निष्काम - कर्म
सद्भावी निष्कामी बन्धुओं ! निष्काम कर्म से तात्पर्य कामना-रहित कर्म से है । इस वर्ग में अनन्य भगवद् प्रेमी, अनन्य भगवद् सेवक एवं अनन्य भगवद् भक्त ही आते हैं । कुछ लोग या समाजसेवी भी ऐसे होते हैं जो निष्काम कर्म को ही करते और मानते हैं । निष्काम कर्म वाले का अपना नाम का कोई विषय वस्तु नहीं होता है जो कुछ भी होता है, सब परमप्रभु को समर्पित रहता है तथा परमप्रभु को ही ‘सर्वतोभावेन’ स्वीकार्य होता है । निष्काम-कर्म ही वास्तव में ‘सेवा’ है । सकाम कर्म तो नौकरी है, गुलामी है, दासता है, जब शरीर को प्रतिफल विहीन कर्म में लगाया जाता है तो उसमें किस प्रकार के आनन्द की अनुभूति होती है वह न तो कही जा सकती है और न लिखी ही । हाँ अनुभवगम्य है ।
सद्भावी मानव बन्धुओं ! जहाँ तक मेरी दृष्टि मंे दिखलायी देने की बात है वहांँ तक तो मात्र यही दिखलायी दे रहा है कि शरीर संसार में किसी न किसी का गुलाम, दास, सेवक एवं नौकर बनकर ही रह सकता है । चाहे वह पिता की गुलामी हो या माता की; चाहे वह पुत्र की गुलामी हो या पुत्री की; चाहे वह किसी भी शरीर या सम्पत्ति की या शरीर और सम्पत्ति के लिये भी गुलामी या दासता करके ही संसार में कायम रह सकती है । इस प्रकार जब शरीर को गुलाम या दास बन कर ही रहना है तो क्यों न वही गुलामी या दासता, सेवा या प्रेम परमात्मा या भगवान् से ही किया जाय । क्योंकि भगवद् प्रेमी, भगवद् सेवक एवं भगवद् भक्त का पद और महत्ता दोनों ही सर्वोच्च, सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोत्तम होता है । अतः हमें वही करना चाहिये । इस आनन्द, इस शान्ति तथा इस पद के समान सृष्टि में कोई पद नहीं है ।
निष्काम कर्म की महत्ता उतनी है जितनी कि लिखी ही नहीं जा सकती है । श्रीरामचन्द्र जी महाराज हनूमान के निष्काम सेवा से ही प्रसन्न होकर अपने यथार्थ तत्त्व का यानी तात्त्विक रहस्य की जानकारी या उपदेश देकर हनूमान को वास्तव में आत्मतत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म रूप का बोध कराया था । वास्तव में हम तो इस निष्काम कर्म तथा उसके अन्तर्गत परमप्रभु के तरफ से उपलब्ध होने वाले शान्ति, आनन्द तथा जो कुछ भी आवश्यक है, उपलब्ध होना चाहिये स्वतः ही होता रहता है । यह हम सब की कमी है कि कुछ कामना करते रहते हैं ।
निष्काम कर्म वाले बन्धुओं ! यदि दिल में किसी भी प्रकार की कामना उत्पन्न हो जाय तो जिससे कामना की उत्पत्ति होती है उसे ही त्याग देना चाहिये । हालांकि किसी भी त्याग से परमात्मा या भगवान् के प्रति समर्पण की महत्ता कितनी गुनी अधिक है इस बात को कैसे लिखा जाय । भगवान् की वस्तु तन-मन-धन को भाई-बन्धु, बेटा-बेटी आदि के लिये त्याग करना तथा भगवान् के तन-मन-धन को भगवान् को ही समर्पण करके भगवान् के ही निर्देशन, आज्ञा, आदेशों में पूर्णतः ले चलना दोनों दो बातें हैं दोनों की वास्तविकता तथा अन्तर अब आप बन्धुगण स्वयं जान-समझ कर निर्णय कर लेवें कि यथार्थता क्या है ? हम यदि परमात्मा या भगवान् के समक्ष अपनी चाह रखेंगे तो हमारे चाह का भी एक स्तर होगा जिसको पूरा कर देना भगवान् के लिये कोई बड़ी बात नहीं, परन्तु पूरा होने पर दूसरी चाह, तीसरी चाह रखते जायेंगे इससे तो सब तरह से अच्छा है कि हम बिना कुछ चाह के ही भगवान् के प्रति अनन्य प्रेम, अनन्य सेवा एवं अनन्य भक्ति हेतु अपने को ही उत्कट श्रद्धा विश्वास एवं ईमान के साथ उन्हीं को समर्पित करके पूर्णतः दोष-रहित या ‘निर्दोष जीवन-पद्धति’ का संकल्प लेकर उसी के अनुसार जीवन-यापन करें ।
