स्वराट और विराट

स्वराट और विराट
सद्भावी बन्धुओं ! स्वराट और विराट अथवा आध्यात्मिक और तात्त्विक से तात्पर्य शरीर और सृष्टि रूप जीव $ आत्मा त्र जीवात्मा तथा जीवात्म का कार्य-क्षेत्र और जीव $ आत्मा $ परमात्मा त्र परमात्मा तथा परमात्मा के कार्य-क्षेत्र से है । हालांकि इसमें मुख्यतः जीव तथा जीव का क्षेत्र रूप ही शरीर या स्वराट होता है और परमात्मा तथ परमात्मा के कार्य-क्षेत्र रूप सृष्टि या विराट होता है और आत्मा विराट से निकल कर स्वराट पर आकर जीव रूप स्व का सम्बन्ध परमात्मामय परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् से स्थापित करती है अर्थात् स्वराट और विराट के मध्य का लिंक या कड़ी जोड़ने या सम्बन्ध स्थापित करनी वाली है । दूसरे शब्दों में विराट आत्मा के माध्यम से ही स्वराट का संचालन करता है जिससे स्वराट संचालित तथा विराट संचालक होता है । योगी साधक या आध्यात्मिक की सारी पहुँच स्वराट से आत्मा तक ही होती है विराट को तो ये कदापि नहीं जानते हैं । विराट एकमात्र परमब्रह्म, परमेश्वर का कार्य-क्षेत्र होता है ।
आध्यात्मिक सन्त-महात्मन् बन्धुओं को कौन कहे कि स्वराट ही सही तथा विराट गलत अथवा स्वराट रूप शरीर ही आध्यात्मिक साधना क्षेत्र होने के कारण सत्य है तथा विराट या सृष्टि मिथ्या है, ऐसा कहना अपने भ्रम, कूप-मण्डूक या गूलरा का कीड़ा रूप अपने तुच्छ रूप तथा सीमित-तुच्छ क्षेत्र रूप स्वराट को ही विराट मानना और घोषित करना अपने मिथ्याज्ञानाभिमान रूप मूढ़ता का भी परिचय देना है । क्योंकि स्वराट कदापि विराट नहीं; ला-पिला कदापि गा-यमुना नहीं तथा सुषुम्ना कदापि सरस्वती नहीं है । इतना ही नहीं इला-पिला तथा सुषुम्ना का मिलन-स्थान रूप आज्ञा-चक्र ही गा-यमुना तथा सरस्वती का संगम-स्थल रूप प्रयाग कदापि नहीं है । इसी प्रकार आत्म-ज्योति रूप आत्मा कदापि हरि नहीं और आत्म-दर्शन रूप आज्ञा-चक्र कदापि हरि दर्शन रूप हरिद्वार नहीं है तथा सोऽहँ-ह ँ्सो व ज्योति रूप शिव तथा उसका दर्शन रूप आज्ञा-चक्र ही शिव की काशी कदापि नहीं । सद्भावी बन्धुओं एक तरफ तो योगी-साधक या आध्यात्मिक स्वराट रूप शरीर के अन्दर ही सब कुछ तथा उसी को सत्य तथा दूसरे तरफ कर्म-प्रधान या कर्म-काण्डी बन्धुजन प्रत्यक्षतः दिखलायी देते हुये सृष्टि तथा सृष्टि में संसार भी प्रत्यक्षतः दिखलायी देते हुये सृष्टि तथा सृष्टि में संसार और संसार में प्रत्यक्षतः दिखलायी ग, यमुना तथा सरस्वती और तीनों का संगम-स्थल प्रयाग भी प्रत्यक्षतः दिखलायी दे रहा है तो कैसे मिथ्या माना और कहा  जाय । मिथ्या तो उनकी बातें है जो इनको मिथ्या कहते इसी प्रकार काशी, हरिद्वार आदि सब कुछ बाहर स्पष्टतः दिखलायी दे रहा है तो उसे मिथ्या कैसे मान लिया जाय । इसलिये वे अहंकारी हैं, मिथ्याज्ञानाभिमानी हैं स्वयं भ्रम में हैं ।
