हम को - तत्त्वज्ञान से तथा हमार को-पूर्ण
समर्पण से समाप्त करें
सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! हम और हमार की
बात ही समस्त जंजाल की आधारभूत समस्या है । सृष्टि की समस्त गड़बडि़यों के मूल में
यह हम और हमार ही होता है । हम और हमार दोनों दो बातें हैं । हम से तात्पर्य ‘अहं’
रूप
जीव से है तथा हमार से तात्पर्य ‘अहं’ रूप जीव से है
तथा हमार से तात्पर्य अहं रूप जीव को मिले हुये मन-बुद्धि-चित्त तथा समस्त
इन्द्रियों से युक्त शरीर भी तथा शरीर से सम्बन्धित शरीर विशेष के अपनत्व रूप के
अधीन रहने वाली समस्त वस्तुयें भी समाहित रहती हैं। इस प्रकार हम ओर हमार नाम दो
उपाधियों हम धागा है तो हमार उसमें की मणि है इस प्रकार मणि (दाना) से युक्त धागा
एक माला के यप में गोल सृष्टि-चक्र में कायम रहता है । इसमें हम तो सूक्ष्म रूप
में धागे की तरह मणि (दाना) रूपी समस्त योनियों में एक ही समान तथा एक ही भीतर
छिपा रहता है और हमार दानों की तरह अनेकानेक दिखलायी देता है । वास्तव में जब तक
हम और हमार का यथार्थतः रहस्य समझते हुये जान, देख और पहचान
नहीं लिया जायेगा तब तक इस महामाया के अविद्या रूपी या अज्ञान जनित सृष्टि से
सृष्टि-चक्र के अनुसार ही चक्कर काटते रहना पड़ेगा तीन तरफ से तीनों पाश (बन्धन)
काल-पाश, कर्म-पाश तथा मोह-पाश ही अपने-अपने विधानों से ऐसे जकड़े रहते हैं कि
और इतनी मजबूती से जकड़े या बांधे रहते हैं कि उनसे निकल पाना या उन्हंे तोड़ देना
आसान नहीं होता है क्योंकि यह आदि-शक्ति रूपा महामाया का पाश होता है जो अति
दुस्तर होता है । ‘हम’ पर प्रभु की जब असीम कृपा होती है और
जब परमप्रभु खुद भू-मण्डल पर अवतरित होकर इस ‘हम और हमार’
के
वास्तविक या यथार्थतः या तात्त्विक रहस्यों को जनाते हैं तब यह ‘हम
और हमार’ वाली समस्या का समाधान होता है । अन्यथा ‘हम’ या ‘मैं’
आत्मा
वाले आध्यात्मिकों तथा ‘हमार’ या ‘मेरा’ शरीर
और सम्पत्ति, व्यक्ति और वस्तु या परिवार और संसार वाले
वैज्ञानिकों का आपसी वैचारिक संघर्ष कि-- आध्यात्मिकों द्वारा-- ‘हम’
या ‘मैं’
आत्मा
ही सत्य है शेष सब ‘हमार’ मिथ्या है, झूठ है, असत्य
है, -- वैज्ञानिकों द्वारा --- ‘हमार’ शरीर और
सम्पत्ति या व्यक्ति वस्तु रूप परिवार और संसार ही ‘सत्य’ है,
‘हम’
या ‘मैं’
एक
अहंकार है, एक मिथ्याभिमान है, एक चकमा है ।
दोनों ही एक-दूसरे को आडम्बरी, पाखण्डी, मिथ्याभिमानी,
फंस-फंसाने
वाले कहते हैं तथा इसी अपनी बात पर स्थिर रहते हैं । यही हाल यानी
स्थिति-परिस्थिति आज भी है । आध्यात्मिक कहते हैं कि ‘हम’ या ‘मैं’
आत्मा
ही सत्य शेष सब मायाजाल है । ऐ बन्धुओं ! मेरे तरफ आओ, इतना ही से
कार्य नहीं चल पाता है तब वे नाना तरह के
आध्यात्मिक चमत्कारों को दिखला-दिखला कर के अपनी मर्यादा और गरिमा को कायम रखते
जन-मानस का आह्वान करते हैं दूसरे तरफ विज्ञान भौतिक या स्थूल होने के कारण
स्पष्टतः अपने चमत्कारों से युक्त दिखलायी ही देता है। इस प्रकार वैज्ञानिकों और