सद्भावी कर्ममय आचरण वाले कर्मचारी बन्धुओं ! अपने आचरण को कर्म-प्रधान कदापि नहीं बनाना चाहिये क्योंकि कर्म एक ऐसा पाश है, बन्धन है जो कि जितना ही कोई लगन से कर्म प्रधान रूप मंे कर्म करेगा उतनी कर्म-पाश रूप कर्म बन्धन में बंधता जायेगा और एक शरीर से दूसरी, दूसरी से तीसरी, इस प्रकार नाना प्रकार की योनियों में भटकता रहेगा । कर्म से मुक्ति और अमरता की तो कल्पना भी नहीं करनी है; शान्ति और आनन्द भी नहीं मिल सकता है । हाँ, सुख-ऐश्वर्य की बात की जा सकती है जिसके पीछे दुःख और अशान्ति ताक (दृष्टि) लगाये बैठी रहती है कि जब मौका मिले, तुरन्त शरीर में प्रवेश कर जाऊँ। यही कर्म की वास्तविक उपलब्धि है । बन्धुओं कर्म की गति-विधि भी अति गहन है जिसको जानना समझना उतना आसान नहीं है जितना कहा, सुना और समझा जाता है। कर्म के भी अनेक रूप है-- कर्म, अकर्म, विकर्म, सुकर्म, कुकर्म तथा सत्कर्म आदि । इस प्रकार आइये बन्धुओं कर्म के इन रूपों के विषय में भी दो शब्द जानने का प्रयत्न करें ।
कर्म:- कत्र्ता द्वारा ज्ञान के अनुसार किया गया कार्य ही कर्म है । कत्र्ता द्वारा क्रिया में आने वाला कार्य ही कर्म है अर्थात् कत्र्ता द्वारा जो कुछ भी किया जाय वही कर्म है । दूसरे शब्दों में दशों इन्द्रियों द्वारा किया गया कार्य ही कर्म है । ‘कर्म’ शरीर और संसार के बीच इन्द्रियों द्वारा किया गया कार्य या व्यवहार होता है । कर्म पूर्णतः शरीर और सम्पत्ति प्रधान होता है । शरीर से ऊपर जीव, आत्मा, परमात्मा से तो इसका कोई सम्बन्ध ही नहीं होता है । शारीरिकता, पारिवारिकता तथा सांसारिकता में तो कर्म ही प्रधान है होता है हालांकि शिक्षा का स्थान इससे भी प्रधान होता है क्योंकि जैसी शिक्षा होती है वैसा ही कर्म होता है । फिर भी अज्ञान या अविद्या के अन्तर्गत कर्म की भी अपनी एक ‘अहं भूमिका’ होती है । शरीर रहते ‘कर्म’ का जाना या होना एक अनिवार्यतः पहलू है । कोई शरीर या जीवधारी यह नहीं कह सकता है कि हम कर्म करते ही नहीं है या हमारे द्वारा कर्म होता ही नहीं है अर्थात् हमारी शरीर न तो कर्म करती है और इसके द्वारा कर्म होता है । हम तो त्यागी हैं सब कुछ त्याग दिये हैं कर्म भी त्याग दिये हैं । तो उन त्यागी बन्धुओें को समझ लेना चाहिये कि त्याग भी एक कर्म ही होता है । कोई यह कहे कि मैं यह कार्य नहीं करुँगा क्योंकि मैं त्यागी हूँ । तो नहीं करने में भी करना छिपा है यानी ऐसे अकर्म में भी कर्म छिपा है ।
वास्तविकता तो यह है कि परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या बचन या गाॅड या अलम् रूप खुदा-गाॅड या परमब्रह्म, परमेश्वर रूप सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य रूप भगवान् साक्षात् पूर्णावतार रूप अवतारी द्वारा तत्त्वज्ञान पद्धति या सत्यज्ञान पद्धति या परमज्ञान पद्धति से स्पष्टतः जानते, देखते और बात-चीत करते हुये ठीक-ठीक से बोध न कर लें कि एक सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य रूप ‘आत्मतत्त्वम्’ ही है जिसमें से समस्त जड़-चेतन रूप दोनों की उत्पत्ति हुई है तथा अन्त में दोनों का