सद्भावी तत्त्वाभिलाषी बन्धुओं ! विराट वाला तात्त्विक सत्पुरुष रूप परमात्मा तथा उनके विशिष्ट तात्त्विक  अनुयायियों का कथन है कि ये दोनों- आध्यात्मिक तथा कर्म-काण्डी बन्धुओं आपस में झंझट क्यों कर रहे हैं । दोनों आयें, एक स्थान पर हम तीनों ही यथार्थतः जानकारी एवं पहचान करते हुये स्पष्ट प्रमाणों से प्रमाणित करते-कराते हुये सत्यक्या, का फैसला कर कर-करा लिया जाय । जिससे प्रेम-व्यवहार के साथ सत्य का फैसला भी हो जाय और झंझट भी न होने पाये । तत्त्ववेत्ता सत्पुरुष रूप अवतारी के अनुसार स्वराट विराट का ही एक ईकाई होता है तथा विराट अगणित ईकाई समूहों का वृहत्तम् रूप है । स्वराट एक स्व चालित चेतन यन्त्र है तो विराट परमात्मा द्वारा संचालित जड़-चेतन रूप एक ब्रह्माण्ड है । स्वराट का स्व विराट के परमात्मा रूप परमका ही प्रतिबिम्ब मात्र तथा विराट अगणित स्वराटों या सृष्टि के सम्पूर्ण स्वराटों का आदिमूल रूप एकमेव आत्मतत्त्वम्रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप है ।
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या बचन या गाॅड या अलम् (अलिफ लाम् मिम्) या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा जिसमें से सृष्टि का सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू उत्पन्न हुआ है अर्थात् जो सृष्टि के सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू का आदि कारण रूप महाकारण है तथा सृष्टि का सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू जिससे संचालित होता है और जो यहाँ भू-मण्डल पर अवतरित होकर तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वम् पद्धति से स्पष्टतः एकमेव आत्मतत्त्वम्रूप मैंका ही प्रतिबिम्बवत् रूप सम्पूर्ण मैं-मैं-तू-तू को जना, दिखा तथा बात-चीत करते-कराते हुये अद्वैत्तत्त्वम् रूप एकत्व कराते हुये बोध कराकर दिखला देता है । वही आत्मतत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप ही विराट होता है तथा वही जिस शरीर से पूर्णावतार के रूप में कार्य करने हेतु धारण करता है, एकमेव वही अवतारी सत्पुरुष होता है ।
अपरा विद्या या प्रेय विद्या या भौतिक विद्या अविद्या ही महामाया से सीधा सम्बन्धित रहती है । यानी महामाया अविद्या के अन्तर्गत रहने वाले बन्धुओं से सम्बन्धित रहते हुये अविद्या जनित व्यवहारों या विधानों से संचालित करती-कराती रहती है ।  ज्ञानी और योगी-महात्मा के अतिरिक्त सारी सृष्टि ही अविद्या के अन्तर्गत ही सृष्टि-चक्र में चक्कर काटती रहती है । चूँकि महामया और अविद्या का सम्बन्ध अन्योन्याश्रय होता है । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् तथा तत्त्वज्ञान या विद्या-तत्त्व का आपस का अनयोन्याश्रय सम्बन्ध होता है । जिस प्रकार परमात्मा का कार्य तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वम् के माध्यम से होता है ठीक उसी प्रकार आदि-शक्ति रूपा महामाया का कार्य अविद्या के माध्यम से होता है। अविद्या या अज्ञान में ही कर्म-बन्धन तथा काल-चक्र चलता है । ज्ञान में तो दोनों ही आकर विलय कर जाते हैं और यदि कर्म और काल दोनों ही लय हो जाय, तो फिर बन्धन और सृष्टि-चक्र रूप भवसागर ये दोनों कहाँ रह जायेंगे अर्थात् ये दोनों भी उसी के साथ ही समाप्त हो जायेंगे फिर बचेगी क्या ? वही मुक्ति और अमरता । मुक्ति और अमरता जो मानव योनि या चैरासी लाख योनियों का ही लक्ष्य रूप होता है तथा परमधाम में स्थान मिल जाता है ।