आध्यात्मिकों का झगड़ा बराबर से चला आ रहा है तथा आज भी दोनों अपने-अपने सिद्धान्त
को लेकर स्थिर रहते हैं और आज भी स्थिर हैं । इसी बीच एक समन्वयवादी जो विज्ञान और
अध्यात्म के मध्य होते हैं दोनों के मध्य एक मिश्रित सिद्धान्त प्रतिपादित कर देते
हैं और घोषणा कर देते हैं कि ‘हम’ और ‘हमार’
दोनों
एक ही है । दोनों की मूलतः स्थिति एक ही है या ब्रह्म या आत्मा भी सत्य और जगत भी
सत्य है । दोनों दो है ही नहीं अर्थात्
दोनों एक ही है । आपस का संघर्ष व्यर्थ है अध्यात्म वाला आत्मा भी नाम और रूप यानी
शब्द और ज्योति है विज्ञान वाला-वस्तु या पदार्थ भी ध्वनि और प्रकाश (ैवनदक ंदक
स्पहीज) है । इसलिये जब आत्मा और पदार्थ दोनों शब्द और ज्योति तथा ध्वनि और प्रकाश
ही है तो दोनों एक ही तो हुआ । इस प्रकार अपना विज्ञान और अध्यात्म मिश्रित
सिद्धान्त को समाज में जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करते हैं जिससे यह तीसरा
सिद्धान्त भी प्रतिपादित और स्थापित हुआ ।
चूँकि विज्ञान जड़-पदार्थ का प्रयौगिक विशिष्ट
ज्ञान होता है जो द्वैत् और पृथक्करण से उत्पन्न तथा द्वैत् और पृथक्करण में ही
कायम रहता है तथा द्वैत् और पृथक्करण में ही अन्त होता है,; परन्तु सब कुछ
वही है यह कहता है जो द्वैत् में अद्वैत् की स्वीकारोक्ति और मान्यता हुई । ठीक
इसी प्रकार अध्यात्म-चेतन-तत्त्व का प्रायौगिक विशिष्ट ज्ञान होता है जो अद्वैत्
और एकीकरण से उत्पन्न तथा अद्वैत् और एकीकरण में कायम रहता है तथा अद्वैत् और एकीकरण
में ही अन्त होता है; परन्तु यह भी सब कुछ वही है यह कहता है जबकि ‘हमार’
रूप
संसार को मिथ्या, फंसने-फंसाने वाला तथा उससे पूर्णतः विलग रहने
का प्रभावी रूप में जो माना गया है का भी उपदेश देता है, भेद करता है,
ब्रह्म
या आत्मा को सत्य मानकर जगत् को मिथ्या साबित करने की कोशिश करते हुये भेद दृष्टि
तथा घृणा दृष्टि उत्पन्न करता है जो अद्वैत् में द्वैत् की स्वीकारोक्ति और
मान्यता हुई । मिश्रित सिद्धान्त प्रतिपादित करने वाले बन्धुओं ने दोनों विज्ञान
और अध्यात्म को एकीकृत करने की कोशिश या प्रयत्न तो बहुत ही किये हैं, परन्तु
वास्तविकता यह रही कि ये बन्धुगण विज्ञान और अध्यात्म दोनों से ऊपर रहकर या होकर
कोई बात नहीं किया है बल्कि इन्हीं दोनों के मध्य में ही बैठकर इनकी सारी बातें और
विचार हुई है या दी गयी है या प्रतिपादित किये गये हैं । इन दोनों से पृथक् दोनों
को मूलतः एक ही दर्शाते हुये कोई सिद्धान्त नहीं दिया गया । ये कभी जड़-पदार्थ के
तरफ देखते हैं तो जड़-पदार्थ का गुण गाने लगते और उसी की महत्ता को सब कुछ सिद्ध
करने लगते हैं तो कभी चेतन-तत्त्व के तरफ देखते हैं तो चेतन-तत्त्व का ही गुण गाने
लगते और इसी की महत्ता को सब कुछ सिद्ध करने लगते हैं । इनका अपना पृथक् रूप में
ऐसा कोई मूल-भूत सिद्धान्त नहीं होता है जिससे दोनों के आदि और अन्त को दर्शाते
हुये ‘एक ही’ से उत्पन्न तथा ‘एक ही’ से
