वर्णाश्रम व्यवस्था
सद्भावी बन्धुओं ! आइये अब आश्रम या
वर्णाश्रम-व्यवस्था तरफ चला जाय और जाना देखा जाय कि इसकी यथार्थता क्या है ?
इसका
महत्व कैसा है तथा इसका विधान क्या है ? वर्णाश्रम व्यवस्था सिद्धान्ततः तो
बहुत ही अच्छा है परन्तु इसमें अहंकारिता ऐसे घर कर जात है तथा जढ़ता और मूढ़ता
ऐसी बढ़ जाती है तथा जढ़ता और मूढ़ता की जड़ इतनी गहरी तक चली जाती है कि मनुष्य
को साफ अन्धा बना देती है । अन्धा तो अन्धा होता ही है आँख रहते अन्धापन का यह एक
प्रभावी विधान होता है । यह जितना ही जढ़ता और मूढ़ता रूप आँख रहते अन्धेपन का
विधान है उतना ही भेद-भाव तथा छूत-अछूत रूप घृणित विधान भी है । इतना ही नहीं यही
एक विधान है जिससे भेद-भाव एवं डाह, द्वेष रूप घृणा का भाव उत्पन्न करता है
। इतना ही नहीं इसकी यथार्थ व्यवहारिकता न कभी रही है, न है और न होगी ही
। मेरे दृष्टि में तो वर्ण व्यवस्था एवं वर्णाश्रम व्यवस्था समाज का एक जबर्दस्त
कलंक रूप है समाज विनाश हेतु एक बहुत ही अच्छे किस्म का प्रभावकारी मीठा-जहर है जो
खाने में जितना ही अच्छा लगता है बर्बाद करने या विनाश करने या आत्म-कल्याण रूप
मुक्ति और अमरता के मार्ग रूप ज्ञान तथा शान्ति और आनन्द रूप जीव कल्याण रूप
आत्म-भाव को समूल समाप्त कर आवागमन-चक्र में फंसाने वाला एक लोकप्रिय सर्वोच्च
विधान है जिससे बचने की बात तो दूर है, बचने या भवसागर से मुक्त होने की
कल्पना भी नहीं की जा सकती है । यह भोग के समय तो क्षणिक रूप में अमृत के समान ही
आभासित लगेगा परन्तु विनाश के रूप कुश के जड़ में मट्ठा होता है । वर्णाश्रम
व्यवस्था के बहुत बड़ा प्रभावकारी एक सामाजिक दोष है । जो समाज को विनाश के कगार
पर पहुँचाकर ही दम लेता है । इसी का परिणाम सतयुग का देवासुर संग्राम, त्रेतायुग
का श्रीराम-रावण युद्ध तथा द्वापर युग का महाभारत है । आज की व्यवस्था तो इस स्तर
तक पहुँच गयी है जो महा-विश्व, महा-विश्व की रट लगाये हुये दिखलायी दे
रही है । जो अधिकाधिक रूप मंे सम्भव जैसा ही दिखलायी दे रही है । हर व्यक्ति और
वस्तु ही दूषित हो गयी है । चारो तरफ देखने पर एक भी सत्य-भाषी एवं सदाचारी नहीं
मिल रहा है वास्तविक रूप में एक भी भगवद् प्रेमी, भगवद्-भक्त
परमात्मा का अनन्य सेवक एवं अनन्य भक्त तथा परमात्मा हेतु भी एक भी अनन्य भगवद्
प्रेमी कहीं भी मिलना असम्भव सा लग रहा है । चारो तरफ ही मिथ्याभाषी, मिथ्याचारी,
भगवद्
द्रोही तथा परमात्मा तो परमात्मा है आत्मा के विधानों पर भी यथार्थतः चलने वाला
मिलना तो दूर रहा दिखलायी भी नहीं दे रहा है जो बिना विचार के ही अनन्य भगवद्
प्रेमी हो या अनन्य भगवद्-भक्त हो या अनन्य भगवद् सेवक हो । सब के सब ही
मिथ्याभाषी, मिथ्याचारी, कपटी, धूर्त
एवं सन्देहास्पद दिखलायी दे रहे हैं । हमारी स्थिति और परिस्थिति तो उस स्तर तक
पहुँच रही है कि महा-विश्व भी हो ही जाय, विश्व विनाशक रूप महाविश्व ही