महामाया का कार्य अज्ञान या अविद्या के माध्यम से ही होता है तथ अज्ञान या अविद्या में कर्म और काल ही प्रधान होता है । कर्म ही का सम्बन्ध अन्योन्याश्रय ही होता है । अर्थात् न तो गुण के बगैर कर्म हो सकता है और न कर्म के बगैर गुण ही प्रभाव कारी होगा । गुण का प्रभाव कर्म पर तथा कर्म की क्रियाशीलता गुण पर ही आधारित होता है । इस प्रकार गुणों के आधार पर ही कर्मों का विभाजन तथा कर्मों के आधार पर फल बनता है तथा फल भोग ही जीव को भोगना पड़ता है जो सुख और दुःख रूप है । दुःख और सुख भोग मात्र ही अन्तिम नहीं होता है बल्कि कर्म के अनुसार ही संस्कार भी बनता है और संस्कार के  अनुसार गुण बनता है इस प्रकार आपस में इन सभी की एक गहन गुत्थी है जिसकी ठीक-ठीक जानकारी के बगैर सफलता हासिल करना आसान बात या कार्य नहीं है । जीवन की सांसारिक सफलता हेतु भी काल, कर्म, संस्कार तथा गुणों के गुत्थी का ेसमझ लेना चाहिये । काल के अन्तर्गत एवं काम के अनुसार ही कर्म किया जाता है या कर्म होता है  जैसे -- कहा भी जाता है कि ----

पुरुष बली नहीं होत है समय होते बलवान ।
                                कोल भील मारन लगे वही अर्जुन वही बान ।।
अर्थात् पुरुष बलवान् नहीं होता है समय बलवान होता है क्योंकि वही अर्जुन थे तथा वही बान था जिससे महाभारत किये थे परन्तु जब कोल-भील मारने लगे तो कोई साथ नहीं दिया । इन सभी के पीछे बात क्या थी कृष्ण जी की अनुपस्थिति । जब श्रीकृष्णजी के साथ में थे वही अर्जुन वही बान क्या और उनकी अनुपस्थिति में क्या हो गया ? यानी काल या समय अर्जुन पर भी हावी हो गया ।
नीति प्रधान कर्म सात्त्विक तथा नीति और अनीति मिश्रित कर्म राजसिक तथा अनीति प्रधान कर्म तामसिक कहलाता है । अज्ञान या अविद्या में नीति सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान पाती है । स×िचत कर्म से संस्कार बनता है और संस्कार के अनुसार ही गुण-दोष की प्राप्ति होती है तथा गुण-दोष के अनुसार ही कर्म होता है । इस प्रकार यह चक्र क्रमशः काल-चक्र के अधीन चलता रहता है । इस प्रकार नाना योनियाँ प्राप्त होती और कर्म होता रहता है ।
नीति प्रधान कर्म या सात्त्विक कर्म का परिणाम या फल लोक-प्रतिष्ठा, शुद्धविचार, शुद्ध जीवन, सुखी (आभासित) जीवन तथा शरीर  छोड़ने पर देव योनि तथा स्वर्ग का अधिकारी होता है । नीति प्रधान या सात्त्विक कर्म वाले व्यक्ति सशरीर भी देवगुण प्रधान होते हैं । समाज में भी ऐसे बन्धुओं को देव तुल्य स्थान देता है । ऐसे बन्धु नीति के आगे सत्य वचन का भी महत्व नहीं देते हैं । ये सत्य-वचन के प्रेमी नहीं होते हैं बल्कि मीठे-वचन के प्रेमी होते हैं । मीठा-वचन तथा लोक-व्यवहार इनका मुख्य आधार होता है । ये ज्ञानी और योगी-साधक या आध्यात्मिक तो नहीं होते हैं परन्तु शुद्ध कर्म, पवित्रता, पूजा-पाठ, शास्त्र मर्यादा, पवित्र तीर्थस्थलों पर स्नान, दान-दक्षिणा, देना आदि कर्म-प्रधान तथा सकाम के फलाभिलाषी होते हैं ।
नीति जीव स्तरीय विधान होता है । जीव नैतिक विचारों, नैतिक-भावों, नैतिक-व्यवहारों, मूर्ति एवं शास्त्रों को ही परमात्मा का साक्षात् रूप मानते हुये उसी की पूजा-आरती करना, रामायण, गीता, वेद, पुराणों, बाइबिल, र्कुआन की मर्यादा ये परमात्मा या परमेश्वर या अल्लातआला के समान ही स्थान देेते हैं । इनके कथनानुसार माता-पिता आचार्य की सेवा ही वास्तविक सेवा है। ये मात्र चार को ही देवता के समान तथा देवता ही मानते हैं । इनके अनुसार ही --- मातृ देवो भव, पितृ देव भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव । अर्थात् माता को देवी समझे, पिता को देव समझें, आचार्य को देव समझें तथा अतिथि देव के समान ही आदर-सत्कार, सेवा-भाव करें । इस प्रकार ये कर्म-प्रधान होते हैं । अज्ञान या अविद्या के अन्तर्गत रहते हुये भी सांसारिक दृष्टिकोण में ये ज्ञानी होते हंै परन्तु वास्तव में ये अविद्या के अन्तर्गत रहने के कारण अज्ञानी की श्रेणी में ही रहते हैं । ये शिक्षित तथा भौतिक विद्या के विद्वान् भी होते हैं ।
नीति की लोक-प्रियता तत्काल सर्वाधिक होती और रहती है । नीति के आधार पर ही आचार संहिता की रचना होती है। आचार-संहिता की तात्कालिक लोकप्रियता इतनी अधिकाधिकासंख्या एवं मात्रा में होती है जितनी तत्त्वज्ञान तथा आध्यात्मिक सद्ग्रन्थों की नहीं हो पाती है । नीति प्रधान या नैतिक-विचारों वाले लोग बहुत ही शिक्षित, भौतिक विद्याओं के धुरन्धर विद्वान्, व्यवहार में मिठास, भाव में किसी को भी देव-तुल्य देखना मानना तथा आदर-व्यवहार देना । अतिथि सेवा तो ये प्रभु सेवा ही समझते हैं । ये ज्ञानी तो होते नहीं कि संसार में विचरण करते हुये शरीरधारी परमात्मा जो अवतारी सत्पुरुष होते हैं, को पहचान सकें । इसलिये ये सदा ही भयभीत रहते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि साक्षात् परमप्रभु ही भिखारी या अतिथि के रूप में हमारी परीक्षा हेतु न आ जाय और हम परीक्षा में फेल हो जाय । इसलिये अतिथि सेवा को ये प्रभु-सेवा ही समझकर करते हैं । शरीर और सम्पत्ति या व्यक्ति और वस्तु प्रधान शारीरिक, पारिवारिक तथा सांसारिक होते हैं फिर भी अच्छी नीति, अच्छे आचरण, अच्छे व्यवहार-प्रद होते हैं । ये नैतिक कर्म की ही दोहाई देते हैं ।
