‘‘सत्यं वद्’ : ‘धर्मं चर’’
सद्भावी कत्र्तव्यनिष्ठ बन्धुओं ! ‘सत्यं
वद्: धर्मं चर’ तो मात्र ही ‘कत्र्तव्य’
के
अन्तर्गत आता है । ‘सत्य बोलें तथा धर्म पर चलें’ या
धर्म के अनुसार चलें’ यही शिक्षा तथा व्यवहार ही कत्र्तव्य के
अन्तर्गत आता है । मानव मात्र को ‘सत्यं वद्:धर्मं चर’ को
ही यथार्थतः एवं तात्त्विक रहस्यों के साथ जानते-समझते तथा बोध के माध्यम से पहचान
करते हुये जीवों को चाहिये कि अपने जीवन को ‘सर्वतोभावेन’
यानी
पूर्णतः समर्पण भाव में सत्यं वद्: धर्मं चर के प्रचार-प्रसार रूप स्थापना तथा सकल
मानव समाज को ही प्रभावी रूप में इसी सिद्धान्त पर ले चलना चाहिये । इसी जीवन में
ही इस सिद्धान्त की यथार्थता को समझ-बूझकर दिव्य जीवन रूप ‘दोष-रहित’
या ‘निर्दोष-जीवन-यापन’
अथवा
निष्काम-कर्म करते हुये आजीवन शरीर को ले चलने का संकल्प लेना तथा उसे हर
तौर-तरीके अपने जीवन तथा सकल मानव समाज में लागू करना-कराना चाहिये । यह ‘सत्यं
वद्: धर्मं चर’ ही सत्पुरुष रूप परमब्रह्म, परमश्ेवर
के पूर्णावतार रूप तात्त्विक या अवतारी का तथा समस्त योेगी-साधक, सिद्ध,
ऋषि,
महर्षि,
प्राफेट,
पैगम्बर
एवं अध्यात्मवेत्तागण का भी एकमात्र लक्ष्य या उद्देश्य तथा प्रचार-प्रसार का आधार
बिन्दु होता है । इतना ही नहीं सत्पुरुष
रूप परमपुरुष का तो मात्र ‘सत्यं वद्: धर्मं चर’ ही
जीवन तथा कार्य-पद्धति रही है, और रहेगी भी । अपने जीवन को दिव्य जीवन
में परिवर्तन करने हेतु ‘सत्यं वद्: धर्मं चर’ का
सहारा लेना ही पड़ेगा । इसके बगैर मानव मात्र का जीवन दानव या असुर या राक्षसय का
जीवन हो जायेगा क्योंकि रात-दिन झूठ बोलने वाला भी नहीं चाहता कि उसके साथ कोई झूठ
बोले । इससे स्पष्ट जाहिर हो रहा है कि सत्य बोलना एक ऐसी बात है कि सामान्य और
अच्छी परिस्थिति में कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता
कि हम असत्य बोलें, अधर्म पर चलें, परन्तु दुष्ट
मिथ्याभाषी एवं मिथ्याचारियों का सम्बन्ध तथा स्थिति-परिस्थितियाँ भी मानव को
अपवचन या मिथ्याभाषी एवं मिथ्याचारी बना देता है । कुछ ही वर्षों पूर्व जनमानस को
यह कहते हुये सुना-देखा जाता था कि-- बाबू हमारे पास बाल-बच्चे हैं, माल-मवेशी
है, घर-दुआर है, खेती-बारी है, नौकरी-चाकरी है,
मैं
झूठ नहीं बोलूँगा, मैं अपना ईमान-धरम नहीं गवाऊँगा, मेरे
बाल-बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा; मैं झूठ नहीं बोलूँगा तथा गलती नहीं
करुँगा । आज भ्रष्टता इतनी कगार पर पहुँच गयी है कि लोग यह कहते-सुनते दिखलायी दे
रहे हैं कि भाई हमारे पास बाल-बच्चे हैं, उनकी पढ़ाई-लिखायी है, नौकरी-चाकरी