सत्पुरुषों की रक्षा-व्यवस्था हेतु आवश्यकता महशूस हो रही है जिसमें भगवद् प्रेमी,
अनन्य
सेवक तथा अनन्य भगवद् भक्त ही बचे रहें भले ही पुनः उन्हीं द्वारा नयी सृष्टि और
नयी व्यवस्था करना पड़े ।
सद्भावी बन्धुओं ! वर्णाश्रम व्यवस्था मात्र
पढ़ने-पढ़ाने हेतु ही है व्यवहार हेतु नहीं, क्योंकि आदि काल
से ही वर्तमान काल तक कभी भी इसकी व्यावहारिक सफलता नहीं दिखलायी दे रही है फिर
आगे या भविष्य में यह सफल होगी, कैसे स्वीकार कर लिया जाय । बन्धुओं
थोड़ा सा भी विचार करके भी तो देखें कि जो व्यक्ति अपने जीवन का एक चैथायी यानी
पच्चीस वर्ष विद्याध्ययन के स्थान पर शिक्षाध्ययन पद्धति में जो जढ़ता एवं मूढ़ता
रूप कर्म-प्रधान होता है, में लगाये तत्पश्चात् एक चैथायी उम्र
यानी पच्चीस से पचास वर्ष क गृहस्थाश्रम अर्थात् शरीर और सम्पत्ति या व्यक्ति और
वस्तु या कामिनी और कांचन प्रधान शारीरिक, पारिवारिक एवं सांसारिक रूप में लगाये
या बर्बाद करें तत्पश्चात् एक चैथायी उम्र यानी पचास से पचहत्तर वर्ष की अवस्था तक
वानप्रस्थ या धार्मिक भावों (नैतिकता ही इनका धार्मिक भाव होता है), नैतिक
रूपी धार्मिक विचार, नैतिकता रूपी व्यवहार तथा नैतिकता रूपी
धार्मिक-कर्म का अभ्यास मनन-चिन्तन एवं निदिध्यासन को शास्त्रीय आधार पर
करते-कराते हुये गृहस्थ रूप में जीवन-व्यतीत करते हुये व्यतीत करना, वानप्रस्थ
जीवन है, रूप में लगाना; तत्पश्चात् अन्त में सन्यास आश्रम यानी
आत्म-कल्याण हेतु मुक्ति और अमरता हेतु प्रयत्न करना तथा पूर्णतः शारीरिकता,
पारिवारिकता
एवं सांसारिकता का त्याग करके परमप्रभु या परमब्रह्म या परमेश्वर या अल्लातआला या
परमात्मा की प्राप्ति हेतु खोज करना आदि सन्यास आश्रम में व्यतीत करना ।
सद्भावी बन्धुओं ! सद्भावी बन्धुओं ! वर्णाश्रम
व्यवस्था पर थोड़ा भी गौर किया जाय या ध्यान दिया जाय तो स्पष्टतः समझ में आ जोयगा
कि जो व्यक्ति तीनपन आयु या पचहत्तर वर्ष की आयु गृहस्थ जीवन में व्यतीत कर देगा,
वह
पचहत्तर वर्ष के पश्चात् जब सभी इन्द्रियाँ क्रिया शून्य अथवा शैथिलय हो जाने पर
सन्यास-धर्म या सन्यास आश्रम का पालन वह भी जंगल में अकेला जाकर कैसे कर पायेगा,
वह
परमात्मा या परमप्रभु की तलाश कैसे करेगा । उसे तो शारीरिक कमजोरियाँ, अन्न-जल
आदि की तृष्ण तथा पारिवातिरकता एवं सांसारिकता आदि की आसक्ति, ममता-मोह
आदि कैसे छोड़ सकता है अर्थात् कदापि नहीं छूट सकता है बजाय परमात्मा के खोज के
उनको तो उनके अपने परिवार आदि के ममता-मोह और तृष्णा ही सताकर मार डालेगी। कौन ऐसा
किया है तथा किया भी तो सफल कौन हुआ ? कोई नहीं । इस प्रकार कोई ऐसा विधान जो
मात्र सिद्धान्त रूप में शास्त्रों में पड़ा रहे या पढ़ने-लिखने वाले के दिमाग में
पड़ा रहे उसकी कोई उपयोगिता न हो या कोई व्यावहारिकता न हो उस सिद्धान्त से क्या
लाभ ?
