‘योग या अध्यात्म का रहस्य’

योग या अध्यात्म का रहस्य
महामाया के मायावी चंगुल रूप काल-कर्म से बचने के लिये रास्ता का शोध करते हुये ऐसा कोई विधान शोध निकाला जाया जिसमें कर्म ही न होवे, क्योंकि कर्म ही न होवे, क्योंकि कर्म ही बन्धन का आधार होता है और कर्म ही शरीर-सम्पत्ति रूप कामिनी-कांचन में फंसा-फंसा कर अपने अधीन कर लेता है, हालांकि वास्तविकता का पता शोध करने पर लगा कि कर्म तो मनुष्यों या जीवधारियों से ही होता है । यदि मनुष्य कर्म ही न करे तो फिर बन्धन का सवाल ही नहीं उत्पन्न होता है और कर्म के माध्यम से ही गुण-दोष अपने अधीन करते हैं तो ऐसा विधान शोध करना चाहिये जिससे कर्म ही समाप्त एवं बन्द हो जाय, ताकि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी और न बजेगी बांसुरी न फंसेंगे जीव सब । इन्हीं क्रिया-प्रक्रियाओं का शोध करने में लगे हुये योगी, यति, ऋषि, महर्षि, प्राफेट, पैगम्बर तथा सन्त-महात्मा आदि योग-साधना या अध्यात्म की खोज या शोध किये और कर रहे हैं जो मुख्यतः छः अंगों से युक्त था । वह है आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि । यह छः भी एक साथ ही शोध में नहीं आये बल्कि शोध-कर्ता रूप शंकरजी, सप्तर्षि-मण्डल तथा अन्य ऋषि-महर्षिगण महानुभावों ने सर्वप्रथम आसन के माध्यम से कर्म से विरत यानी कर्म से बचना चाहे, परन्तु कर्म से पूर्णतः विरक्ति आसन आदि से नहीं हो पायी । क्योंकि आसन में बारी-बारी से पैर से लेकर सिर तक के आसन रूप शीर्षासन भी किये परन्तु इससे शोध रूपी लक्ष्य की यथार्थतः प्राप्ति नहीं हो सकती और न तो कर्मों से विरक्ति ही दिखलायी दी । तत्पश्चात् स्वास-निःस्वास शरीर में बाकी लग गया था तो स्वास-निःस्वास के माध्यम से अपने मूल-रूप की तलाश तथा कर्म-बन्धन से निवृत्ति का मार्ग ढूढ़ने लगे कि जो प्राणायाम कहलाया । अब वे शोधकत्र्ता बन्धुगण प्राणायाम की चारों क्रिया- प्रक्रियाओं रेचक-कुम्भक-पूरक-कुम्भक पुनः रेचक-कुम्भक-पूरक-कुम्भक का क्रम मात्र ही मिला जिसमें कुम्भक की दो आवृत्ति दिखलायी दी जो बाह्य-कुम्भक तथा आभ्यान्तर कुम्भक के नाम से अपने गुण के अनुसार या स्थिति के अनुसार जाना जाने लगा । इसी शोध में इला-पिला, सुषुम्ना आदि नाडि़यों का शोध हुआ । इतना ही नहीं शोध-कत्र्ताओं का शोध जारी रहा । प्राणायाम के पूर्व शोध का माध्यम विचार था परन्तु प्राणायाम से शोध का माध्यम अब साधना हो गया । चूँकि विचार की गति-विधि जीव-स्तर तक ही होता है इसलिये विचार न तो अभीष्ट रूप अपने मूल-रूप को ही जना पाया और न ही कर्म-बन्धन से छुटकारा या मुक्ति ही दिला पाया परन्तु विचार इतना अवश्य किया कि अपने जीव-स्तर से आगे की जानकारी करने का रास्ता या मार्ग रूप स्वास-निःस्वास को जना दिया कि अब इसके आगे स्वास-निःस्वास से जानकारी हासिल या उपलब्ध करें क्योंकि मेरा कार्यक्षेत्र यहीं तब था, तब जीव या विचार के निर्देशन से ही स्वास-निःस्वास के माध्यम से शोध जारी हुआ जो साधना कहलाया क्योंकि स्वास-निःस्वास रूपी प्राणायाम  के