सद्भावी नैतिक बन्धुगण चारों वर्ण रूप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र की मर्यादा पैदाइशी के आधार पर मानते हुये कठोरता के साथ निभाते हैं । बहुत बड़ी परेशनी, कठिनाइयों तथा कष्टों को झेल लेते हैं फिर भी अपनी शारीरिक या वंशगत छूआ-छूत का निर्वाह करते हैं । ये कट्टर जाति-वादी होते हैं । ये वर्णभेद को कायम रखने एवं उसका कठोरता से पालन करते तथा कराते रहते हैं । वर्ण भेद तथा जाति गत क्रिया-कलापों में इतने घुले होते हैं कि उससे बाहर निकालने का प्रयत्नकत्र्ता को यह मानना पड़ता है कि ये लगन या लगाव इसको कहते है । वास्तव में इनकी नीति-प्रियता, इनके नैतिक विचार, इनके नैतिक-भाव, इनके नैतिक-व्यवहार तथा इनके नैतिक कर्म इनके शारीरिकता, पारिवारिकता तथा सांसारिकता रूप कर्म बन्धन रूपी मोह-पाश ऐसा जकड़ देता है कि ये जीव-भाव से भी नीचे गिर कर पूर्णतः जढ़ता भी रूप जड़ शरीर ही हो जाते हैं । नैतिक बन्धुओं की ही देव आश्रम-व्यवस्था भी है । वास्तव में ये बन्धुगण जितने गहरे और जढ़ी किस्म के अविद्या अन्तर्गत अज्ञानी होते हैं उतने ही अपने-आप को ज्ञानी, पण्डित, आचार्य, विद्वान्, शिक्षित्, व्यवहारी तथा सत्कर्मी, कर्म का माहिर यानी कर्म-वेत्ता समझते हैं । ये बन्धुगण अविद्यान्तर्गत शिक्षा को ही विद्या मान बैठते हैं । इनका अन्तिम ज्ञान-कोष वेद-पुराण, रामायण, गीता, बाइबिल, र्कुआन, गुरुग्रन्थ साहब आदि आदि ही होता है तथा इनके अभीष्ट देव मूर्तियाँ तथा निराकार ब्रह्म ही होते हैं इनके गुरु या उपदेशक भी कानों में मन्त्र फूंकने तथा मात्र कर्म प्रधान एवं दान-दक्षिणा प्रधान शास्त्रीय पूजा-पाठ करने-कराने वाले ही होते हैं । वास्तविकता यह ही है कि ये गुरु और उपदेशक सामान्य जढि़यों एवं मूढ़ों को और ही जढ़ता एवं मूढ़ता में जकड़ देते हैं कि जब ये लोग घोर-जढ़ी एवं घोर-मूढ़ रहेंगे तभी इन लोगों की मर्यादा, इनका गुरुत्व तथा ये अपना महत्व भी ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के समान बन-बन कर कि ---
                गुरुब्र्रम्हा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः ।
                                गुरुः साक्षात् परमब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नमः ।।
अर्थात् गुरु ही ब्रह्मा, गुरु विष्णु तथा गुरुदेव रूप महेश्वर होता है । गुरु साक्षात् परमब्रह्म होता है इसलिये ऐसे गुरु को नमस्कार है । इतना ही नहीं तत्त्वज्ञानी सत्पुरुष रूप सद्गुरु तथा योगी-यति, ऋषि-महर्षि, ब्रह्मर्षि, प्राफेट-पैगम्बर तथा समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्मा रूप गुरुओं के समस्त व्यवहारों को वैसा ही अपने अनुयायियों से अपने प्रति कराने लगते हैं । जिस शिष्य को भ्रम या अनास्था होती है उनसे शास्त्रों के अन्तर्गत सद्गुरु और गुरुओं वाली बातें अपने पर लागू करके दिखलाते रहते हैं । उनके तत्त्वज्ञान तथा योग-साधना या आध्यात्मिक साधनाओं आदि को नहीं जनाते-दिखाते हैं क्योंकि वह तो जनायें-दिखाये हैं । मात्र जढ़ता वादी मन्त्रों को वह भी कान में फूंककर यदि ये उन पद्धतियों और विधानों को दिखला दें तथा तो उनकी असलियत का पर्दाफास ही हो जाय । परन्तु ये बन्धुगण इस मामले में मूढ़ नहीं होते हैं । दान-दक्षिणा, आदर-सत्कार तथा मान-सम्मान लेने में तो ये माहिर होते हैं भले ही ज्ञान तथा अध्यात्म के अन्धे ही हों तो क्या ? ऐसे के लिये है ---