संचालित तथा अन्त में ‘एक ही’ में विलय रूप बिना किसी साधना (योग या
आध्यात्मिक क्रियाओं) के ही जनाते, दर्शाते, समझाते, अनुभूति
कराते और बोध कराते हुये विज्ञान तथा अध्यात्म आदि सृष्टि की समस्त यानी अशेष
जानकारी या ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित करे जिसमें से मूलतः ही सभी उत्पन्न तथा
संचालित तथा विलय रूप दर्शाते हुये प्रतिपादित कर सके । वास्तविकता तो यह है कि
विज्ञान जड़-पदार्थ मात्र का तथा अध्यात्म चेतन-तत्त्व मात्र का एक प्रायौगिक
विज्ञान या क्रियात्मक और रचनात्मक पृथक्-पृथक् रूप में आंशिक जानकारी और अनुभूति
मात्र ही होता है परन्तु मिथ्याभिमानवश दोनों ही अपने को सत्य और दूसरे को असत्य
या मिथ्या कहते हुये वैज्ञानिक विज्ञान को ही सब कुछ तथा अध्यात्म को मिथ्या,
भ्रामक
और फंसने-फंसाने वाला तथा आध्यात्मिक अध्यात्म को ही सब कुछ तथा विज्ञान को मिथ्या
भ्रामक और फंसने-फंसाने वाला कह रहे हैं और असलियत तो यह है कि दोनों ही दोनों से
युक्त दिखलायी दे रहे हैं तथा नाजानकारी और नासमझदारी वश ‘हम और हमार’
रूप
चेतन और जड़ दोनों से युक्त होते और रहते हुये भी दोनों एक-दूसरे की निन्दा करते
हुये मात्र वाणी से एक-दूसरे से घृणा तथा एक-दूसरे से दूर रहने का उपदेश देने लगते
हैं जिससे बहु संख्यक मानव भ्रमित होकर न इधर का हो पाता है और न उधर; क्योंकि
जो विज्ञान के तरफ गया और देखा वह विज्ञान
का गुण गाने लगा तथा अपनी मर्यादा और गरिमा को कायम या प्रभावी रूप में स्थापित
करने हेतु अध्यात्म के दोषों और एक-आध असफल आध्यात्मिकों का उदाहरण देते और उसके
आन्तरिक पहलुओं को जाने और देखे तो वे अध्यात्म का गुण गाने लगे तथा अपनी मर्यादा
और प्रतिष्ठा को कायम या प्रभावी रूप में स्थापित करने हेतु विज्ञान के दोषों को
और असफल हुये वैज्ञानिक प्रयोगों का उदाहरण देते हुये निन्दा करने लगते हैं जिससे
वास्तव में अधिकाधिक संख्या में लोग भ्रमित हो जाते हैं जो दोनों का ही लाभ लेने
से छूट जाते हैं और अपने उचित स्थानों से भी तथा अपने मूलतः रूप को भी भूल जाते
हैं जिसका परिणाम होता है कि वे इतना भटक जाते हैं, इतना भटक जाते
हैं कि सत्य भी उनको असत्य जैसा ही भासने लगते हैं जिससे अपने समस्त शक्ति-सत्ता
सामथ्र्य रूपों में रहने के बावजूद भी लोग उसे भी मिथ्या या असत्य एवं
फंसने-फंसाने वाला करार देते हुये विरोध तो विरोध है संघर्ष और युद्ध तक पर उतारु
होकर करने लगते हैं सामान्य जनमानस तो सामान्य जनमानस, शासन-प्रशासन
तन्त्र भी पीछे-पीछे उन्हीं असत्य, मिथ्याभाषी, मिथ्याचारी रूप
अत्याचारियों और भ्रष्टाचारियों का ही साथ देकर सत्य-धर्म वाले सत्पुरुषों को नाना
विधि-विधानों से कष्ट-यातना देने लगते हैं हालांकि देखते हैें कि आदि काल से ही
सत्य-धर्म वाले सत्पुरुषों की ही विजय हुई है मिथ्याभाषी एवं मिथ्याचारी
अत्याचारियों और भ्रष्टाचारियों की नहीं । इतना ही नहीं सबसे आश्चर्य की बात तो यह
देखी जाती है कि ‘सत्य-धर्म’ वाले सत्पुरुषों