माध्यम से शोध करने में शरीर को शोधना पड़ा कि इसके अन्तर्गत प्राणायाम की गति-विधि क्या है तथा इसका संसार से सम्बन्ध क्या है ? इस प्रकार शरीर-शोधन प्राणायाम के माध्यम से प्रारम्भ हो गया जिससे स्वर-संचार या स्वरोदय का पता, सर्वप्रथम शंकर जी ने लगाया । अर्थात् स्वर-संचार क्रिया-प्रक्रिया की वास्तविक जानकारी या शोध सर्वप्रथम शंकर जी ने शोध किया, जो सांसारिकता सम्बन्धी अभीष्ट सिद्धि में सर्वाधिक सफलता प्रदान की जो सांसारिकता में कल्याणकारी सिद्ध हुआ । इसीलिये इसका नाम शिव-स्वरोदय कल्याणकारी स्वर- संचार पद्धति पड़ा । उस समय तक के शोध-विधानों में सर्वाधिक कल्याणकारी पद्धति पेश करने के कारण शंकर जी का नाम अग्रणी हो गया तथा उनका गुण विशेष के आधार पर शिव नाम भी पड़ गया जिससे शिव-शिव यानी कल्याण-कल्याण रूप घोषित हो   गये । तो शंकर जी शिव हो गये । परन्तु शोध-कार्य यहीं पर बन्द नहीं हुआ क्योंकि वास्तव में न तो यथार्थतः मूल-रूप का पता चल पाया और कर्म-बन्धन से मुक्ति का ही विधान मिल पाया । यह स्वर-संचार भी सांसारिक सिद्धि के लिये ही विशेषतः सिद्ध हुआ जो कर्म बन्धन से बजाय मुक्त करने के और ही उधर उन्मुख करने लगा । इसलिये शोध का कार्य पुनः एक मोड़ लिया और नया विधान यह आया कि जब तक अपने चित्त-वृत्ति को बाह्यवृत्ति से आभ्यान्तर वृत्ति में नहीं मोड़ा जायेगा तब तक कर्म-बन्धन से मुक्ति कदापि नहीं हो सकती है । अर्थात् अपने मूल-रूप की प्राप्ति तथा कर्म-बन्धन से निवृत्ति या मुक्ति हेतु अपने इन्द्रियों को बाह्य विषयाभिमुखी होने से रोककर आभ्यान्तर विषयाभिमुखी करना चाहिये तत्पश्चात् शोधकार्य में सफलता मिलेगा । इस प्रकार विषयादीन्द्रिय निग्रहःरूप प्रत्याहार से शोध कार्य प्रारम्भ हुआ । अर्थात् जब प्राणायाम के माध्यम से भी अभीष्ट लाभ रूप अपना मूल-रूप की यथार्थ जानकारी तथा कर्म-बन्धन से मुक्ति की उपलब्धि न हो सकने के कारण सभी शोध-कत्र्ता बन्धुगण अब विषयादीन्द्रिय निग्रहः रूप प्रत्याहार के माध्यम से ही शोधकार्य प्रारम्भ कर दिये । अब प्रत्याहार की सफलता हेतु पैर मोड़कर बैठना आसन का नाम दे दिया कि न पैर सीधा खड़ा होगा या रहेगा और न चलना होगा; हाथ जोड़ (बायें हथेली में दायें हथेली को रख) कर गोदी में रखना अथवा अंगुलियों से दोनों आँख, दोनों कान, नाक तथा मुख को बन्द करके सीना, गर्दन तथा सिर को सीधा करके बैठ जाने की क्रिया प्रारम्भ कर दिये ताकि इन्द्रियाँ अपना बाह्य कार्य न कर सकें जिसका परिणाम यह हुआ कि मन-बुद्धि तथा अहं रूपी जीव भीतर ही भीतर व्याकुल होने लगे क्योंकि तीनों को ही इन्द्रियों के माध्यम से ही कार्य करने हैं और इन्द्रियों के माध्यम से जीव को भोग-भोगना है तो व्याकुल क्यों न होवे । मन, बुद्धि तथा जीव की भीतर ही भीतर व्याकुलता तो बढ़ी, परन्तु कोई अन्दर आधार नहीं मिला ताकि उस पर आधारित होवे या टीके। एक तरफ इन्द्रियाँ बाह्य वृत्तियों से तो रूक जाती है परन्तु भीतर की व्याकुलता कैसे शान्त होवे, अब यह एक नयी समस्या सामने आकर खड़ी हो गयी । भीतर जीव की व्याकुलता की सीमा न रही क्योंकि जीव के दोनों प्रतिनिधि मन और बुद्धि दोनों की अकल समाप्त हो गयी, तब जीव (अहं) निराधार हो जाता है । कोई ऐसा आधार नहीं दिखलायी देता है कि वह उसे धारण करके टीका रहे । अब अहं रूप जीव शरीर से बाहर निकलने को तैयार हो गया । इधर शोध-कत्र्ता बन्धु यह सोच- विचार करे कि अहंरूप जीव बाहर न निकल जाय, इसके लिये नीचे मूल-बन्ध तथा ऊपर जालन्ध-बन्ध की क्रिया प्रारम्भ कर देते हैं जिससे जीव न तो नीचे से और न ऊपर से ही यानी किसी भी तरफ से न निकल पाने के कारण और व्याकुल होने लगा । इतने पर शोध-कत्र्ता रूप शोधक जीवन में साधक नाम से जाना एवं कहा जाने लगा । इसप्रकार जब साधक की परेशानी जब विशेष बढ़ जाती है तब वह साधना बारी-बारी इन्द्रियों को खुला छोड़ने लगता है कि किसकी सर्वाधिक आवश्यकता जीव रूप अहं या अहं रूप जीव को है इस प्रकार बारी-बारी एक-एक को छोड़-छोड़कर शोध-कार्य प्रारम्भ हुआ । जैसे पहले कान को छोड़ दिया गया और पहले की तरह शेष सभी को बन्द रखा गया, तो हो गया कि कान के बन्द रखने या खुला रखने से जीव पर कोई असर नहीं पड़ता है । जीव की व्याकुलता वैसे ही बरकरार रहती है जैसे थी । पुनः कान सहित सबको बन्द करके आँख को खुला रखा गया, इसका हाल या स्थिति भी वही है जो कान की इस प्रकार बारी-बारी प्रत्येक को देखा गया कि किसके बगैर जीव को व्याकुलता नहीं हो रही है तथा किसके खुला रहने से जीव की व्याकुलता समाप्त तो समाप्त है कम भी नहीं हो रही है । मात्र एक नासिका यानी स्वास-निःस्वास ही ऐसा है जिसका सीधा प्रभाव या सम्बन्ध जीव पर या जीव से है जिसके बगैर व्याकुलता बढ़ जा रही है तो जिससे व्याकुलता बिल्कुल ही समाप्त हो जाती है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि जीव रूप अहं का सीधा सम्बन्ध स्वास-निःस्वास या प्रस्वास से ही है क्योंकि स्वास के बगैर जीव की व्याकुलता शरीर छोड़ देने तक हो जाती है तथा स्वास-प्रश्वास के कायम रहने से जीव की उस तरह की व्याकुलता समूल समाप्त हो जाती है जो प्रत्याहार से उत्पन्न होती है । इससे संकेत मिलता है कि स्वास-निःस्वास के सहारे या आधार पर या स्वास-प्रस्वास को धारण करके ही जीव रूप अहं कायम रहता है । इस प्रकार अब यह शोध होने लगा कि बात क्या है कि जीव स्वास-प्रस्वास को धारण करके ही कायम रहता है । इस प्रकार धारणा की आवश्यकता पड़ी, इसका शोध प्रारम्भ हो गया कि वास्तव में धारणा है क्या ? इसकी आवश्यकता क्यों ? बन्धुओं देखा गया कि प्रत्याहार से साधना विशेष तक तो कर्मों से निवृत्ति अथवा मुक्ति मिल जा रही है परन्तु अगले मूल-रूप की जानकारी तथा उपलब्धि नहीं हो पाया जिससे मुख्य समस्या जस की तस बनी रही । प्रत्याहार से साधना विशेष तक तो कर्म से निवृत्ति रहती है परन्तु साधना विशेष के पश्चात् कर्म की स्थिति भी तो जस की तस कायम रही । जब तक जीव को भीतर-बाहर कोई आधार नहीं मिलेगा जिसे पकड़कर या धारण कर कायम रहे तब तक न तो पूर्णतः कर्म से निवृत्ति ही मिल सकता और न इससे आगे शोध की प्रक्रिया ही बढ़ सकती है और न लक्ष्य की प्राप्ति या उपलब्धि हो सकता है ।  