बन्धुओं हमारे दृष्टि में तो जितने भी सत्पुरुष
अवतारी तथा आध्यात्मिक महापुरुषों के रूप में धर्मोंपदेशक एवं धर्म-प्रचारक हैं
सभी पहले और दूसरे ही पन के हैं तीसरे पन की तो बात ही नहीं है चैथे की बात कहाँ
ये किया जाय । आदि काल से वर्तमान तक के
सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, नारद, श्रीरामचन्द्रजी,
अष्टावक्र,
शुकदेव
जी, धु्रव, प्रह्लाद, नचिकेता,
सत्यकाम,
हनूमान,
श्रीकृष्णचन्द्रजी
महाराज, गौतम बुद्ध, आद्यशंकराचार्य, नानकदेव,
जैन
महावीर, ईशुमसीह, मुहम्मद साहब, रामकृष्ण परमहंस
तथा स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ जी आदि तथा समस्त वर्तमान
कालिक महात्माओं को देखने से अधिकाधिक संख्या में प्रथम वयस तथा शेष सभी द्वितीय
वयस के ही होंगे, तीसरे वयस के तो शायद तलाश करने पर भी नहीं
मिलेंगे । फिर चैथे वयस की बात ही कहाँ उठती है अर्थात् कहीं नहीं, कदापि
कहीं नहीं । चैथेपन में धर्म का कार्य प्रारम्भ या सन्यास को सफलता की बात करना
पूर्णतः अव्यावहारिकता तथा मूढ़ता की बात है । अब तक तो हम लोगों ने रजोगुण प्रधान
या नीति प्रधान बन्धुओं को देखा अब आइये रजोगुण प्रधान बन्धुओं को जाना-देखा जाय ।
सद्भावी रजोगुणी बन्धुओं ! नीति और अनीति
मिश्रित कर्म ही रजोगुण प्रधान कर्म कहलाता है । सतोगुणप्रधान व्यक्ति तो देव जैसा
दिव्य व्यक्तित्व वाला होता है और रजोगुण प्रधान व्यक्ति मानव के गुणों से युक्त
होता है । सतोगुण तो आभासित सुख प्रधान होता है परन्तु रजोगुण काम (इच्छा) प्रधान
होता है । नीति या गुण और अनीति या दोष यानी गुण-दोष से युक्त अथवा रजोगुणाी
व्यक्ति के विचार में सदा ही दोहरी-बुद्धि या दोहरा विचार होता रहता है । जैसे--
जब अच्छे कार्य करने की बात आती है तो अनीति उसमें अनेक परेशानियों, अनेक
कठिनाइयों, बहुत से कष्टों तथा विद्या-बाधाओं आदि अनेकों
तरह के विचार उत्पन्न कर-करा देती है जिससे अधिकाधिक व्यक्ति तो इसी भय से चाहते
हुये भी अच्छे कार्य या नीति प्रधान कार्य या गुण-प्रधान कार्य नहीं कर पाते हैं
जिनमें जिसकी नीति-अनीति अथवा गुण-दोष में से अधिकता या प्रभाव रहता है उनसे वैसा
ही कर्म वह नीति-अनीति कर-करवा लेती है । नीति अच्छे कार्यों को करा लेती है तो
अनीति बुराई उत्प्रेरित करके बुरे कर्मों को करा लेती है। बन्धुओं रजोगुणी प्रधान
व्यक्ति पर संग या सहयोगी का विशेष असर या प्रभाव पड़ता है । यह प्रभाव सतोगुणी और
तमोगुणी पर उतना नहीं पड़ता है जितना कि रजोगुणी पर पड़ता है । एक तरह से कहा जाय