विलय रूप भी यही होता है सृष्टि का सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू उसी प्रतिबिम्बवत् रूप मात्र है यानी एक ही अद्वैत्तत्त्वम् रूप सर्वोच्च सत्ता है जिससे जड़-चेतन रूप सम्पूर्ण शरीर और सम्पत्ति चालित-संचालित हो रही है जिसमें हम जीव तथा हमारी शरीर और सम्पत्ति उसका एक निमित्त मात्र है । सम्पूर्ण हम-हमार भी उसी तू-तोहार का ही है । जब तक पूर्णतः इस प्रकार का बोध नहीं हो जाता है तब तक ‘कर्म’ से विराग या अनासक्ति नहीं आ सकती है ममता-मोह तथा आसक्ति रूप कर्म-पाश या कर्म बन्धन की समाप्ति नहीं हो सकती है । कर्म से छूटने का एकमात्र तत्त्वज्ञान की यथार्थ जानकारी, स्पष्टतः बोध के साथ अनिवार्य है अन्यथा कर्म-पाश और काल-पाश से मुक्ति और अमरता की प्राप्ति या बोध कदापि सम्भव नहीं है । सब कुछ त्यागता हुआ या अकर्म मानता हुआ भी त्याग रूप कर्म करता है ।
अकर्म:- अकर्म से तात्पर्य कर्म से पूर्णतः विरक्ति यानी कर्म के न करने से है । शरीर रहे और कर्म न हो, यह दोनों बातें एक साथ सम्भव ही नहीं है । शरीर से कर्म तो होना ही है, हाँ, यह सम्भव है कि कर्म किया न जाय बल्कि शरीर से कर्म परमात्मा हेतु कराया जाय, तब वह ‘कर्म’ के परिभाषा में नहीं आयेगा, क्योंकि ‘कर्म’ वही है जो किया जाय । होने वाले कार्य कर्म मंे नहीं आते हैं । कर्म कत्र्ता-ज्ञान-क्रिया पर आधारित रहने वाला कार्य या व्यवहार होता है। जिसमें कत्र्ता ही न हो उसका कर्म कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है, कदापि नहीं हो सकता है । कर्म हेतु कत्र्ता-ज्ञान-क्रिया तीनों का होना अनिवार्य बात है । इस प्रकार कर्म से विरक्ति यानी कर्म-बन्धन से मुक्ति हेतु ‘अहं’ रूप कत्र्ता के आभास को विलय करना या समाप्त करना होगा । शरीर का विलय और ‘अहं’ का विलय दोनों दो बातें होती है । शरीर का विलय शरीर वाले जीवधारी को करना पड़ता है जबकि कोई शरीरधारी जीव ‘अहं’ का विलय या समाप्ति का बोध स्वतः ही नहीं अपितु एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता रूप अवतारी या सद्गुरु के वश की ही बात होती है जो अहं को परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् से उत्पत्ति तथा उसी में विलय कराते हुये सृष्टि के सम्पूर्ण ‘अहं’ को ही स्पष्टतः बोध के साथ दिखला दे, शेष सृष्टि में ऐसा करके दिखलाने की सामथ्र्य किसी अन्य को मिली ही नहीं है तो फिर वह दिखला कैसे सकता है । नहीं दिखला सकता । अतः ‘अहं’ं का विलय रूप बोध के सिवाय ‘अकर्म’ शब्द की यथार्थ पुष्टि ही नहीं हो सकती है । इसलिये कर्म-पाश से मुक्ति तथा काल-पाश से अमरता इन दोनों --- कर्म-बन्धन रूप कर्म-पाश तथा काल-पाश से दोनों--- मुक्ति और अमरता की उपलब्धि एकमेव तत्त्वज्ञान पद्धति से ही सम्भव है क्योंकि अहं तो अहं है, सोऽहँ और ह ँ्सो को भी अपने से उत्पन्न और अपने में विलय करके दिखला देने की भी सामथ्र्य तत्त्वज्ञान को ही है किसी अन्य को नहीं । यही कारण है कि तत्त्वज्ञानी सब कुछ कत्र्ता हुआ भी अकत्र्ता ही रहता है । वह तत्त्वज्ञानी जिसे स्पष्टतः बोध हो गया हो कि वास्तव में तन-मन-धन सब कुछ भगवान् का ही है, भगवान् के लिये ही है, भगवान् को ही एकमात्र इसका प्रयोग करने का अधिकार है और भगवान् की आज्ञा से ही वह कार्य करता है तो वह सब कुछ करता हुआ भी अकत्र्ता ही होता है बशर्ते कि वह भगवान् के ही निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश से कार्य करता हो, मनमाना कार्यों पर या परमात्मा के निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश से पृथक् कर्म का कत्र्ता तथा भोक्ता वह ज्ञान-ग्रहिता ही होता है । अकत्र्ता के बगैर ‘अकर्म’ की कल्पना करना ही मूर्खता की बात है। कर्म की समाप्ति नहीं होती है बल्कि कत्र्त रूपी अहंकार की समाप्ति करना होता है । जब कत्र्ता रूपी मिथ्याहंकार की समाप्ति हो जायेगी तो कर्म स्वतः ही अकर्म हो जायेगा । अन्यथा त्याग या विरक्ति से कर्म की समाप्ति नहीं होगी क्योंकि कीचड़ से हाथ धोने पर कभी भी कीचड़ छूट या धूल नहीं सकता है बल्कि और ही पोता (पुत) जायेगा, ठीक उसी प्रकार कर्म से कर्म कदापि नहीं छूट सकता है । यह तत्त्वज्ञान की ही सामथ्र्य है कि गुणों को गुण में तथा इन्द्रियों को इन्द्रियों मंे वर्तते हुये देखता है जिससे द्रष्टा का कोई लगाव नहीं, द्रष्टा को कोई मतलब नहीं । क्योंकि वास्तव में द्रष्टा गुण और इन्द्रियों से पृथक् होता है । इन्द्रियों तथा गुणों से द्रष्टा का कोई मतलब नहीं होता है इसीलिये गुणों और इन्द्रियों के कार्यों से द्रष्टा उसका कत्र्ता नहीं होता, वह अकत्र्ता ही बना रहता है । इस प्रकार की मान्यता पुस्तक पढ़कर नहीं मान लेनी चाहिये और न तो मिथ्याज्ञानाभिमान वश ही मानना चाहिये। यह आत्मतत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप एकत्वबोध या वन्ली वन गाॅड (व्दसल वदम ळव्क्) या ला। अिलाह अिल्ला हुव या तौहीद के बोध हो जाने पर ही ऐसा होने लगता है । यह करना नहीं पड़ता है, बल्कि होता है । यही है ‘अकर्म’ की स्थिति ।
विकर्म:- कर्म ही जो किसी विशिष्ट पद्धति से जानी जाय वह विकर्म है । सामान्य कर्म और विशिष्ट कर्म दो भागों मंे कर्म सामान्यतया बंटा होता है । सामान्य कर्म वह है जिसे समस्त मानव ही एक समान कर्म करते हों वह सामान्य कर्म है । जैसे-- भोजन करना, शयन करना, शौच करना, भय करना तथा मैथुन करना आदि कर्म सामान्य कर्म के अन्तर्गत आता है क्योंकि मानव तो मानव है सम्पूर्ण प्राणिमात्र में ही ये कर्म होते हैं । चाहे कोई कहीं भी रहे । सामान्य कर्म तो होते ही रहते है। । परन्तु विशिष्ट कर्म मात्र वह होता है जिस उद्देश्य या लक्ष्य विशेष से मनुष्य कहीं जाता या कहीं रहता है तो वह उद्देश्य या लक्ष्य-विशेष कार्य ही विकर्म है । विकर्म चूँकि लक्ष्य विशेष कर्म होता है इसका महत्व अधिक होता है इसलिये इस पर विशेष ध्यान देना चाहिये कोई व्यक्ति किसी नगर में नौकरी कर रहा है तो वहाँ पर नौकरी मात्र ही विकर्म है शेष क्वार्टर पर रहना, बाजार करना, भोजन पकाना और करना, स्नान करना, सोना-जागना आदि सामान्य कर्म में आते हैं विकर्म में नहीं । इस प्रकार मानव-जीवन में मात्र मुक्ति और अमरता विकर्म में आता है क्योंकि खाना-पीना, मौज करना आदि तो सभी योनियों में ही सम्भव है परन्तु मुक्ति और अमरता मानव योनि मात्र में ही सम्भव होता है इसलिये मानव योनि या मानव जीवन का विकर्म या उद्देश्य या लक्ष्य विशेष कर्म एकमात्र मुक्ति और अमरता का बोध करना ही होता है। अवश्य करणीय है ।