भी कायम रखनी है जिससे साहब लोगों को खुश (घुस के माध्यम से) करना है तो बतलाइये
हम ‘ईमान-धरम’ देखें तो काम चलेगा । बच्चे कैसे
पढ़ेंगे-लिखेंगे, खर्च कैसे चलेगा ? ‘ईमान-धरम’
कोई
खर्ची देगा, नहीं देगा । कदापि नहीं देगा। हम ऐसा करने को
मजबूर हैं । यदि कोई ईमान-धरम की यादगारी भी दिलाता है तो झट से यह कह देते हैं कि
बहुत ईमान-धरम की शिक्षा मत दीजिये । ईमान-धरम हमको तथा हमारे बाल-बच्चों को कोई
खर्ची थोड़े न देगा यानी नहीं देगा, कदापि नहीं देगा। बन्धुओं आज का यह
व्यवहार हो गया है जो दुष्टता, अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि
का उग्रतम रूप दिखलायी दे रहा है जो विनाश कार्य का पूर्व रूप है ।
सद्भावी कत्र्तव्यनिष्ट बन्धुओं ! ‘सत्यं
वद्’ या सत्य बोलें सार्व-भौम एक ऐसा बात-व्यवहार है जिसकी आवश्यकता समस्त
मानव समाज को ही रहती है । यह बात मुमकिन या सम्भव है कि वास्तविक सत्य यायथार्थतः
सत्य या तात्त्विक सत्य या सार्वभौमिक सत्य या परमसत्य को बहुसंख्यक मानव न
जानते-पहचानते हों, परन्तु आभासित सत्य के अभिलाषी तो सभी ही होते
हैं । मिथ्याभाषी एवं मिथ्याचारी भी नहीं चाहता कि उसके साथ कोई मिथ्या या असत्य
बात कहे या उससे असत्य बोले । सभी यही चाहते हैं कि हम से सभी सत्य बोले, सत्य
बात कहे एवं सत्य व्यवहार करे । सत्य कोई न जानता हो ऐसा तो सम्भव ही नहीं, साथ ही कोई ठीक हो और सत्य से इन्कार
हो ऐसा भी नहीं हो सकता है । कत्र्तव्य की उत्पत्ति, कत्र्तव्य की
रक्षा-व्यवस्था तथा कत्र्तव्य की कामयाबी भी ‘सत्यं वद्:
धर्मं चर’ से ही है । कत्र्तव्य एक पाक-शाक या पवित्र-कर्म शिक्षा है जिसके
अनुसार चलकर ही मानव समाज एवं प्राणिमात्र शान्ति और आनन्द तथा मानव जीवन एवं
जीव-मात्र का चरम और लक्ष्य रूप मुक्ति और अमरता का बोध तथा काल-पाश एवं कर्म-पाश
के समाप्ति का बोध होना सम्भव है । यह दो-- ‘सत्यं वद्:
धर्मं चर’ तथा ‘काल-पाश: कर्म-पाश’ की वास्तविक
यथार्थ जानकारी एकमात्र परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या भगवान् या यहोवा या
गाॅड या अल्लातआला के अलावा किसी भी अन्य को होता ही नहीं तथा है भी नहीं और हो भी
नहीं सकता है । काल-चक्र तथा कर्म-चक्र की यथार्थता उत्पत्ति, गति-विधि
या विलय रूप भी भगवान् ही होता है शेष सभी तो इसके अधीन ही क्रियाशील रहते हैं भले
ही वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही क्यों न
हों, एकमात्र भगवान् ही ऐसा होता है जिसके अधीन ये --- काल और कर्म दोनों
रहते हैं । भगवान् का ही तात्त्विक रूप वास्तव में ‘सत्य’ तथा