तो रजोगुणी संग-प्रधान होता है । वास्तविकता तो यह है कि सतोगुणी व्यक्ति में
सत्त्वगुण इतना गहरा होता है कि रजोगुणी तो रजोगुणी है उसका तमोगुणी लोग भी कुछ
बिगाड़ नहीं सकते हैं उन्हें तंग या कष्ट जितना पहुँचा देंवे । ठीक उसी प्रकार
तमोगुणी की भी हाल है कि रजोगुणी तो रजोगुणी है, सतोगुणी भी लाख
सिर पटककर हार जाय तो क्या, परन्तु उस पर कोई असर या प्रभाव नहीं
पड़ता है । परन्तु अब देखिये रजोगुणी की हाल --- रजोगुणी की अपनी कोई महत्वपूर्ण
स्थिति नहीं होती है । ये संग-प्रधान या सहयोगी प्रधान होते है। यदि इनका साथ
सतोगुणी से हो गया तो सतोगुणी अथवा तमोगुणी से हो गया तो तमोगुणी हो जाते हैं ।
इतना ही नहीं यदि ये साधक या योगी या आध्यात्मिक के सम्पर्क में पड़ जाते हैं तो
साधक-योगी या आध्यात्मिक भी बन जाते हैं । इससे भी आगे यदि तत्त्वज्ञान की बात
सुने जानेंगे तो उधर भी जायेंगे और यदि सम्पर्क जारी रहा तो ये ज्ञानी भी बन जाते
हैं । ऐसे बन्धुओं के लिये ये उक्तियाँ कि -----
संगत
से गुण उपजै कि संगत के गुण जाय ।
बांस-फांस
अरु मिश्री; एकै
भाव बिकाय ।।
ठीक ऐसे ही है कि ----
‘संसर्गजा दोष गुणाः भवन्ति ।’
पुनः ऐसे ही है कि ---
‘सत्संगति
कथय किं न करोति पुसाम् ।’
बन्धुओं ! ऐसा ही एक उक्ति देखें कि ----
‘सोहबते
असर ।’
यानी इन सभी कथनों से स्पष्ट हो रहा है कि ‘संग’
का
प्रभाव बहुत ही महत्वपूर्ण होता है । संग में इतनी ताकत होती है कि यदि वह ऊँचा
रहा, तो आप को अपने समान ऊँचा और नीची रहा, तो अपने समान
नीचा बना ही डालेगा । इसमें सन्देह की तो थोड़ी भी गुंजाइश ही नहीं होती । बन्धुओं
। चोरों का संग चोर, सज्जनों का संग सज्जन; नेता का संग
नेता; अधिकारियों का संग अधिकारी; क्रान्तिकारियों का संग क्रान्तिकारी;
हिजड़ों
का संग हिजड़ा; लोभी का संग लोभी, कामी का संग
कामी, सांसारिक का संग सांसारिक, आध्यात्मिक का संग आध्यात्मिक तथा
अन्ततः तत्त्वज्ञानी का संग तत्त्वज्ञानी बनाये छोड़ता नहीं है । अधमों का संग अधम
तथा महापुरुषों का संग महापुरुष बनाये बिना छोड़ता नहीं । बन्धुओं कहीं
जन्म-जन्मान्तरों का संस्कार तथा परमप्रभु की
विशेष कृपा का पात्र होकर उस समय मानव तन यानी मनुष्य की शरीर पा गये जिस समय कि
परमप्रभु स्वयं साक्षात् भू-मण्डल पर अवतार ग्रहण कर एक सामान्य मनुष्य की तरह से
विचरण या भ्रमण कर रहे हों । उस समय मानव तन या मनुष्य शरीर वाले बन्धु उस अवतारी
सत्पुरुष के सम्पर्क में आये और रह गये तब तो समझिये कि कोटि-कोटि जन्मों का
संस्कार तथा भगवत् कृपा दोनों एक साथ होकर उस व्यक्ति के सुधार और उद्धार में लग
