योग अध्यात्म का रहस्य तत्त्वज्ञान में

योग अध्यात्म का रहस्य तत्त्वज्ञान में
                                  
तत्त्वज्ञानदाता ज्ञानमूर्ति परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करते हुए प्रार्थना है कि हे प्रभु अपने समर्पित-शरणागत भक्त-सेवकों को सदा अनन्य ज्ञान-भक्ति-सेवा से युक्त जीवन पर्यन्त बनाये रखें ।
आज वर्तमान समाज में धर्म के नाम पर अनेक वर्ग-सम्प्रदाय हैं जिनके अनेकों ग्रन्थ हैं जिनमें धर्म की अनेक तरह की व्यख्या दी गयी है इसलिए धर्म सम्बन्धी अनेक मान्यताओं से आज समाज भ्रमित है । वास्तव में धर्म अनेकता में बटा हुआ कदापि नहीं होता । धर्म परमात्मा-परमेश्वर- भगवान्-खुदा-गाॅड का निज सर्वोत्तम् विधान है जो एक था, एक है और एक ही रहने वाला है जिसमें स्पष्टतया संसार से लेकर परमेश्वर तक की सम्पूर्ण जानकारी तत्पश्चात् जानकारी के अनुसार अपने जीवन को रखना-चलना जिससे ये मानव जीवन लोक-परलोक दोनों के लाभ से युक्त होता है । आज कल के सन्त महात्मा-धर्मोपदेशक कर्मकाण्ड, अध्यात्म को ही धर्म समझते हैं जो सरासर नाजानकारी अज्ञानता है वास्तव में कर्म और अध्यात्म दोनों की ही उत्पत्ति-लय धर्म यानी ज्ञान-तत्त्वज्ञान में होता है ।
भगवदवतार का तत्त्वज्ञान वह सर्वोत्तम् विधान है जिसमें ही योग अध्यात्म तथा कर्म आकर समाप्त हो जाता है । सम्पूर्ण कर्म तथा सम्पूर्ण योग की भी उत्पत्ति तथा अन्त में उसी में विलय होते हुये तत्त्वज्ञान में दिखलायी देता है । मगर जितने भी ऋर्षि-महर्षि योगी अध्यात्मिक जन हैं सब योग-साधना को ही तत्त्वज्ञान, सोऽहँ-हँ्सो को ही परमतत्त्वम्, आत्मा ज्योति-ब्रह्म ज्योति-दिव्य ज्योति-शिव ज्योति को ही परमतत्त्वम् शब्दरूप आत्मतत्त्वम् भगवान्, आत्मा को ही परमात्मा, ईश्वर को ही परमेश्वर, ब्रह्म को परमब्रह्म, गुरु को ही भगवदवतार सद्गुरु मान-समझ कर घोषित करते  हैं । वास्तव में योग कदापि तत्त्वज्ञान नहीं है, सोऽह-हँ्सो कदापि परमतत्त्वम् नहीं, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव ही कदापि परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-भगवान् नहीं बल्कि आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव, परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म से उत्पन्न एक दिव्य ज्योति-चेतन ज्योति मात्र है । जीव का आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म से मिलन जुलन वाली क्रियात्मक-साधनात्मक पद्धति ही अध्यात्म योग-साधना है जिसका सम्पूर्ण सरहस्य जानकारी परमात्मा-परमेश्वर के तत्त्वज्ञान में होता है ।
जिज्ञासु और श्रद्धालु अनन्य भक्ति के द्वारा परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् रूप शब्द ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा की यथार्थतः जानकारी दर्शन तथा बात-चीत करते हुए पहचान करना ही तत्त्वज्ञान पद्धति में देखा जाता है कि  संसार, शरीर, जीव, आत्मा और परमात्मा आदि जड़ चेतन रूप सारी सृष्टि की उत्पत्ति संचालन, नियन्त्रण तथा विलय भी उसी में होता है यही आदि और अन्त से युक्त एकमात्र परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप शब्द ब्रह्म रूप परमब्रह्म रूप परमात्मा का तत्त्वज्ञानहोता है जो भगवदवतारी के साथ युग-युग में एक शरीर को धारण कर भगवद् लीला का सम्पादन  करते हुए धरती पर संस्थापन होता है ।
अध्यात्म का रहस्य नामक इस सद्ग्रन्थ में आत्मा ज्योति की उत्पत्ति सहित जीव का आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म से मिलन जुलन दरस-परस की सारी पद्धति, सरस्वती नहीं, यथार्थतः स्वरसती, मुद्राएँ, की उत्पत्ति का रहस्य, महावाक्य, सियाराममय सब जग जानी-भ्रामक, एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति , ‘‘द्वैत-सिद्धान्त’’ सृष्टि विधान, कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, विद्यातत्त्वम् या पराविद्या, मन्त्र-विभाग, गुण-विभाग, योग या अध्यात्म का रहस्य, स्वराट और विराट, वर्णाश्रम व्यवस्था,  ‘‘सत्यं वद्’: ‘धर्मं चर’’, सकाम-कर्म, निष्काम-कर्म, सन्यास और वैराग्यत्याग और समर्पण प्राप्ति का ही पूर्वरूप, हम-हमार की समाप्ति, समाप्ति नहीं अपित परमात्मा की प्राप्ति, अध्यात्म हेतु पूर्णतः त्याग, सत्यम शिवम् सुन्दरम्, शिवम् कदापि सत्यम् नही, वेदांग आदि विषयों की  जानकारी दिया गया है जिसके अध्ययन से सम्पूर्ण अध्यात्म के विषयों में जानकारी होगी ।
आप पाठक बन्धुजनों से निवेदन है कि इस अध्यात्म के रहस्य नामक सद्ग्रन्थ आप को हस्तगत है इस सद्ग्रन्थ को निष्पक्ष भाव से अध्ययन करने के पश्चात् ये जानकारी हो जाएगी कि अध्यात्म ही तत्त्वज्ञान नहीं है बल्कि अध्यात्म-आत्मा की उत्पत्ति-लय तत्त्वज्ञान में होता है जिसका सम्पूर्ण जानकार तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु भगवदवतार ही हैं । जिनके द्वारा ही ऐसे सद्ग्रन्थ की रचना सम्भव है । शेष सब भगवत् कृपा ।

आपका हितेच्छु
कमल जी
परमतत्त्वम् धाम आश्रम


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