इसलिये साधक या शोध-कत्र्ता अब धारणा का शोध आरम्भ कर दिया । अब यह शोध होने लगा कि किसे धारण किया जाय, अर्थात् किसकी धारणा की जाय ताकि अपना मूल-रूप भी मिल जाय तथा कर्म-बन्धन से निवृत्ति भी हो जाय । इस प्रकार स्वास-प्रस्वास में पुनः शोध की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई कि जीव किसको धारण करके कायम रहता है । पहले उसी का शोध किया जाय तत्पश्चात् अगला शोध होगा । इस प्रकार स्वास-प्रस्वास को देखा गया और शोध किया गया तो, सीधे तो नहीं परन्तु साधनानुभूति में अनुभूति की गई कि स्वास जब अन्दर प्रवेश करता है तो स्वास के साथ सःशब्द रूपी ध्वनि भी प्रवेश हो रही है तथा स्वास जब शरीर से बाहर निकलता है तब उसके साथ अहंशब्द रूपी ध्वनि बाहर निकलती है । यही क्रिया सः और अहं की बराबर हो रही है । यहाँ पर सः और अहं के साथ शब्द और ध्वनि दोनों का प्रयोग किया गया है तो यहाँ पर यह जानने की भी बात है कि अज्ञात् अवस्था में वह ध्वनि है परन्तु साधनानुभूति के माध्यम से ध्वनि पकड़ ली जाती है अथवा ध्वनि निश्चित रूप से स्पष्टतः जान ली जाती है तब वही ध्वनि सः और अहं तथा ह ँ्सो या सोऽहँ-ह ँ्सो शब्द-रूप में जाना गया ।  इस प्रकार सोऽहँ-  ह ँ्सो की धारणा स्वीकार कर ली गयी । सोऽहँ-ह ँ्सो की धारणा स्पष्ट तो हो गयी परन्तु एक नयी समस्या पुनः उठ खड़ी हुई कि आखिरकार यह सोऽहँ-ह ँ्सो है क्या ? उसे देखना भी चाहिये क्योंकि यह शरीर के लिये सर्वाधिक आवश्यक तो है ही । इसके बगैर शरीर जढ़ता को प्राप्त हो जायेगी । इसलिये इस अनिवार्य विषय-वस्तु की जानकारी स्पष्टतः करनी चाहिये । जानकारी स्पष्ट करने के लिये उसका दिखलायी देना अत्यावश्यक है । इसलिये अब सोऽहँ-ह ँ्सो को पहचान करने हेतु दिखलायी देने सम्बन्धी क्रिया-प्रक्रिया की बात अथवा शोध कार्य प्रारम्भ हो गया । शोध में प्रथम आवश्यकता यह महशूस किया गया कि सोऽहँ तो स्वास-प्रस्वास दोनों में पृथक्-पृथक् रूप में कैसे देखा जाय तो जहाँ पर दोनों आपस में मिलते हैं वहीं वास्तव में इसे देखा जा सकता है । इस प्रकार दोनों के मिलन का स्थल शोध किया गया तो मिला कि दो स्थानों पर दोनों का मिलन होता है । गुदा और लिंग-मूल दोनों के मध्य मूलाधार चक्र जो पहला चक्र कहलाता है । पहला मिलन तो यहाँ मूल में होता है और दूसरा मिलन भू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र में जो षष्टम यानी छठवाँ चक्र कहलाता है । इस प्रकार मूलाधार स्थित मूल तथा भू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र में दो स्थानों पर ह ँ्सो-सोऽहँ; सोऽहँ-ह ँ्सो का दर्शन होना निश्चित हुआ । अब यह बात या समस्या सामने आयी कि कैसे देखा जाय तो बार-बार शोध हेतु अभ्यास से यह विधि सामने आयी कि आँख बन्द करके आँख के तारा को ऊध्र्वमुखी करते हुये भू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र में स्थिर दृष्टि करके देखा जाय । यदि दृष्टि ऊध्र्वमुखी रूप में स्थिर