गये हैं फिर क्या पूछना, अरे क्या कहना है ? कौन
उस भाग्य का वर्णन कर सकता है क्योंकि वर्तमान में महानीच, अधमाध, पापी,
जढ़
आदमी भी पूजनीय बन जाते हैं और विरोध करने वाले या बनने वाले पण्डित, आचार्य,
विद्वान्
अहंकारी असुर और राक्षस बन जाते हैं । उदाहरण हेतु केवट, जटायू, सेवरी,
हनुमान,
कुब्जा,
अजामिल,
और
रावण ।
सद्भावी बन्धुओं ! इन प्रकरणों को देखकर हम-आप
सभी बन्धुओं पर आधारित है कि किस प्रकार का संग करते हैं । शरीर का कोई दोष नहीं
होता, दोष तो हमारे आपके विचार और संग का होता है जिससे कोई गिरता है ।
दोहरे विचार यानी नीति-अनीति या गुण-दोष या सुविचार-कुविचार दोनों से युक्त
व्यक्ति को सीधे एक लक्ष्य पुरुष जो सत्पुरुष हो और यदि सत्पुरुष न हो, तो
किसी आध्यात्मिक महापुरुषों की तलाश या खोजकर उसी का संग मुसल्लम ईमान तथा
तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान रूपी सत्य-धर्म की स्थापना एवं प्रचार-प्रसार हेतु ‘सर्वतोभावेन’
समर्पण
बुद्धि से उस सत्पुरुष रूप अवतारी के आश्रय में अन्योन्याश्रय रूप में रहना चाहिये
। सत्पुरुष रूप अवतारी के भू-मण्डल पर अवतरण के पूर्व या उसके अपने स्वधाम रूपी
परमधाम में वापस होने के पश्चात् आध्यात्मिक महापुरुषों जो भगवद्-भक्ति से युक्त
हों के सम्पर्क में भगवद्-अर्पण बुद्धि से निष्काम कर्म करते हुये दोष-रहित
जीवन-यापन करना चाहिये । ऐसा न हो सकने
पर या किसी परिस्थिति वश भी सर्वप्रथम तो निष्काम-कर्म के साथ ही दोष-रहित जीवन
बीताना चाहिये; यानी हर प्रयत्नों से भी जब ऐसा न हो सके । तब
अनिवार्यतः किसी आध्यात्मिक महापुरुष के आश्रय में रहकर ईमान के साथ ‘प्रत्याहार’
के
विधान को पूर्णतः स्वीकार करते हुये योगाभ्यास या साधनाभ्यास निरन्तर करते रहना
चाहिये ताकि नहीं मुक्ति और अमरता रूप लोक और परमलोक मिले, तो कम से कम लोक
में भी शान्ति और आनन्द तो मिले । यदि ऐसा नहीं हो पाया । ऐसा भाग्य में नहीं ही
साथ दिया, तो कम से कम यह तो अवश्य ही सोच-विचार कर लेना चाहिये कि अभागा या
अधम न बन सकें । इसके लिये भी अत्यावश्यक है कि किसी सात्त्विक पुरुष का संग करे
और नैतिक विचारों, नैतिक-भावों, नैतिक-व्यवहारों
तथा नैतिक कर्मों में ही अपने तन-मन तत्पश्चात् धन को भी समर्पित भाव से हरिश्चन्द्र,
रघु,
शिवि,
दधिचि,
कर्ण
आदि के तरह निष्कपट एवं निश्चल भाव से जीवन-यापन करना चाहिये । यदि ऐसा नहीं हुआ
तो इसमें सन्देह नहीं है कि वह रजोगुणी अथवा गुण-दोष से युक्त नीति-अनीति मिश्रित
दोहरा व्यक्ति अधम, नीच, पापी, कुकर्मी बने