सुकर्म:- नीति और शास्त्र के अनुकूल किया गया कर्म ही सुकर्म है । यानी नैतिक और शास्त्रीय कर्म मात्र ही सुकर्म कहलाता है और है भी । सुकर्म का अर्थ अच्छे कर्म से होता है । सतोगुणी कर्म ही खास करके सुकर्म होता है । प्रत्येक मनुष्य को ऐसा तो अवश्य ही सोचना चाहिये कि जब हम ज्ञानी, योगी, सत्कर्मी, साधक आदि नहीं बन सके तो कम से कम सुकर्मी यानी समाज में अच्छे कर्म करके सुख-ऐश्वर्य तो हासिल करें । सुकर्म का शाब्दिक अर्थ सुन्दर-कर्म से है । सुन्दर कर्म से तात्पर्य ऐसे कर्म से है जो लगभग सबको ही सुन्दर या अच्छा लगता हो । सुकर्म से भी अपने आप को समाज में शान्ति मिलती है । यह एक प्रकार का शान्ति और आनन्द भी देता है जिसको सामान्यताया कहते हुये सुना जाता है कि यह इतना अच्छा कार्य हुआ है कि हमारे दिल को काफी शान्ति मिली है । काफी आनन्द मिला है। सुकर्म नीति और शास्त्रानुकूल कर्म होने के कारण मात्र सांसारिक नहीं अपितु वैचारिक अधिक होती है । वैचारिक का सीधा सम्बन्ध जीव से होता है । यानी ‘अहं’ रूप जीव विचार के माध्यम से ही कार्य करता है और विचार-प्रधान कार्य समाज में यानी शरीर-सम्पत्ति प्रधान कार्यों में तो अग्रणी होता ही है । इसलिये वैचारिक अथवा नैतिक कर्म मात्र ही सुकर्म कहलाने के हकदार होते हैं । सुकर्म का ही परिणाम देव योनि यानी देवी-देवता बनना है । शरीर रहते भी सुकर्मी अच्छा रहता है और शरीर छोड़ने पर भी नहीं परमात्मा और आत्मा की प्राप्ति तो कम से कम स्वर्ग में देवी-देवता की प्राप्ति जिसके प्रति विशेष निष्ठा रहती है, होती है ।
कुकर्म:- कुकर्म से तात्पर्य नीति और शास्त्र के प्रतिकूल या विरूद्ध या अनीति से युक्त कर्म से है । दूसरे शब्दों में तमोगुणी कर्म जो पूर्णतः अनीति प्रधान होता है वही कुकर्म है । कुकर्म, सुकर्म का ही विलोम या विरोधी शब्द एवं व्यवहार होता है ।चोरी, डकैटी, लूट, राहजनी, आगजनी, व्यभिचार, अपहरण, निन्दा, घृणा, डाह, द्वेष, जोर-जुल्म तथा घुसखोरी आदि कर्म कुकर्म ही कहलाता है । यह एक प्रकार का आसुरी एवं राक्षसी कर्म होता है जिसके कत्र्ता असुर एवं राक्षस निशाचर आदि उपाधियों से जाने जाते हैं । इन सबों को लोक तो बिगड़ता ही है परलोक भी बिगड़ जाता है । वास्तव में दैवी आनन्द तो इन सबों के लिये दुर्लभ होता ही है, मानवीय आनन्द भी ये सब अनुभूति नहीं कर पाते हैं क्योंकि इनके कुकर्मों के कारण सदा ही पुलिस इनके पीछे पड़ी रहती है जिससे ये सदा ही अशान्त, या बेचैन, परेशान तथा कष्टों से गुजरते रहते हैं । इनका कुकर्म न तो इनको आन्तरिक आनन्द ही लेने देता है और न बाहरी सुख-ऐश्वर्य ही पा पाते हैं । धन-दौलत के पीछे जुटाने और रक्षा करने में ये इतना परेशान या अशान्त रहते हंै कि सच्चिदानन्द और चिदानन्द की तो कल्पना भी इनके विचार में नहीं होती होगी, आनन्द भी ये समझ पायें यह असम्भव ही बात है । वाह्य आभासित सुख जो दुःख से भरे घड़े के मुख पर दिखायी देने वाले सुख के पीछे मरते रहते हैं । कुकर्म सर्वथा त्याज्य है ।
सत्कर्म:- सत्य से सम्बन्धित कर्म सत्कर्म होता है । सत्य द्वारा, सत्य के लिये, सत्य का कर्म ही सत्कर्म होता है । चूँकि वास्तव में ‘सत्य’ शब्द परमात्मा या भगवान् के लिये ही प्रयुक्त होता है । सत्य और भगवान् दोनों वास्तव में एक ही सर्वोच्च-शक्ति-सत्ता का पर्याय रूप होता है । यही कारण है कि तत्त्वज्ञान ही सत्यज्ञान भी होता है । इस प्रकार परमतत्त्वम् ही परमसत्य तथा परमसत्य ही परमतत्त्वम् होता है। तत्त्व द्वारा किया गया समस्त कार्य ही सत्कार्य होता है ।