को नाना विधि-विधिानों से कष्ट और यातना देने के बावजूद भी वह सत्पुरुष परमप्रभु
की विशेष कृपा का पात्र होकर हँसते और सच्चिदानन्द रूप शाश्वत-शान्ति और शाश्वत
आनन्द रूप परमानन्द से युक्त ही दिखलायी देते हैं तथा समस्त सुख-ऐश्वर्य साधनों से
युक्त रहने के बावजूद भी मिथ्याभाषी एवं मिथ्याचारी रूप अत्याचारी और भ्रष्टाचारी
(घुसखोर) सदा ही कष्ट, दुःख एवं शोक संतप्त रहते हैं । उन्हें कहीं भी,
किसी
भी साधन से न तो शान्ति मिल पाती है और न आनन्द ही । शान्ति और आनन्द तो दूर रहा
सुख और चैन की नींद भी उन्हें दुर्लभ हो जाती है वास्तविकता की अनुभूति भी पाठक
(पढ़ने वाले) बन्धुओं को करना चाहिये । वास्तव में अंत में समस्त मानव बन्धुओं से
यही कहेंगे कि मिथ्यावादिता एवं मिथ्याचारिता को छोड़कर एवं सत्य-धर्म की
वास्तविकता या यथार्थता को हर तरह से जान, देख, समझ, बूझ
के साथ पहचान कर सत्यवादिता एवं सदाचारिता का दोष-रहित या ‘निर्दोष
जीवन-पद्धति’ के संकल्प को लेकर उसी पर अपने सर्वस्व ‘हम
और हमार’ को ईमान के साथ बिना किसी सोच फिकर के ही लगा देवें । इसी में मानव
का अन्तिम सुधार और अन्तिम उद्धार छिपा हुआ है उसको अच्छी प्रकार से हासिल या
प्राप्त करें ।
सद्भावी मानव बन्धुओं ! वास्तव में वैज्ञानिक
और आध्यात्मिक दोनों ही दोनों से युक्त हैं परन्तु वैज्ञानिक जीव $ आत्मा
के शोध के बजाय शरीर और सम्पत्ति या पदार्थ जो जड़ मात्र ही है के शोध में लगा है
और अन्त में जाकर ध्वनि और प्रकाश पर लटक गया है तथा आध्यात्मिक शरीर और संसार की
यथार्थ का शोध करने के बजाय जीव $ आत्मा रूप जो मात्र चेतन ही है के शोध
में लगा है अन्त में सोऽहँ-ह ँ्सो-शब्द व दिव्य-ज्योति या आत्म-ज्योति रूप ज्योति
यानी शब्द और ज्योति यानी नाम और रूप पर आकर लटक गये हैं । इस प्रकार आध्यात्मिक ‘हम’
या ‘मैं’
-- शब्द-ज्योति
या नाम-रूप तथा वैज्ञानिक ‘हमार’ या ‘मेरा’
-- शरीर
और जड़ संसार या ध्वनि और प्रकाश मात्र में ही लटकर कर स्थिर हो गये हैं तथा इसी
को सत्ता-शक्ति सवीकार करने-कराने, जानने-जनाने में लगे हुये हैं जबकि ‘हम’
या ‘मैं’
रूप
चेतन तथा ‘हमार’ या ‘मेरा’ रूप जड़-जगत् या
संसार में से आदि और अन्त के साथ दोनों में किसी को भी जानकारी तो है नहीं,
जानते
तो हैं नहीं । दोनों ही दोनों के मात्र क्रिया-प्रक्रिया जो मध्य है को ही जानते
हैं ।
सद्भावी मानव बन्धुओं ! वैज्ञानिक कहते हैं कि
पदार्थ का नाश नहीं होता है तथा इसको सिद्ध करने में लगे हैं तथा आध्यात्मिकों का
कहना है कि जड़-जगत यानी ‘हमार’ विनाशशील तथा हम
अविनाशी है । यानी ‘हम’ चेतन ही अविनाशी है तथा ‘हमार’
शरीर
आदि संसार तो विनाशशील है और ये बन्धुगण इसे सिद्ध करने में लगे हैं ।
परन्तु दोनों के द्वारा रखे गये सिद्ध-प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि दोनों
ही वास्तविकता या यथार्थता या सत्यता से परे है यानी दोनों द्वारा ही सिद्ध-प्रमाण