भगवान् के अनुसार ही क्रियाशीलता तथा गति-विधि ही ‘धर्म’ है;
इसके
पश्चात्् जो कुछ भी है वह असत्य तथा अधर्म होता है । सत्य और धर्म ही किसी भी समाज
का सुधार ओर उद्धार तथा उसका परम शान्ति और परमानन्द रूप परमकल्याण है तथा असत्य
और अधर्म ही अशान्ति, बेचैनी तथा दुःख, कष्ट एवं
परेशानी के साथ ही विनाश तक पहुँचा देने वाली क्रियाशीलता और गति-विधि है ।
सत्य और धर्म की अवहेलना तथा समाप्ति उस समय
विशेषतः होने लगता है जब नाजानकार एवं नासमझदार अज्ञान या अविद्या के अन्तर्गत
रहने वाले शिक्षित, विद्वान्, पण्डित, आचार्य,
मान्त्रिक,
तान्त्रिक
आदि कर्म शास्त्र के मात्र ऊपरी या बाह्य जानकार भी गुरु और धर्मोंपदेशक बन गये जो
कभी भी सत्य और धर्म के हो नही सकते हैं । दूसरे-साधक, सिद्ध, योगी-यति,
ऋषि-महर्षि,
ब्रह्मर्षि,
प्राफेट्स,
पैगम्बर,
आध्यात्मिक
सन्त-महात्मन् बन्धु ‘सत्य और धर्म’ के नाम पर जब
योग-साधना या अध्यात्म को लाकर, उसी को तत्त्वज्ञान, उसी
को ज्ञान, उसी को सत्यज्ञान, उसी को सत्य-धर्म, उसी
को परमरूप ‘आत्मतत्त्वम्’ तथा स्वयं को
गुरु के स्थान पर सद्गुरु, योग-साधना प्रदाता के स्थान पर ज्ञान
दाता, योगी साधक या आध्यात्मिक के स्थान पर तत्त्वज्ञानी या तात्त्विक तथा
सन्त-महात्मा के स्थान पर परमात्मा या भगवान् के पूर्णावतार रूप अवतारी बन-बन कर ‘सत्य-धर्म’
के
स्थान पर ‘अध्यात्म’ का प्रचार-प्रसार करते हुये सत्यज्ञान के स्थान
पर मिथ्याज्ञान का प्रचार-प्रसार करके तो सत्य-धर्म का मजाक या खिल्ली हँसी-ठट्ठा
की वस्तु बना दिये हंै जिसका यह कुपरिणाम है कि ‘असत्य और अधर्म’
इतना
प्रभावी रूप में भू-मण्डल पर ही छा गया है कि आज वास्तविक या यथार्थ ‘सत्य-धर्म’
का
प्रचार-प्रसार करना तो दूर रहा, ‘सत्य-धर्म’ शब्द उच्चारण भी
जुर्म, दोष और अपराध हो गया है । परमशान्ति और परमानन्द तथा मुक्ति और अमरता
का ही साक्षात् मूर्तरूप ‘सत्य-धर्म’ की संस्थापना
तथा प्रचार-प्रसार करते हुये चारांे तरफ विचरण करते हुये परमात्मा या भगवान् के ही
सृष्टि एवं संसार में भगवान् के ही प्रचारक रूप हम सभी अनुयायियों के साथ आपराधिक
धाराओं के साथ नाजायज, बिल्कुल ही नाजायज रूप से, अन्यायपूर्ण
रीति नीति तथा अन्याय के साथ आपराधिक धाराओं को झूठ-मूठ में लगा-लगा कर जेलों में
प्रतिबन्धित कर-करा कर सत्य-धर्म जो वास्तव में ‘सत्य-धर्म’
है
जिसकी सत्यता के परीक्षण हेतु विश्व के किसी भी समाज को चुनौती तक दे दिया गया है
कि आप मिल-मिलाकर हमारे ‘सत्य-धर्म’ रूपी ‘सत्य-ज्ञान’
की
परीक्षा कर-करा सकते हैं, निरीक्षण-परीक्षण कर-करा सकते हैं चाहे
