किया है जैसा कि उक्त शीर्षक -- सियाराममय सब जग जानीसे जाहिर हो रहा है क्योंकि आत्म-शक्ति या ब्रह्म-शक्तिमय सब जग जानीकहे होते, तो उनके दृष्टिकोण में कुछ यथार्थता भी मिलती, परन्तु परमात्मा तथा आदि-शक्ति या परमब्रह्म तथा आदि-शक्तिमय सब जग जानीस्पष्टतः गलत या मिथ्या है क्योंकि यदि सब जग परमात्मा तथा आदि-शक्ति मय ही है या सियाराममय ही है तो ब्रह्मा और शंकर सहित सुरेश आदि लोग किसके अवतार हेतु पुकार किये थे कि-- जय जय सुरनायक, जनसुखदायक  . . .  . .  . . . . ।। तथा कैसी आकाशवाणी हुई थी कि -- जनि डरपहु मुनि    . . . . . .।। तुम्हरे लागि धरिहऊँ नरवेषा ।। इस प्रकार कौन नरवेष में अवतार लेगा ? जब सब जग ही सियाराममय है । जब सब जग ही सियाराममय है तो यह उक्ति कि-- जग पेखन तुम देखनि हारे । विधि हरि शम्भु नचावन हारे।। तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा । और को जानहिं जाननिहारा ।। यह सब किसके लिये कहा गया । इन सब प्रकरणों से स्पष्ट हो रहा है कि तुलसीदास जी ने सियारामकी यथार्थता को जान या समझ ही नहीं पाये थे । पुनः एक बात और देखें कि सब सियाराममय ही तुलसीदास ने देखा था तो उनके ग्रन्थ में ताड़का, सुबाहू तथा सुर्पणखा और खर-दूषण, रावण आदि राक्षस-राक्षसिन कौन हैं और कहाँ से आ गये हैं ? क्या ये जग के बाहर के हैं, मेरे दृष्टि में तो सतयुग में एक ही लक्ष्मीनारायण; त्रेतायुग में एक ही सियाराम तथा द्वापरयुग में एक ही राधा-कृष्ण थे । दो या तीन या अधिक तो अब तक हमने किसी भी ग्रन्थ में नहीं पाया है । यदि कहीं हों तो उसका भी जिक्र अवश्य ही करना चाहिये । बन्धुओं कथनी और करनी तथा कथनी और प्रयोग तथा कथनी और व्यवहार को एक होना चाहिये । यह गड़बड़ी मात्र तुलसीदास की ही नहीं, अपितु समस्त ही आत्मा या ब्रह्म वाले अध्यात्म वेत्ताओं के सद्ग्रन्थों में ही ऐसी गड़बडि़याँ, गलतियाँ एवं भ्रमपूर्ण उक्तियाँ भरी पड़ी है । मगर नाजानकारी, नासमझदारी एवं भावनिष्ठा के कारण कोई कह नहीं पाता है, कोई बोल नहीं पाता है एवं उन लोगों के खिलाफ कोई लिख नहीं सकता है क्योंकि उनके कथनों को गलत एवं भ्रामक साबित एवं प्रमाणित करने की जानकारी, समझदारी एवं साहस या हिम्मत नहीं होता है जिसका परिणाम यह होता है कि उनके गलत एवं भ्रामक उक्तियों या कथनों को लेकर ही लोग मग्न रहते हैं; उसके यथार्थता के प्रति ध्यान ही नहीं देते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि उचित लाभ नहीं मिलने पर परमात्मा तथा आदि-शक्ति अथवा परमब्रह्म तथा आदि-शक्ति से लोगों की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है और नास्तिकता चारो तरफ फैल जाती है जिससे समाज में व्यक्तियों का नैतिक स्तर बिल्कुल ही समाप्त हो जाता हैै और समाज में अभिमानी, चोर, लुटेरा, अत्याचारी, व्यभिचारी एवं भ्रष्टाचारियों की बाढ़ सी आ जाती है और चारों तरफ हा-हा कार मच जाता है जिससे परमधाम वासी परमात्मा को अवतार लेना पड़ता है । आज भी वही स्थिति उत्पन्न हुई है जिससे पुनः पूर्णावतार हुआ है जिसकी सत्य-धर्म की स्थापना एवं सज्जन रक्षा तथा दुष्ट-दलन प्रक्रिया चालू भी है । अब पूरे दुनिया के समस्त विधान ही आमूल-चलू परिवर्तित होंगे । अब देर नहीं है । अन्ततः परमात्मा और आदि-शक्ति एक-एक ही होता है और एक-एक ही रहता है ।
‘‘अहं ब्रह्मास्मि’’--अहंकार मात्र