असंगत, अधूरा और मिथ्याभास मात्र है । सत्यता दोनों में से किसी में भी
पूर्णता के रूप में या पूर्णता के साथ या वास्तविक रूप में किसी में भी नहीं है
दोनों ही विनाश और विनाशशीलता तथा अविनाशी और अमरता के सिद्धान्त से अनभिज्ञ है
परन्तु अपनी मर्यादा और गरिमा तथा मर्यादा और प्रतिष्ठा को बनाये रखने के कारण ही
दोनों ही मिथ्या-मिथ्या सिद्धान्त और सिद्ध-प्रमाणों के रूप में मिथ्या उदाहरण पेश
कर करके जनमानस को सत्यता से या यथार्थता से या वास्तविकता से इतना दूर फेंक दिये
हैं । जनमानस की मति-गति को इतना भ्रमित करा या भटका दिये हैं कि आज हमको परमप्रभु
के वास्तविक सत्यता या यथार्थता या वास्तविकता रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप
शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या यहोवा या गाॅड या अल्लातआला
या सत्सिरी अकाल या सत्पुरुष का ही तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान की पद्धति से हर तरह
से जनाने, दर्शाने तथा अनुभूति और बोध कराने पर भ्रमित रहते हैं । विभिन्न
रूपों में कार्य करने के बावजूद भी जानकारी उस कार्य करने वाले को रहे, यह
है उसका एक से दूसरे रूप में परिवर्तन । परन्तु वही व्यक्ति मरकर या शरीर से जीव
के निकल जाने पर शरीर जल में या मिट्टी में या अग्नि में दाह-प्रदाह करके समाप्त
कर दिया जाता है तो वह उसका विनाश है । अर्थात् विभिन्न रूपों में कार्य करते हुये
कार्य करने वाले को अपने मूलतः रूप और परिवर्तित रूपों की जानकारी रहे यह
क्रिया-प्रक्रिया तो परिवर्तन होगा परन्तु नाम-रूप दोनों साथ ही सदा-सदा के लिये
अस्तित्त्वहीन हो जाय या समाप्त हो जाय तो यह उसका विनाश होगा । इसको ऐसे समझें कि
चेतन जीव $ आत्मा तो परिवर्तित होता है यानी आत्मा जो
परमात्मा से पृथक् हो जाने पर या दूर हो जाने पर तथा शरीरों या आकृतियों के
सम्पर्क में आने पर जीव रूप में होकर शरीर के माध्यम से संसार में कर्म करता तथा
भोग-भोगता हुआ विभिन्न रूपों में विचरण करता हुआ सृष्टि-चक्र में चक्कर काटता रहता
है यह हुआ आत्मा से जीव रूप में परिवर्तन जो पुनः किसी आत्मा वाले आध्यात्मिक
महापुरुष के सम्पर्क मिल जाने पर जीव वाला विचारक एवं सांसारिक मानव अपने जीव को
आत्मा से सम्पर्क कराकर या सम्बन्ध स्थपित कर-कराकर वह मानव शरीर भी आत्मा वाला बन
जाता है तब उसे यह जानकारी और समझदारी हो जाती है कि आत्मा अविनाशी है । आत्मा न
पैदा होती है और न मरती है बल्कि आत्मा ही जीव रूप में परिवर्तित होकर विभिन्न
योनियों में भ्रमण करती रहती है । इस प्रकार विभिन्न योनियों में भ्रमण के बावजूद
भी वह आत्मा से जीव रूप में दोनों सदा ही आत्मा-जीव तथा जीवात्मा रूप में
क्रियाशील रहती है जो कभी विनष्ट नहीं होती परन्तु परमात्मा से मिलने तक सृष्टि
में चक्कर काटती या भटकती रहती है उसका नाना योनियों में भटकाव ही यह विभिन्न
रूपों में जीवधारी क्रियाशील दिखलायी दे रहे हैं । अतः इससे स्पष्ट होता है कि