आप विश्व के कोई हों तो क्या है बशर्ते कि वह परीक्षण शान्तिमय तथा स्पष्ट
प्रमाणों के आधार पर ही होना ‘वार्तालाप’ के माध्यम से
प्रायौगिक और व्यावहारिकता के साथ अनुभूति तथा बोध करते-कराते हुये किया जाय ।
परन्तु ऐसा करने वाले तो कोई सामने आ ही नहीं रहे, फिर भी
अज्ञानतापूर्वक नाना प्रकार से अपनी-अपनी गति-विधियों तथा व्यवहारों के अनुसार ही
नाना विधि से उल्टे प्रचार-प्रसार में लगे हैं जिससे ‘सत्य-धर्म’
से
ही समाज वंचित हो जा रहा है ।
कत्र्तव्यनिष्ठ सद्भावी बन्धुओं से मुझे
स्पष्टतः जना-बतला देना है कि वास्तव में वास्तविक कत्र्तव्य एकमात्र ‘सत्यं
वद्: धर्मं चर’ ही है। इसके सिवाय जो कुछ भी है, असत्य
एवं अधर्म ही है तथा मिथ्या और कर्म ही है । इसलिये हम-आप तथा समस्त मानव बन्धुओं
को ही अपने चरम और परम लक्ष्य रूप मुक्ति और अमरता हेतु इस कत्र्तव्य रूप ‘सत्यं
वद्: धर्मं चर’ को ही एकमेव अनन्य प्रेम, अनन्य
सेवा, अनन्य भक्ति तथा मुसल्लम ईमान के साथ पूर्ण समर्पण भाव में बिना किसी
सोच-विचार के ही अपनाना तथा उसी पर पूर्णतः उसी के अनुसार ही बिना अपना विचार आदि
मिलाये सर्वतोभावेन उसी के अनुसार चलना ही परम कत्र्तव्य तथा अपने जीवन का
सर्वोत्तम एवं सर्वोत्कृष्टतम् रूप परम सौभाग्य जानना-समझना चाहिये । यहाँ शारीरिक,
पारिवारिक,
साम्प्रदायिक
आदि पचड़ा रूप व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म, व्यर्थ ज्ञान
रूप सांसारिकता एक विनाशशील एवं काल-पाश तथा कर्म-पाश में बन्ध कर काल-कर्म के
अनुसार ही चलने-चलाने वाला विधान है । वास्तव में बार-बार अनेकों बार, पुनरावृत्ति
को देखते तथा अभ्यास समझते हुये कहना पड़ रहा है कि काल-पाश तथा कर्म-पाश को काटकर
काल-चक्र तथा कर्म-चक्र से बाहर निकलकर परमशान्ति और शाश्वत् परमानन्द रूप मुक्ति
और अमरता को प्राप्त करना बोध करते हुये एकमेव ‘सत्यं वद्:
धर्मं चर’ से ही सम्भव है । यही हमारे समस्त मानव क्या प्राणिमात्र जीव तथा
आत्मा का भी परम कत्र्तव्य है ।
सद्भावी कर्ममय आचरण या कर्म-प्रधान भाव व
कर्मचारी बन्धुओं ! कर्म को करने के पूर्व उसके जानकारी की भी आवश्यकता ही नहीं
बल्कि अनिवार्यता भी रहती हे । यथार्थतः या वास्तविक जानकारी के बगैर वास्तविक या यथार्थ
‘कर्म का होना भी असम्भव ही है । क्योंकि जिसका जानकारी ही नहीं रहेगी
वह कार्य कैसे होगा, नहीं होगा, कदापि नहीं होगा
। इसलिये अत्यावश्यक है कि ‘कर्म’ को करने के पहले
उसकी वास्तविक या यथार्थ जानकारी हासिल कर लिया जाय । कर्म की गति भी उतनी ही
मात्र नहीं जितना कि आज का मानव जान-समझ व कर-करा रहा है । कर्म की गति भी अति गहन