परमात्मा के साक्षात् पूर्णावतार रूप अवतारी सत्पुरुष तथा उसके अनन्य प्रेमी, अनन्य सेवक तथा अनन्य भक्त द्वारा किया गया समस्त कार्य ही सत्कर्म के अन्तर्गत आता है क्योंकि अवतारी सत्पुरुष परमसत्य तथा अनन्य प्रेमी, अनन्य भगवद् सेवक एवं अनन्य भगवद् भक्त सत्य के साक्षात् मूर्ति होते हैं फिर इन बन्धुओं द्वारा किये गये कार्यों को शंका-सन्देह से देखना स्वयं देखने वाले की ही कमी हो सकती है । उन बन्धुओं की नहीं । सत्कर्म सदा निष्काम होता है परन्तु निष्काम कर्म सत्कर्म नहीं होता है । परमात्मा के निर्देशन आज्ञा एवं आदेश में किया गया प्रत्येक कार्य, चाहे जो भी हो, जैसा भी हो, जिन परिस्थितियों में भी वह सत्कर्म ही कहलायेगा क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि ही परमात्मा या भगवान् की ही होती है । इसलिये परमात्या या भगवान् के निर्देशन में किये गये कार्यों पर विचार करना ही विचारक की कमी एवं दोष है क्योंकि परमात्मा के किसी भी कार्य को देखने, निरीक्षण, परीक्षण करने का अधिकार किसी को भी होता ही नहीं । इसलिये कि जाँच एवं परीक्षण के ऊपर परमात्मा का स्थान होता है वे परीक्षण से परे हैं ।
सद्भावी बन्धुओं ! यज्ञ-जाप, पूजा पाठ, तीर्थ-व्रत आदि नाना विधि-विधानों से जो कुछ भी किया जाता है एवं जिस प्रकार से भी किया जाता है सबका सब ही लोक सत्कर्म समझ कर ही करते हैं परन्तु वास्तव में सत्कर्म तो वह है ही नहीं, वह सुकर्म के अन्तर्गत ही आयेगा क्योंकि सत्कर्म तो मात्र वही होता है जो सत्पुरुष तथा उसमें अपने को विलय कर देने वाले सत्पुरुष के अनन्य प्रेमी, अनन्य सेवक एवं अनन्य भक्त के द्वारा किया जाता हो । देवी-देवता हेतु एवं देवी-देवता द्वारा किये गये कार्य भी सुकर्म के अन्तर्गत ही आता है, सत्कर्म के अन्तर्गत नहीं ।
जो भी हो, शरीर तथा संसार के मध्य शरीर द्वारा किया गया सम्पूर्ण कार्य ही कर्म के अन्तर्गत आता है फिर उसमें यथाविधान स्तर या श्रेणी बना हुआ है जिसके अनुसार कर्म होता रहता है । जिस प्रकार संसार में रहने या आने-जाने वाले समस्त मानव लगभग समान आकृति (मानव) वाले ही होते हैं, भगवान् को भी भू-मण्डल पर आना होता है और लीला करना होता है तो उन्हें भी मानव शरीर को ही धारण करके भू-मण्डल पर विचरण करना पड़ता है आज भी वही विचरण हो रहा है । अब नासमझदार, मूढ़ व्यक्तियों के लिये तो भगवान् कुछ होता ही नहीं, कुछ मिथ्याज्ञानाभिमानी बन्धुओं के लिये परमात्मा या भगवान् मात्र निराकार होता है परन्तु तत्त्वज्ञानी बन्धुओं जो वास्तव में भगवान् की यथार्थ जानकारी और पहचान किये हुये है उनके अनुसार परमात्मा या भगवान् मात्र निराकार ही नहीं साकार भी होता है । एकमात्र निराकार सर्वोच्च-शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य ही साकार होकर भू-मण्डल पर लीला करते हैं ।