चेतन-आत्मा जीव रूप में परिवर्तित होकर संसार में क्रियाशील रहती है, विभिन्न
रूपों से कार्य करती रहती है फिर भी नष्ट नहीं होती यानी आत्मा का विनाश नहीं होता
बल्कि रूप परिवर्तन होता रहता है । अर्थात् आत्मा-जीव तथा जीवात्मा सदा ही अपने एक
ही नाम-रूप में कार्य करेगी आत्मा, सदा ही परमात्मा के मिलन के पूर्व तक
आत्म ही रहेगी विभिन्न शरीरों या आकृतियों से आत्मा विभिन्न शरीरों और आकृतियों
वाला नहीं हो जाती, आत्मा, आत्मा नाम-रूप में ही रहती है, रह
रही है और रहेगी भी जब तक कि उसका उद्गम और विलय रूप परमात्मा मिल नहीं जाता । रूप
परिवर्तित जीव का शरीरों या आकृति के सम्पर्क से शरीरों या आकृतियों रूप में
परिवर्तित हो-होकर कर्म करता और भोग-भोगता रहता है जिसमें कर्म और भोग दोनों एक
साथ तो मानव शरीर मात्र के साथ होता और मिलता है अन्य योनियों में तो मात्र भोग
भोगता रहता है । मानव योनि ही एक ऐसी ही विचित्र योनि है जिसमें कर्म और भोग दोनों
ही इच्छानुसार करने और भोगने को मिलता है शेष तो भोग मात्र ही है । अन्ततः यह तय
हुआ कि चेतन-आत्मा कभी विनष्ट नहीं होती, अविनाशी है । विनष्ट तो शरीर हुआ करती
है जो जड़ है । जब शरीर को जीव, आत्मा और अवतारी है तो परमात्मा भी
छोड़ कर शरीर से निकलकर बाहर अपने गन्तव्य स्थान को चले जाते हैं तब शरीर तो सब ही
विनष्ट कर दी जाती है परन्तु उसी में आत्मा और परमात्मा वाली शरीर पुनः अपने नाम
और रूप दोनों अपने साथ ही अनेकानेक स्थानों पर पुनः सदा-सदा के लिये तो अपने-अपने
नाम-गुण-यश-प्रतिष्ठा, मान, मर्यादा तथा पूजनीय के रूप-रूप में
चारो तरफ प्रतिष्ठित होने लगते हैं यानी उस शरीर-विशेष वाला नाम-रूप विनष्ट नहीं
होता है अपितु अनेकानेक स्थलों पर अपने नाम-रूप में प्रतिष्ठित जो जाते हैं यही
कारण है कि आत्मा अविनाशी तथा परमात्मा अमर, शाश्वत्
सच्चिदानन्द रूप कहलाते रहते हैं और रहेंगे । एक विशेष ग्रहणीय बात यह भी जानने
योग्य है कि आत्म-सत्ता और ज्योति रूपा शक्ति में आत्म-ज्योति नाम-रूप एवं शब्द से
युक्त रहते हुये दोनों ही (आत्मा-शक्ति) द्वैत् रूप है दोनों की ही जानकारी की
जायेगी तो नाम और रूप--- सोऽहँ-ह ँ्सो- शब्द या नाम तथा दिव्य-ज्योति-- आत्मा का
रूप हुआ ठीक उसी प्रकार ध्वनि और प्रकाश शक्ति का रूप हुआ । चेतन-आत्मा भी नाम-रूप
द्वैत् रूप है तथा शक्ति जिससे जड़-पदार्थ हुये भी ध्वनि और प्रकाश रूप द्वैत् है
परन्तु परमतत्त्वम्रूप ‘आत्मतत्त्वम्’ शब्द-ब्रह्म या
परमब्रह्म या परमात्मा या यहोवा या गाॅड या अलम् सदा-सर्वदा ही नाम-रूप द्वैत्
रहित यानी ‘आत्मतत्त्वम्’ ही नाम भी तथा
रूप भी या न नाम और न रूप ही दोनों से ही पृथक् एवं विचित्र आश्चर्य ही नहीं अपितु
परम आश्चर्यमय बात कि स्वयं नाम-रूप से
रहित परन्तु समस्त नाम-रूप ही नाम-रूप वाला ही जिससे उत्पन्न होते हैं वही है --- ‘आत्मतत्त्वम्’
रूप
‘अद्वैत्तत्त्वम्’ । समस्त जड़-चेतन तथा जड़-जगतका उद्गम
रूप आत्मा और शक्ति रूप आत्म-शक्ति रूप आत्म-ज्योति रूप ‘आत्म’ जिससे