है जो जितना जान पाता है वह उतना ही कर पाता है तथा जो जितना करता है मात्र उतना
ही पाता है । यही प्रभु तथा उसके सृष्टि का विधान है परन्तु आज यह बिल्कुल ही
समाप्त प्रायः हो चुकी है तब ही ‘हम लोगों’ भगवान् के साथ अनन्य प्रेमी, अनन्य
सेवक, अनन्य भक्त-मण्डली का आगमन भू-मण्डल पर हुआ है । भगवान् के ‘सत्य-धर्म’
की
पूर्ण स्थापना हेतु ही अपना तो अपना है अपने को भी न्यौछावर कर-करा कर संस्थापित
करने-कराने में लगे हैं भगवान् चाहे परेशान करे या कष्ट दे, जंगल में रहे और
रखे या जेल में रहे और रखे, सुख, आनन्द, चिदानन्द
तथा सच्चिदानन्द रूप शाश्वत् आनन्द रूप सदा आनन्दित रखे या जैसा चाहे वैसा,
जहाँ
चाहे वहाँ रखे और रहे, हम तथा हमारे लोगों को क्या परवाह क्योंकि यहाँ
पर यह हम सदानन्द तथा इसके अनुयायी गण को परमात्मा या भगवान् रूप साक्षात् ‘सत्य-धर्म’
संस्थापक
रूप में शरीर लगाना ही है तो भगवान् जैसे भी चाहे इस शरीर का उपयोग करे-कराये ।
इसमें सदानन्द तथा इसके अनुयायीगण तो पूर्णतः तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या
परमज्ञान या परमसत्य या ‘सत्य-धर्म’ हेतु ही पूर्णतः
तन-मन-धन के साथ ही अर्पित है । फिर विचार किस बात का, सोच-फिकर किस
बात का, यदि होता है, हो रहा है और होगा भी तो वह हमारी
(सदानन्द तथा इसके) अनुयायियों की अपनी-अपनी कमी और कमजोरी होगी जो सोचवाती और भय
दिखलाती होगी परन्तु इस पर भी घबड़ाने की बात नहीं क्योंकि कमी भी पूर्ति का ही
पूर्व रूप है यदि कमी नहीं दिखलायी देगी तो पूर्ति की आवश्यकता ही समाप्त हो
जायेगी उस दिन कर्म ही समाप्त हो जायेगा और जब कर्म ही समूल समाप्त हो जोयगा फिर
शरीर की आवश्यकता भी समाप्त हो जायेगी तो शरीर छूट जायेगी । इसलिये शरीर रखना है
कर्म करना एवं भोग-भोगना या निष्काम, पूर्णतः प्रभु-प्रेम, प्रभु-सेवा,
प्रभु-भक्ति
तथा प्रभु गुण-गान ही करना है तो कुछ न कुछ प्रभु के शरण में रहते हुये भी कमी और
भय कायम रहना चाहिये ताकि प्रभु का आनन्द मिलता रहे, प्रभु-सेवा कायम
रहे, प्रभु-प्रेम कायम रहे, प्रभु भक्ति कायम रहे। सद्भावी बन्धुओं
तब तक ही प्रभु-प्रेम तथा प्रभु-सेवा-भक्ति कायम रह सकती है जब तक कि हम आप सभी
अनन्य-श्रद्धा-भाव से विनम्रता पूर्वक शरणागत भाव से रहेंगे । अन्यथा नहीं ।
वास्तव में ‘कर्म’ दो
प्रकार का होता है--- सकाम और निष्काम । अब हम आप पृथक्-पृथक् रूप सकाम कर्म तथा
निष्काम कर्म की विधि को यहाँ पर जानेंगे, देखेंगे तत्पश्चात् जो उचित सत्य एवं
न्यायपूर्ण लगेगा उसे ही करने-कराने का संकल्प लेंगे ।