बिना बच नहीं सकता है क्योंकि रजोगुणी की अपनी कोई क्षमता ही नहीं कि वह संसार में
अपनी मति-गति से जीवन-यापन कर ले । अर्थात् बिना किसी संग या सहयोगी विशेष के अपना
क्रिया-कलाप अपने द्वारा कर-करा लेवे । रजोगुणी की यही स्थिति है ।
सद्भावी बन्धुओं ! प्रत्येक व्यक्ति स्वतः ही
अपने आप अपना सर्वोत्तम निरीक्षण एवं परीक्षक होता है । इसलिये हर दोहरे विचार
वाले व्यक्ति को चाहिये कि एकहरा या एकलक्ष्य बन या हो जाय । यदि ऐसा नहीं हुआ तो
समझिये कि वह तमोगुणी से भी खतरनाक होता है । वह सीधे हिजड़ा कहलाने के योग्य होता
है । वह जाता तो सब तरफ है परन्तु टीकता कहीं नहीं । परीक्षा में सभी स्थानों पर
ही उसे फेल या असफल होना पड़ता है । ये प्रारम्भ में तो विशेषभाव, विशेष
विचार, विशेष-त्याग तथा विशेष कर्मठता दिखलाते हैं परन्तु भीतर-ही-भीतर ये
विचारों में दूषित-भावनाओं को भरे रहते हैं जो अनुकूल परिस्थिति तक तो कोई बात
नहीं रहती परन्तु परीक्षा रूप भी प्रतिकूल परिस्थिति आने पर इनका वह दूषित भाव
इनकी अपने यथार्थता स्थिति में दिखती है ।
बन्धुओं रजोगुणी जीवन एक तरह का हिजड़ा जीवन,
दोगला-जीवन,
मानसिकता रूप में कलह-पूर्ण तथा बाहरी दिखावा हेतु मात्र
ही थोड़ा-बहुत खुशिहाली भले हो ले, ऐसा ही होता है । इनका शुरुआत तो बहुत
ही अच्छे किस् म का परन्तु अन्त उतने ही बुरे किस्म का अधम किस्म का होता है । ये
जहाँ जाते हैं अपने दोहरे-विचारों और भावों तथा दोहरे-कर्मों जैसा उस सत्पुरुष,
योगी
महापुरुषों तथा नैतिक-पुरुषों को भी अपने अनुसार चलाना चाहते हैं, जब
तक अनुकूलता या सत् का अंश उनमें होता या रहता है तब तक तो तात्त्विक सत्पुरुष एवं
आध्यात्मिक महापुरुषों तथा नैतिक पुरुषों के साथ यथासमय यथागुण यथाकर्म रहतें हैं
परन्तु यथार्थ या वास्तविक स्थान ग्रहण या प्राप्त होने हेतु परीक्षण में वह सफल
नहीं हो पाता है, कदापि सफल नहीं हो पाता। इतना ही नहीं अपने
द्वारा पूर्व में किये गये सत्कर्मों, त्यागों, परिश्रम तथा
प्राप्त महत्वपूर्ण स्थानों को याद-कर करके कलहपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगता है ।
शरीर छोड़ने के पश्चात् वाला नरक तो अभी-अभी अलग ही रहता है वे यहीं सशरीर
भू-मण्डल पर ही नारकीय जीवन, कलहपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं । ये
सदा स्वयं को कोसते रहते हैं कि हम न तो उधर के हुये न इधर के रहे । इनकी जो
सामाजिक स्थिति रहती है वह भी गिर जाती है । इनका सामाजिक स्तर भी गिर जाता है ।
वास्तव में ये अच्छे समाजों में मुँह दिखाने के लायक भी नहीं रह पाते हैं । इनका