न हो पाती हो तो थोड़ा सा अंगुलियों का नीचे से ऊपर की ओर दृष्टि-गोलक को करते हुये हल्का सा दबाव मात्र सहारा रूप में ताकि दृष्टि-बिन्दु आज्ञा-चक्र में सुषुम्ना द्वार में प्रवेश पा सके क्योंकि सुषुम्ना में प्रवेश पाये बगैर स्पष्ट दर्शन होना मुश्किल ही नहीं, अपितु असम्भव भी है । इसलिये सुषुम्ना में प्रवेश हेतु दृष्टि-बिन्दु का स्थिर होना बहुत जरूरी है । इस प्रकार स्थिर दृष्टि-बिन्दु से सुषुम्ना में प्रवेश कर के देखने से एक दिव्य-ज्योति या स्वयं-ज्योति दिखलायी दी जो सोऽहँ-ह ँ्सो की ज्योति ही थी। बहुत ही गौर या ध्यान करने पर वह ज्योति दिखलायी दी है इसलिये इस क्रिया का नाम ध्यान पड़ा । अर्थात् ध्यान-शोध की पद्धति यह रही है और चूँकि वह ज्योति शरीर के बाहर सामने सिर के समक्ष दिखलायी देती है परन्तु देखने वाला देखता है कि मैं भीतर रहकर ही देख रहा हूँ । पुनः देखते ही देखते अपने में से एक छोटी ज्योति उस वृहज्योति में विलय करती है तथा ध्यान टूटने यानी आँख खुलते समय पुनः वह ज्योति आकर शरीर में प्रवेश कर जा रही है इस प्रकार ध्यान-क्रिया पूरी हुई । परन्तु एक बात और देखी जाती है कि ध्यान के अन्दर वही बातें दिखलायी देती हैं जो दिन भर देखी जानी गयी है । जिसमें लगन रहता है वह बातें नहीं चाहने पर भी ध्यान में आकर दिखलायी देनी लगती है जो ध्यान मंे दोष माना जाता है । यह मात्र ध्यान का ही दोश हो ऐसी बात नहीं है सबसे बड़ा दोष यह प्रत्याहार का है कि बाह्य विषयों से इन्द्रियों को खींचकर आभ्यान्तरमुखी करना चाहिये । प्रत्याहार की शुद्धि से ध्यान का दोष ठीक हो जायेगा यानी ध्यान शुद्ध होने लगेगा । यही ध्यान का विधान रहा। अब ध्यान का प्रयोग सफल तो अवश्य हुआ परन्तु यह तय नहीं हो सका अर्थात् यह निश्चित नहीं हो पाया कि ध्यान किसका ? अर्थात् ध्यान का अन्त किसमें है क्योंकि स्थिरता नहीं आयी । जिसको जिसकी इच्छा हुई उसी की ध्यान साधना में वह लीन हो गया तथा उसी का साक्षात्कार कर मगन रहने लगा । यह हुई सम्प्रज्ञात समाधि । तब यह तय या निश्चित हुआ कि ध्यान में जो भी विषय-वस्तु या आकृति सामने आवे उसे इन्कार की जाय कि यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं । इस प्रकार करने से ध्यान अन्त एक ज्योति-बिन्दु या ज्योति-पूँज पर जाकर स्थिर हो समाधि कहलायी क्योंकि द्रष्टा और दृष्यमान् तथा दृष्टि तीनों ही सम हो जाती है यानी समता को धारण कर लेती है जिससे समाधि नाम पड़ा । ऐसा देखा गया कि बार-बार समाधि लगाने (ध्यान के माध्याम से) पर अन्तिम में बाहर भीतर की ज्योति एकीकृत होकर ऐसा एकत्व रूप धारण कर लेती है कि द्रष्टा-दृष्टि-दृष्यमान् रूपी त्रिपुटी एक रूप होकर मात्र भीतर-बाहर ज्योति ही ज्योति रह जाती है । शेष शरीर आदि की सारी क्रियायें यत्र-तत्र बन्द होकर स्थिर हो जा रही है यानी शरीर बिल्कुल जढ़वत् होकर जीव ज्योतिर्मय रूप में स्थित हो जाता है जहाँ द्वैत् का भान भी समाप्त हो जाता है । यह हुई असम्प्रज्ञात समाधि या निर्बीज समाधि या निर्विचार समाधि