उत्पन्न तथा सृष्टि के अन्त में स्वतः तथा सृष्टिक्रम में तत्त्वज्ञान पद्धति या
सत्यज्ञान पद्धति या परमविद्या या विद्यापद्धति से ही जिसमें विलय होता है वह
है ‘आत्मतत्त्वम्’
रूप
अद्वैत्तत्त्वम् । यह आत्मा नहीं, अपितु परमात्मा है; ईश्वर
नहीं, अपितु परमेश्वर है; ब्रह्म नहीं, अपितु परमब्रह्म
है; आत्मा या सोल नहीं, अपितु
गाॅड है, नूर या चाँदना नहीं, अपितु अलम् या अल्लातआला है, यह
ह ँ्सो व ज्योति नहीं, अपितु परमतत्त्वम् है; यही परमब्रह्म
है; यह चिदानन्द या ब्रह्मानन्द या दिव्यानन्द या चेतनानन्द आदि नहीं अपितु
शाश्वत् शान्ति और शाश्वत् आनन्द रूप सदा ही सच्चिदानन्द रूप परमानन्द जिसको
गरुण-पुराण में श्रीविष्णु जी ने सदानन्द कहा है तथा श्रीमद् भागवत् महापुराण में
भी सदानन्द कहा गया है, आद्यशंकराचार्य ने भी सर्वत्र सदानन्द ही शब्द
का प्रयोग किया है । रामकृष्ण परमहंस ने भी सदानन्द का ही एकबार एक झलक पाया था जो
उनकी पुस्तक में स्पष्ट लिखित है । यहाँ पर सदानन्द लिखने का भाव मात्र सदानन्द
शरीर से नहीं अपितु उस एकीकरण के आधार पर सदानन्द यहाँ पर लिखा गया है कि इस बार
एकीकृत नाम प्रयुक्त है । यहाँ पर सदानन्द उस परमात्मा के विषय में लिखा जा रहा है
जो सदानन्द शरीर के माध्यम से वर्तमान में आया है ।
यस्य
भासा विभातीदं सर्वं सद्सदात्मकम् ।
सर्वाधारं
सदानन्दं परमात्मां तं हरिं भजेः ।।
जड़-पदार्थ विनाशशील होता है । इसीलिये जीवधारी
मानव बन्धुओं से हमें बार-बार अनेकों बार पुनरावृत्ति दोष के स्थान पर सदाभ्यास
रूप गुण मानते हुये कह रहा हूँ कि जीव जो चेतन का प्रतिनिधित्व करता है इसे चेतन
आत्मा तथा इससे भी ऊपर यदि अवतार की घड़ी-बेला हो तो परमात्मा से मिलाकर सदा-सदा
के लिये परमात्मा में विलय होकर परमात्मामय जीवन व्यतीत करना चाहिये तथा जिन्दे ही
जिन्दे मुक्ति और अमरता का बोध करते हुये शरीर छोड़ने पर भी परमात्मामय ही होकर
दिव्य आकाश रूप परमधाम का वासी बनना चाहिये । परन्तु कहीं यदि अवतार की घड़ी-बेला
न हो तब तो आध्यात्मिक महापुरुषों के द्वारा आत्मामय ही होकर रहना चाहिये ताकि
जड़-पदार्थों के साथ विनष्ट न होना पड़े या विनाश के मुख में न जाना पड़े ।
जड़-पदार्थ गतिशील होने पर भी चेतन एवं विचार
युक्त नहीं होता है । जड़-पदार्थ, चेतनता एवं विचारहीन वस्तु मात्र होता
है जसका किसी चेतन-जीवधारी के बगैर कोई महत्व ही नहीं होता है साथ जीवधारी जिस तरह
से चाहता है उसी रूप में ढालकर अपने अनुसार बना-बना कर लाभ लेता रहता है ।
जड़-पदार्थ चेतन जीवधारी का साधन मात्र होता है साध्य नहीं । जबकि जड़-पदार्थ का
साध्य चेतन आत्मा तथा जीवधारी भी होता है । कोई जड़ वस्तु एकरूप से दूसरे रूप में
परिवर्तित होते ही नाम-रूप दोनों से ही सदा के लिये यदि अस्तित्त्व हीन या समाप्त
हो जाती है तो यही उस नाम-रूप का विनाश है । इस प्रकार जड़-पदार्थ मात्र
परिवर्तनशील ही नहीं अपितु विनाशशील भी है ।
सद्भावी मानव बन्धुओं ! पुनः यह बताना चाहूँगा