शेष जीवन कुत्सित एवं पूर्णतः नारकीय हो जाता है ।
सद्भावी बन्धुओं ! अब तक तो हम लोगों ने
सतोगुणी और रजोगुणी विधान-व्यवहार देखा । आइये अब थोड़ा तमोगुणी गति-विधि भी देखी
जाय । तमगुणी शब्द तम और गुणी रूप दो शब्द है जिसमें तम का अर्थ अन्धकार और गुणी
का अर्थ गुणवाला होता है । यहाँ पर अन्धकार का भाव अज्ञान या अविद्या से है । इस
प्रकार अज्ञान या अविद्या के अन्तर्गत अविद्या जटिल संसार में जकड़े रहने के कारण
अनीति के प्रत्यक्ष मूर्ति होते हैं । अन्धकार गुण वाले होने के कारण निशाचर भी
कहलाते हैं । इनका सारी गति-विधि देव-गुण रूप सतोगुण के ठीक प्रतिकूल तमोगुण
प्रधान होने के कारण दानव या असुर या राक्षस स्वभाव के होते हैं । निशाचर दानव या
असुर या राक्षस कोई सींग या पूँछ वाला जानवर नहीं होते हैं बल्कि यही तमोगुणी ही
दानव या निशाचर या असुर या राक्षस आदि कहलाते हैं । इनका आहार-विहार रहन -सहन एवं
सारी गति-विधि ही आसुरी और राक्षसी की होती है। मांस-भक्षण, मदिरा-पान,
चोरी,
डकैती,
लूट-पाट,
राहजनी,
आगजनी,
अपहरण,
व्यभिचार,
अत्याचार,
जुआ
एवं बेटी-बहुओं , माँ-बहनों पर गलत दृष्टि, जोर-जुल्म
तथा समस्त भ्रष्टाचारों का उद्गम श्रोत, रक्षण-व्यवस्था रूप घुसखोरी रूप
अनीतिपूर्ण ये समस्त कार्य ही निशाचरी, दानवी, आसुरी एवं
राक्षसी आदि वृत्ति एवं कर्म कहलाते हैं और है भी । तमोगुण ठीक सतोगुण का विरोधी
गुण होता है । रजोगुण तो इन दोनों का संयुक्त रूप अर्थात् न इधर, न
उधर, दोनों और किसी का भी नहीं यानी रजोगुणी का इन दोनों से पृथक् अपना
कोई मूलतः अस्तित्त्व ही नहीं होता है । रजोगुणी कपट एवं धोखा के मूर्ति होते हैं
। इनसे दोनों वर्गों को परेशानी और कष्ट होता है तथा दोनों के कष्टों के योग से भी
अधिक कष्टी अपने ही दूषित दोहरी व्यवहार से ये स्वयं रहते हैं । तमोगुण एक प्रकार
से वृथा आशा, वृथा कर्म एवं वृथा ज्ञान से विक्षिप्त चित्त
तथा आसुरी और राक्षसी गुण वाले अत्याचारी एवं दुष्ट तथा भ्रष्टाचारी किस्म के,
ममता-मोह
में जकड़े हुये इस असार संसार को सब कुछ मानते समझते हुये समस्त कष्टों को भुगतने
वाले का गुण है । ये अनीति के साक्षात् मूर्ति होते हैं दूषित-विचार, दूषित-भाव,
दूषित-व्यवहार,
दूषित-कर्म,
दूषित
आहार-विहार ही इनकी गति-विधि होती है ।
तमोगुणी बन्धु जबर्दस्त किस्म के शरीराभिमानी
होते हैं । शरीर और सम्पत्ति ही इनकी मूल निधि है इतना ही नहीं, ये
सम्पत्ति के सामने शरीर की भी कीमत नहीं समझते हैं । शरीर की महत्ता सम्पत्ति के
समक्ष इनके दृष्टिकोण में कुछ नहीं है । युग-परिवर्तन के बेला में तो जिधर देखिये
