‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’
Only One GOD
‘ला
अिलाह अिल्लाहुव’
‘अद्वैत्तत्त्वं’ या ‘तौहीद’
या
एकेश्वरवाद
सद्भावी ब्रह्मविद् बन्धुओं ! एको ब्रह्म
द्वितीयो नास्ति अथवा गाॅड इज वन् अदर वाइज नन् (GOD is One Otherwise None) अथवा ला। अिलाह अिल्ला हुव अथवा तौहीद अथवा एकेश्वरवाद से तात्पर्य एक
ब्रह्म ही है दूसरा कुछ भी नहीं है अर्थात् अल्लाह के सिवाय दूसरा कोई पूजनीय नहीं
। आज संसार में स्वार्थी महानुभावों ने मानव समाज को विभिन्न सम्प्रदायों में
बांटकर मनमाना तरीके से एक-दूसरे से बैर-विरोध करते-कराते हुये आपस में प्रेम के
स्थान पर डाह-द्वेष उत्पन्न कर-कराकर अपने-अपने समाज में धर्म के नाम पर अधर्म
अथवा दीन के स्थान पर कुफ्र को पैदा कर-करके आपस में विरोध एवं संघर्ष करत-कराते
रहते हैं जबकि यथार्थता यह है कि जितने भी सम्प्रदाय है सबके मूल में एक ही
सिद्धान्त निहित है और वह है-- ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति अथवा गाॅड
इज वन अथवा ला।अिलाह अिल्लाहुव या तौहीद अथवा एकेश्वरवाद । सभी सम्प्रदाय ही इसी
मूल -भूत सिद्धान्त पर आधारित है फिर भी डाह-द्वेष या वैमनस्य की होड़ में लगे हैं
जबकि यथार्थतः भी का अर्थ, सभी का भाव तथा सभी का संकेत भी
एकमात्र परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या खुदा या गाॅड या अल्लातआला या यहोवा
या परमसत्य या परमभाव या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामथ्र्य या भगवान् यानी
शक्ति-सत्ता भाव में ‘परम’ के प्रति ही होता है, अन्तर
मात्र भाषा का ही है भाव या लक्ष्य का नहीं । जैसे पानी को जल कहा जाय या पानी या
आब कहा जाय अ प या वाटर कहा जाय या एच टू ओ (H2O) सभी का अर्थ,
सभी
का भाव तथा सभी का संकेत भी एक ही प्यास बुझाने वाली तरल पेय पदार्थ के तरफ ही
रहता है । भिन्न-भिन्न उच्चारण या भिन्न-भिन्न भाषा के भिन्न-भिन्न नामों से
यथार्थतः वस्तु एक ही रहती है वैसे ही विभिन्न नामों से उच्चारित या उद्बोधित
परमात्मा, खुदा-गाॅड एक ही होता है परन्तु नाजानकार एवं नासमझदार जो
तत्त्वज्ञान पद्धति तथा योग-साधना या आध्यात्मिक प्रक्रियाओं तथा स्वर-संचार
क्रिया से रहित या पृथक् रहते हुये भी धर्म प्रचारक एवं धर्मोपदेशक बन-बन कर हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई
आदि भेद रूप खाई को गहरा कर-कर के लोगों को उसी में गिरा-गिरा कर अपना स्वार्थ
साधना अथवा अपने स्वार्थों को पूरा करना मात्र ही इनका उद्देश्य एवं कार्य होता है
भले ही जिज्ञासु बन्धुओं का धर्म-कर्म से पतन क्यों न हो जाय । इससे उन्हें कोई खास
मतलब नहीं होता है । जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद पैदा करना तथा उसे कायम रखना इनका
कार्य एवं लक्ष्य होता है जो डाह-द्वेष, वैमनस्य का श्रोत एवं हर तरह के
जोर-जुल्म, अत्याचार एवं भ्रष्टाचार को उत्पन्न करना तथा
संरक्षण देना और बढ़ावा देना आदि इन लोगों का जीवनाधार होता है । यदि समाज शान्त
एवं आनन्दित रहने लगे तो इनको इतनी तेज बेचैनी या अशान्ति होती है कि समाज को
अशान्त या बेचैन किये बगैर शान्त ही नहीं हो पाती है ।