या निर्विक रूप समाथि आदि अनेक नाम या उपाधियों से जानी जाने लगी । इस प्रकार समाधि का शोध हुआ जिसमें अपार शान्ति और आनन्द की अनुभूति होती है जव अपने पूर्व रूप आत्मामय रूप या स्थिति में या अवस्था में पहुँच जाता है । जीव जो आनन्द से नीचे सुख में चला आया था वह भी सुख के स्थान पर नहीं चाहने के बावजूद भी बार-बार दुःख या कष्ट ही झेलना पड़ता है जो अब इन नाना विधानों से शोधित अपने पूर्व रूप आत्मा को पाकर दुःख-सुख तो दुःख-सुख है आनन्द से भी ऊपर उठकर चिदानन्द रूप या आत्मानन्द रूप या ब्रह्मानन्द रूप या दिव्यानन्द रूप मय होकर उसी में लीन रहने लगता है । फिर संसार एक मिथ्या, स्वप्न, मायावी जाल जैसा दिखलायी देने लगता है । यही जीव का पूर्वरूप आत्मामय स्थिति है परन्तु यही अन्तिम नहीं है । हाँ, योग या अध्यात्म तथा योगी या आध्यात्मिक की यही अन्तिम गति-विधि है।
सद्भावी तत्त्वाभिलाषी बन्धुओं ! जीव जो मात्र आनन्द  रूप या चिदानन्द रूप चेतन-आत्मा को पाकर अति आनन्दित, अति प्रसन्न होेतेे हुये शान्ति तो पायी वस्तु यही अन्त है यह बात पुष्ट नहीं हो पायी । अन्ततः एक और ही समस्या आकर सामने खड़ी हो गयी जो सभी को झकझोर डाली । वह समस्या क्या थी ? कि यह दिव्य ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या आत्म-ज्योति कहाँ से आ रही है, किसकी है, किससे उत्पन्न हुई है, आखिर इसका भी अन्त होगा तो वह कहाँ है, वह क्या है जिसमें इसका अन्त या विलय होगा आदि आदि प्रश्न सामने आये जो शरीर के अन्दर का नहीं, अब शरीर के बाहर सृष्टि के अन्दर की बातें हैं ।अब जो कुछ भी इस अध्याय में देखा गया है वह सब स्वराट की बात थी, शरीर के अन्दर तथा मात्र सम्बन्ध स्थापित होने भर तक बाहर की जानकारी मात्र थी परन्तु विराट रूप के नहीं । भ्रम एवं भूल वश योगी या आध्यात्मिक सन्त-महात्मन् बन्धुगण इसी स्वराट को ही विराट तथा इसी योग को ही तत्त्वज्ञान तथा इसी सोऽहँ-ह ँ्सो को ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् और इसी आत्मा को ही परमात्मा या इसी ब्रह्म को ही परमब्रह्म या इसी ईश्वर को ही परमेश्वर या इसी डिवाइन लाईट रूप सोल को ही गाॅड या इसी नूर को ही अल्लातआला या इसी ज्योति को ही सत्पुरुष तथा इसी अध्याय को ही तत्त्वम् तथा योगी-यति, ़ऋषि-महर्षि, प्राफेट, पैगम्बर तथा समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्मा इसी आध्यात्मिक शरीर को ही तात्त्विक शरीर तथा स्वयं गुरु को ही सद्गुरु और स्वयं सन्त-महात्मा वाली शरीर को ही अवतारी घोषित करने-कराने लगते हैं जो इनका भूल एवं भ्रम के साथ ही साथ मिथ्याज्ञानाभिमान भी है । जो नहीं होना चाहिये ।

तत्त्वाभिलाषी बन्धुओं ! इस प्रकार स्वराट और विराट का झंझट प्रारम्भ हो गया । कुछ भगवद् भाव से उत्प्रेरित महात्मन् बन्धु स्वराट को ही विराट मानने से इन्कार किया । वास्तव में स्वराट को ही विराट कहना योगी-साधक या आध्यात्मिकों के लिये मिथ्याज्ञानाभिमान की बात है । 

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