कि ‘हम’ को ‘हमार’ के पीछे-पीछे न
नचावें, बल्कि हमार को ही ‘हम’ के पीछे ले चलने
की कोशिश और प्रयत्न करें यही परमप्रभु का विधान है, परन्तु जब ‘हम’
को ‘हमार’
रूप
शरीर और सम्पत्ति या व्यक्ति और वस्तु या कामिनी और कांचनमय न बनावें । बल्कि ‘हम’
को ‘आत्मा’
से
पुनः तत्पश्चात् परमात्मा से मिलाकर ‘हमार’ को भी अपने
पीछे-पीछे आत्मा या परमात्मा के पास उसका उसको अर्पित करते हुये ‘हम’
को
आत्मामय यदि परमात्मा का अवतरण और विचरण भू-मण्डल पर न हो तब, परन्तु
परमप्रभु रूप परमात्मा का ही साक्षात् अवतार वाली शरीर यदि भू-मण्डल पर विचरण कर
रही है तो उसके साथ ही तत्त्वज्ञान पद्धति या सत्यज्ञान पद्धति से ‘हम’
को
उसी ‘आत्मतत्त्वम्’ शरीरी परमात्मा को या देहधारी में विलय
रूप बोध करते हुये हमार को भी उसी के ‘सत्य-धर्म’ के संस्थापना
में पूर्णरूपेण शैतानों के भटकाव से दूर रहते विलय करके अनन्य प्रेम एवं अनन्य
सेवा-भक्ति भाव से परमात्मा के अनुसार ही परमात्मामय ‘दोष रहित’
या ‘निर्दोष
जीवन पद्धति’ यानी परमात्मा के आज्ञानुसार सब कुछ करते हुये
भी अकत्र्ता बोध रूप में शरीर रहते शरणागत रहना चाहिये। दुष्ट, अत्याचारी,
शैतान
एवं भ्रष्टाचारियों रूप मिथ्याभाषी एवं मिथ्याचारियों का संग सदा ही त्यागकर उनके
लाख बहकाने और फंसाने के बावजूद भी भ्रमित नहीं होना चाहिये, अन्यथा
वे शैतान मिथ्याभाषी एवं मिथ्याचारी आप को यानी ‘हम’ को ‘हमार’
में
फंसाकर सदा-सदा के लिये ‘हम’ को हमार का
गुलाम बना देंगे जबकि ‘हम’ को परमात्मा में विलय होकर ‘हमार’
के
साथ ही परमात्मामय होकर रहना चाहिये । सदा परमात्मा में विलय रूप देखते रहना
चाहिये क्योंकि ‘हमार’ हर समय अपने जाल में फंसाकर अपना साधन
बना-बना कर अपने जड़ रूप शरीर और सम्पत्ति या व्यक्ति और वस्तु या कामिनी और कांचन
के पीछे नचाता रहता है जबकि ‘हम’
जीव
न तो शरीर है और न शरीर होगा परन्तु शरीरमय हो जाने पर यह चैरासी लाख योनियों रूप
में भ्रमित होकर भटकता हुआ चारों तरफ नरक से लेकर मृत्युलोक तथा मृत्युलोक से लेकर
नरक तक कष्टदायक चक्कर काटता रहता है । फिर भी लोभी-लालची, कामी जीव मनुष्य
शरीर पाकर भी मात्र कर्म और भोग में ही गंवा देता है । लाख कहने, बताने,
जनाने,
दर्शाने,
समझाने
तथा पहचान कराने पर भी अपने पूर्व के आदत रूप भ्रम को नहीं छोडता और सदा ही
शैतानों के बहकावे में आकर भटकता रहता है, यदि यह कहा जाय कि ‘हमार’
के
पीछे भी अमन-चैन से रहता हो तो यह तो कदापि सम्भव ही नहीं है । यदि वह कहता भी है
तो मिथ्याभाषियों एवं मिथ्याचारियों के
बहकावे में आकर मिथ्या प्रलाप करते हैं । अतः मानव बन्धुओं ! यह याद रखें कि
अध्यात्म ‘हम’ को समाप्त या विलय करने की ताकत या
क्षमता-सामथ्र्य नहीं रखता है यह क्षमता-सामथ्र्य जब है तब एकमात्र तत्त्वज्ञान के
पास ही रहता है क्योंकि यह परमात्मा या परमब्रह्म के भू-मण्डल पर परिचय देने वाली पद्धति है इसलिये इसमें ‘हम’
को
तथा समर्पण भाव से ‘हमार’ को विलय करें ।