भगवद् लीला:- दिव्य आकाश रूप परमधाम या अमरलोक में वास करने वाले परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म रूप परमप्रभु का भू-मण्डल पर अवतरण होकर शरीर धारण कर अपने अनन्य प्रेमियों, अनन्य सेवकों,अनन्य भक्तों आदि के बीच किये कराये कार्य तथा सत्य-धर्म की संस्थापना, दुष्टों का विनाश तथा सज्जनों या सत्पुरुषों की रक्षा व्यवस्था हेतु किये कराये सम्पूर्ण कार्य ही लीला होता है चूँकि वह लीला भगवान् द्वारा ही किया कराया जाता है इसलिये वह भगवद् लीला कहलाता है । चूँकि सारी सृष्टि ही एक लीला है फिर भी जिस शरीर विशेष के माध्यम से लीला प्रभु करते-कराते हैं उसी शरीर के माध्यम से वह लीला कहलाने लगता है जैसे-- श्री रामलीला, श्रीकृष्ण लीला । कुछ लीला में गुण की महत्ता विशेष होती है । इसलिये उस गुण विशेष से सम्बन्धित लीला को उसी केे नाम से जाना और कहा जाता है जैसे- श्रीकृष्ण-लीला का ही विशेष महत्व है । वर्तमान में परमप्रभु जिस लीला को करेंगे वह सत्य-प्रधान होगा इसलिये काफी सम्भावना है कि ‘सत्य-लीला’ नाम ही पड़े । परन्तु यह नाम भगवद् प्रेमियों, भगवद् सेवकों तथा भगवद् भक्ता पर आधारित रहता है क्योंकि वे भगवान् वाली शरीर विशेष जो पूर्णावतार रूप अवतारी होता है, को जिस प्रकार जानते, समझते हैं, वैसे ही कर-कर के आनन्दित होते रहते हैं जो बाद में लीला, भगवद् लीला तथा शरीर विशेष के नाम पर श्री रामलीला तथा श्रीकृष्णलीला आदि से जाना जाता है जो समाज सुधार हेतु विशेष आवश्यक होता है ।
नाजानकार और नासमझदार मूढ़ जन लीला और कर्म में अन्तर नहीं जानने के कारण भगवद् लीला को भी महापुरुषों का कर्म ही मानते हैं । कर्म और लीला दोनों दो बातें हैं । कर्म वह है जिसका कत्र्ता किये जाने वाले कर्म या कार्य से विलग या पृथक् न होकर, उसी कर्ममय होकर कर्मफल भोगता भी हो, परन्तु लीला वह कार्य होता है जिसके कत्र्ता को स्पष्ट जानकारी रहता है कि किये जाने वाले कर्म तथा भोग से उसका अपना कोई महत्व नहीं है बल्कि वह समाज सुधार और समाजोद्धार हेतु ही सब कुछ कर रहा है किये जाने वाले कार्य का मूलतः वह कत्र्ता नहीं, बल्कि मात्र लोक-दर्शन, लोक सुधार एवं लोक-कल्याण हेतु ही किया जा रहा है तो वह कार्य लीला कहलाता है । जैसे रामलीला में जो राम-लक्ष्मण या भरत-शत्रुघन बनता है या जो वशिष्ठजी, दशरथ जी आदि जो भी बनता है वास्तव में वह वह होता नहीं है बल्कि उनके कार्यों का प्रदर्शन कर करके समाज सुधार हेतु लोक दर्शन मात्र के लिये वह उन लोगों का रूप बन-बन कर कार्य कर रहा है । इसलिये वह लीला है । चूँकि वह श्रीरामजी द्वारा किये गये लीला को ही प्रदर्शित कर रहा है । इसलिये वह श्रीरामलीला है । ठीक इसी प्रकार परमप्रभु का जब भू-मण्डल पर अवतरण होता है, तो वे इस मानव शरीर से कर्म करते और भोग भोगते हुये जो देखते हैं वे मूढ़ है क्योंकि परमप्रभु मनुष्य होता ही नहीं कि वह कर्म करे और भोग भोगे । वह तो एक सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य होता है जो मानव सुधार और मानवोद्धार हेतु मानव शरीर धारण करके मानव को किस तरह रहना चाहिये, क्या करना चाहिये आदि के माध्यम से सत्य-धर्म की स्थापना जो मानव का वास्तविक-धर्म होता है, को जनाते-दर्शाते एवं बात-चीत करते-कराते हुये बोध कराते और पहचान भी कराते हुये उत्कट जिज्ञासु और अनन्य श्रद्धालु भक्तों को अपने मूलतः परमतत्त्वम् रूप ‘आत्मतत्त्वम्’ का उपदेश करते हुये संसार में मनुष्य का रूप धारण करके जो उनका वास्तविक रूप नहीं होता है, लीला मात्र के लिये ही होता है करते-कराते हुये अपने लक्ष्य को पूरा कर मनुष्य तन रूपी बाह्य आवरण को यहाँ का यहीं पर छोड़ कर अपने मूलतः