अहंकारी बन्धुओं ! अहं ब्रह्मास्मि से तात्पर्य मैं ब्रह्म हूँसे    है । तत्त्वज्ञान तथा योग-साधना या अध्यात्म से रहित शास्त्रीय सन्त-महात्मा, रामायणी, वेदान्ती, स्वाध्यायी एवं विचारक बन्धुगण चूँकि परमात्मा और आत्मा की यथार्थता को तो जानते नहीं है और न ही किसी गुरु से योग-साधना ही सीखते हैं । ये लोग जीव को ही आत्मा या ब्रह्म मानने, कहने और इसी का उपदेश भी करने लगते हैं । ये अहंकारी-व्यक्ति होते हैं जो अपने शास्त्रीय अध्ययन के अभिमान में सदा ही चूर (फूले) रहते हैं कि किसी से योग-साधना सीखना एवं किसी का शिष्यत्व स्वीकार करना तो इनके प्रतिष्ठा या गरिमा के बिल्कुल ही खिलाफ होता है । ये जितना ही अध्ययनशील एवं स्वाध्यायी होते हैं उतना ही मूढ़ एवं जढ़ भी होते हैं । इनकी विद्वता (मात्र शास्त्रीय) के बड़े-बड़े कर्मचारी एवं व्यापारी शिकार होते हैं जो कल्याण के मार्ग से गिर जाते हैं ।
अहं ब्रह्मास्मि वाले स्वयं मूढ़ एवं जढ़ी होते हुये भी शिक्षाभिमान में चूर रहते हैं परन्तु स्वयं का अहंकार इनको तो भासता नहीं है क्योंकि ये अहंकारी लोग परमात्मा या परमब्रह्म के पूर्णावतार रूप अवतारी की तो कट्टर शत्रु मानते एवं देखते हैं; साधक, सिद्ध, योगी तथा अध्यात्मवेत्ता को भी अहंकारी, अभिमानी आदि घोषित किये बिना नहीं मानते हैं । अवतारी तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं के खिलाफ समाज को बलगलाये एवं घोर विरोध किये-कराये बगैर शान्त ही नहीं रह पाते हैं । इनका उपदेश कर्म-प्रधान तथा इनका प्रवचन आदि धन-संग्रह प्रधान होता है । यथार्थ बात तो यह है कि इन्हें कर्म की भी यथार्थ जानकारी नहीं रहती है फिर भी शिक्षा अभिमान में तात्त्विक तथा आध्यात्मिक शब्दों को तोड़-मरोड़कर व्याकरण आदि के पचड़े में जकड़ कर अर्थ का अनर्थ करते हुये उनके यथार्थता एवं भाव को ही समाप्त कर-करवा देते हैं जिससे उन तात्त्विक तथा आध्यात्मिक शब्दों के महत्व एवं गरिमा को ही समाप्त कर देते हैं जिससे शब्दों से सत्यता, यथार्थता एवं भावों की समाप्ति हो जाती है । ये धर्म के नाम पर अधर्म को प्रतिस्थापित करने में थोड़ा भी कसर (कमी) नहीं उठाते हैं । ये धर्म के कट्टर शत्रु होते हैं । धर्म-द्रोहिता इनका महान कार्य होता है । जब कभी भी परमात्मा का पूर्णावतार होता है उसका डटकर विरोध एवं संघर्ष किये बिना नहीं मानते हैं । ये रावण वंशी होते हैं क्योंकि रावण का पाण्डित्य तो इनको सर्वथा ग्राह्य है परन्तु श्रीविष्णु जी के उपदेश, श्रीरामचन्द्र जी का उपदेश तथा श्रीकृष्णचन्द्र जी महाराज का उपदेश तो इनके गले के नीचे तो उतरता ही नहीं है । रावण संहिता को ये इतना महत्व देते हैं जितना कि रामायण और गीता को भी नहीं ।
अहंकारी बन्धुओं ! अहं ब्रह्मास्मि वाले का अपना कोई अस्तित्त्व तो होता नहीं है । मात्र शास्त्रीय अध्ययन तथा उसी के अनुसार स्वाध्याय करते रहते हैं । इनके अन्दर यह विचार भी नहीं उठता है कि आखिरकार शास्त्रों के अध्ययन में क्या अध्ययन किया जा रहा है अथवा अध्ययन की जाने वाली विषय-वस्तु क्या है, किसकी है तथा कैसे कही गई है ? असल में इनका शिक्षाभिमान इनको बिल्कुल ही अन्धा बनाये रहता है फिर शास्त्रों की यथार्थता इन्हें कैसे दिखलायी दे यानी नहीं दिखलायी देती हैं । आइये बन्धुओं शास्त्रों की यथार्थता देखें ।
शास्त्रों की यथार्थता:-  अहं ब्रह्मास्मि वाले  अहंकारी बन्धुओं! आइये यहाँ शास्त्रों की यथार्थता को देखिये कि शास्त्र क्या है और किसका है तथा उसकी महत्ता का स्तर कहाँ तक है ? शास्त्रीय विषय-वस्तु दो भागों में विभाजित हैं पहला अवतार से सम्बन्धित तथा दूसरा आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं से सम्बन्धित । जहाँ तक पहला--- अवतार से सम्बन्धित शास्त्र से तात्पर्य उन शास्त्रों से है जिनमें श्रीविष्णुजी  महाराज, श्रीरामचन्द्रजी महाराज तथा