                झूठा गुरु अजगर भया, लख चैरासी जाय ।
                                चेला सब चीटीं भये कि नोच-नोच के खाय ।।
सद्भावी बन्धुओें ! जबर्दस्त किस्म के मीठा-जहर होते हैं । ऐसे लोग आत्मा का तो विचारों से विरोध करते ही हैं ये परमात्मा को भी अवतारी रूप या शरीरी रूप में स्वीकार नहीं करते हैं । इनका नैतिक विचार, नैतिक भाव, नैतिक व्यवहार तथा नैतिक कर्म इन्हें ऐसा जढ़ एवं मूढ़ बना देता है कि ये तत्त्वज्ञान तथा योग-साधना या अध्यात्म को दिल से तो स्वीकार करते हैं परन्तु लोक-मर्यादा, लोक-प्रतिष्ठा रूप नैतिकता का जबर्दस्त अहंकार इनको अन्धा बना देता है । ऐसे बन्धु के लिये ही है ----
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयंधीरापण्डितम्मन्यमानाः ।
                                दन्द्रव्यामानापरियन्ति मूढ़ाः अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा ।।
मुण्डकोपनिषद् 1/2/8 तथा कठोपनिषद् 1/2/5 ।। की स्पष्ट उक्ति है ।
अर्थात् जब अन्धे मनुष्य को मार्ग दिखलाने वाला अन्धा भी अन्धा ही मिल जाता है तब जैसे वह अपने अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच पाता, बीच में ही ठोकरें खाता भटकता है । वैसे ही उन मूर्खों को भी पशु, पक्षी,कीट, पतंग आदि विभिन्न दुःखपूर्ण योनियों में एवं नरकादि में प्रवेश करके अनन्त यन्त्रणाओं का भोग करना पड़ता है, जो अपने आप को ही बुद्धिमान और विद्वान् समझते हैं, विद्या-बुद्धि को मिथ्याभिमान में शास्त्र और महापुरुषों के बचनों की कुछ भी परवाह न करके उनकी अवहेलना करते हैं और प्रत्यक्ष सुख रूप प्रतीत होने वाले भोगों का भोग करने में तथा उनके उपार्जन में ही निरन्तर संलग्न रहकर मनुष्य जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ नष्ट करते रहते हैं । मुण्डकोपनिषद् ।। 1/2/8।। तथा कठोपनिषद् !! 1/2/5 ।। यह हरिकृष्णदास गोयन्दका की व्याख्या है ।

अर्थात् अविद्या रूप अज्ञान में रहते हुये भी शिक्षा के अभिमान में अपने-आप को पण्डित् या विद्वान् तथा बुद्धिमान मानने वाले गुरु या उपदेशक मूढ़ों को वैसे ही उपदेशित करते हैं या उपदेशों को देते हुये समाज में ले चलते हैं जैसे एक अन्धा अन्य अन्धों को मार्ग या रास्ता दिखलाना, विरोधी गुण है जो अभीष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकता है । इसलिये बहुत ही सावधानी के साथ योगी या आध्यात्मिक को ही गुरु तथा मुक्ति और अमरता की आवश्यकता हो तो तात्त्विक अवतारी रूप सद्गुरु ही करना चाहिये । झूठे गुरुओं से गुरुमुख होने से निगुरा अच्छा है । 

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