परमधाम या अमरलोक को सिधार जाते हैं । यही कारण है कि श्रीविष्णु जी वाली शरीर, श्री रामचन्द्र जी वाली शरीर तथा श्रीकृष्ण जी वाली शरीर भिन्न-भिन्न होने के बावजूद भी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप परमब्रह्म परमेश्वर एक ही थे, एक ही रूप दर्शन तथा एक ही रूप में तीनों को देखने वालों ने देखा जिससे स्पष्ट हो रहा है कि शरीर तो मात्र परमात्मा का बाह्याडम्बर होता है जो मात्र मानव लीला हेतु ही धारण किया गया है जो लीला के पश्चात् यही का यहीं पर छोड़ दिया जाता है । भगवान् और शरीर दोनों दो हैं यही कारण है कि भगवान् का कर्म नहीं, अपितु लीला कहलाता है । वर्तमान में भी उसी परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म का अवतरण पुनः भू-मण्डल पर हुआ है जिसकी वास्तविक जानकारी, दर्शन, पहचान करना मानव-मात्र के लिये एवं सबसे अत्यावश्यक और चरम और परम लक्ष्य है। अवश्य ही जानकारी और पहचान करके उन्हीं के शरणागत हो जाना चाहिये । अन्यथा समय पर चूक जाने पर पछताना पड़ेगा।
भगवद् लीला को आसानी से समझा नहीं जा सकता है । क्योंकि तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष एक सामान्य मानव के रूप में विचरण करता हुआ तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या सत्य-धर्म का प्रचार-प्रसार करता हुआ सर्वप्रथम हर वर्गों का निरीक्षण-परीक्षण करता हुआ सर्वप्रथम हर वर्गों का निरीक्षण-परीक्षण करता है तत्पश्चात् दुष्ट-दलन की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है । भगवद् लीला को कुछ थोड़े से अद्वैत्तत्त्वम् बोध तथा अनन्य प्रेमी, अनन्य भगवद् सेवक, अनन्य भगवद् भक्त मात्र ही जान-समझ, देख, पहचान पाते हैं । ऐसा कोई व्यक्ति जो सांसारिकता कायम रखते हुये विचार -बुद्धि या अध्यात्म साधना-बुद्धि से जानना, समझना तथा देखना और पहचानना चाहता हो तो यह उसकी नाजानकारी, नासमझदाी एवं मूढ़ता ही कही जायेगी क्योंकि दुनिया के समस्त सद्ग्रन्थ ही एक स्वर से यह स्पष्ट करते हुये दिखला रहे हैं कि अनन्य प्रेम, अनन्य सेवा एवं अनन्य भक्ति मात्र से ही भगवद् लीला को जाना, समझा, देखा, पहचाना जा सकता है । अहं बुद्धि वालों को तो परमप्रभु रूप अवतारी जबर्दस्त अहंकारी, व्यसनी को परमात्मा रूप अवतारी ही व्यसनी, अत्याचारी को अत्याचारी, भ्रष्टाचारी को भ्रष्टाचारी यानी जो जिस विषय-वस्तु का पे्रमी होता है उसको परमात्मा उसी विषय-वस्तु से युक्त तथा उससे श्रेष्ठ दिखलायी देता है । परमात्मा का आहार एकमात्र ‘अहं’ ही होता है। लोग ‘अहं’ को अपने पास कायम रखना चाहते हैं फिर यहीं से संघर्ष रूप विरोध की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है । संसारी व्यक्ति की सारी गड़बडि़यों की जड़ में ‘अहं’ छिपा होता है परमात्मा उस छिपे ‘अहं’ को ही उभाड़-उभाड़ कर समाप्त करते हैं जिससे एक जबर्दस्त संघर्ष की प्रक्रिया जारी हो जाते हैं लोग भगवान् को मात्र सन्त रूप में देखना चाहते हैं परन्तु भगवान् को तो संसार को हर पहलुओं से ठीक करना होता है, जिससे लोगों के अन्दर भ्रम होना स्वाभाविक ही है । भगवान् का साक्षात् अवतार चार-- शरीर, जीव, आत्मा, परमात्मा -- रूपों में एक साथ ही कार्य करना होता है । भ्रम का यह भी जबर्दस्त कारण है क्योंकि लोग मात्र शरीर ही समझ पाते हैं ।