श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज रूपी परमात्मा या परमब्रह्म के पूर्णावतार रूप अवतारी शरीर का जीवन-चरित्र तथा उनका उपदेश हो । जैसे--- श्री रामचरित मानस आदि । जहाँ तक दूसरा --- आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं से सम्बन्धित से तात्पर्य उन आध्यात्मिक विषय वस्तुओं से है जिसमें जीव का योग-साधना प्रक्रिया से आत्मा का दरश-परश करते हुये मिलकर आत्मामय या ब्रह्ममय या ईश्वरमय होकर रहने की खोज या जीव द्वारा आत्मा के शोध-विषयक विचारों का संग्रह ही समस्त सद्ग्रन्थ एवं शास्त्र हैं । दूसरे शब्दों में अवतारी का जीवन चरित तथा उपदेश तथा योगी-आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं का आत्मा के  शोध-प्रबन्धों का संग्रह मात्र ही सद्ग्रन्थ या शास्त्र है या शास्त्र कहलाता है ।
 अफसोस ही नहीं महान अफसोस की बात है कि अहं ब्रह्मास्मि वाले अहंकारी बन्धुगण जिन अवतारी सत्पुरुषों के जीवन तथा उपदेशों कों तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं के द्वारा जीव, ईश्वर आत्मा विषयक शोध-प्रबन्धों को पढ़-पढ़कर शास्त्रीय विद्वान् रामायणी आदि बनते हैं वर्तमान में उन्हीं का विरोध एवं उन्हीं से संघर्ष करने-कराने लगते हैं जबकि इन्हें ज्ञान, योग सीखना चाहिये ।
अहं ब्रह्मास्मिवाले अहंकारी बन्धुओं को थोड़ा सा इस बात पर भी अवश्य ही सोचना-विचारना एवं मनन करना चाहिये कि जिनके जीवनी या जीवन चरित तथा उपदेशाों को और जिनके शोध-प्रबन्धों को वह भी योग-साधना या आध्यात्मिक प्रक्रियाओं से शोधित आत्मानात्मा के शोधों का ही अध्ययन-अध्यापन करा-कराकर तो विद्वान्, पण्डित, शास्त्री, रामायणी, वेदान्ती, डी0लिट्, डी0फिल आदि आदि उपाधियों को हासिल या प्राप्त या उपलब्ध करते हैं । ये लोग इतने जढ़ी होते हैं कि छाँटते तो हैं, ब्रह्मज्ञान, यत्र-तत्र-सर्वत्र ही बातें करते हैं ब्रह्मज्ञान की परन्तु इनके कार्य होते हैं मात्र शारीरिक एवं साम्पत्तिक की तरफ। ये स्थिति एक प्रकार से ऐसे नास्तिकता की होती है, जो ऊपर से जबर्दस्त आस्तिकता का वस्त्र पहन कर, शाल ओढ़कर अथवा आस्तिकता के खोल में नास्तिकता का भाव ही छिपा होता है । इनकी आस्तिकता कि ब्रह्म है, भगवान् है । मगर मात्र इसीलिये हैं कि -- सब कुछ ब्रह्म ही तो है मेरे शरीर में ब्रह्म ही तो बोल रहा है, भगवान् ही मेरे शरीर से खा रहा है । ये बोल रहा है वह ब्रह्म ही तो है, भगवान् ही तो है, अहं ब्रह्मास्मि, त्वम् ब्रह्मास्मि, सर्वं खल्विदं ब्रह्म । अहं ब्रह्मास्मि अर्थात् वह ब्रह्म मैं हूँयानी मैं ही ब्रह्म हूँ । मेरे सिवाय कुछ नहीं है और प्रमाण में झट से श्रीकृष्ण जी महाराज के विराट रूप को रटे रहते हैं कि मैं ही सबकुछ हूँ ।
अन्ततः बतला दूँ कि इन अहं ब्रह्मास्मि वाले अहंकारी बन्धुओं का कोई खास दोष यानी विशेष दोष नहीं है । मात्र इनका इतना ही दोष है कि तत्त्वज्ञानी तथा योगी या आध्यात्मिक होते तो नहीं परन्तु अध्ययन के बल पर ज्ञानी एवं योगी एवं सब कुछ  स्वयं को ही कहते हंै तथा एक जबर्दस्त स्वार्थी प्रवृत्ति के होते हैं शरीर और सम्पत्ति ही दृष्टि है । असल में ये परमब्रह्म परमेश्वर या परमात्मा के ही प्रतिबिम्ब या प्रतिछाया होते हैं इसलिये अहं ब्रह्मास्मि का इनका विचार ठीक ही है क्योंकि इन्हें विचार के बाद कुछ जानकारी भी तो नहीं होती है । ये ठीक वही होते हैं जो सूर्य  जल के बर्तन में प्रतिबिम्ब होता है । शीशा वाला भी नहीं क्योंकि शीशा वाले तो योगी या आध्यात्मिक होते हैं । सूर्य वाला तात्त्विक होता है ।


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