उधर ही ये छाये रहते हैं । अपने शरीर को ये सम्पत्ति हेतु सदा कष्ट देते, दिलाते
तथा बर्बाद और समाप्त भी कर दिया करते हैं आज-कल तो युग-परिवर्तन (कलियुग से
सतयुग) का बेला है जिधर देखिये उधर ये नजर आ रहे हैं और सामान्य तरीके में वही
प्रभावी रूप में नजर आ रहे हैं । ये सम्पत्ति, वह भी मांस
मदिरा तथा ऐश-आराम हेतु ही अपना सर्वस्व न्यौछावर करते-कराते रहते हैं । चोर-डाकू,
लूटेरा
आदि सब इसी श्रेणी के होते हैं । ये घोर जढ़ी, घोर लोभी,
घोर
कामी, घोर क्रोधी तथा घोर शरीराभिमानी, धनाभिमानी एवं
जोर-जुल्मी होते हैं । युग-परिवर्तन के बेला में शासन-प्रशासन की बागडोर पूर्णतः
इनके हाथों में आ जाती है जिसका परिणाम है विश्व-विनाश । सत्पुरुषों का वास ।
सत्पुरुषों का शासन तथा सत्पुरुषों का ही पूरा प्रशासन । परन्तु इसके लिये
सत्पुरुषों और महापुरुषों को बहुत परेशानी, बहुत कष्ट,
अत्यधिक
ताड़ना-प्रताड़ना झेलना तथा गहन संघर्षों से गुजरते हुये लक्ष्य को प्राप्त करना
होगा । तमोगुणी या दानवी, आसुरी एवं राक्षसी व्यवहारों से त्रस्त
हो-होकर सज्जन, ऋषि-महर्षि, ब्रह्मर्षि तक
जंगल वास ले लिये थे । इतना ही नहीं, इन्हीं संघर्ष की प्रक्रियाओं में
परमब्रह्म के पूर्णावतार रूप श्रीरामचन्द्रजी महाराज एवं श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज
को भी चैदह साल तथा अनेकों वर्षों तक जंगल-जीवन व्यतीत करना पड़ा था तथा उसी
जंगल-जीवन के बीच दुष्टों का, दानवों का, आसुरों का तथा
राक्षसों का नाश-विनाश रूप सफाया करना-कराना तथा निर्दोष एवं निरपराधी बन्धुओं से
मिलन-जुलन एवं दरश-परश का कार्य करना पड़ा था । वर्तमान में चूँकि जंगल तो है नहीं,
है
भी तो बदमाश इन सरकारों का मारीचि, सुबाहु, ताड़का, सुर्पणखा
जैसे कब्जा कर लिया गया था पुनः कर लिया गया है । उस समय का जो जंगल था वही आज का
जेल है । अन्तर ये है कि उस समय राजतन्त्र था जो सत्पुरुषों को अपराधी घोषित कर
जंगल में भेज दिया जाता था परन्तु आज लोकतन्त्र के नाम पर सारे विश्व में
भ्रष्ट-तन्त्र का शासन-प्रशासन है जो भ्रष्टचार में इतना अन्धा हो गया है कि
रक्षा-व्यवस्था भी जेल-जीवन में वही सबकुछ कर-करा रहे हैं । उस समय का जंगल का
जीवन ही आज का जेल जीवन है । वह असुरक्षित एवं अव्यवस्थित था तो आज कुछ-कुछ मामले
में उससे तो बहुत ही सुरक्षित एवं व्यवस्थित भी है । तमोगुणी शासक-प्रशासक है
इसलिये ही ऐसी व्यवस्था है क्योंकि वे सब भी इसी जेल में पनपते और विकास करके समाज
में गये होते हैं तथा उनको यह भी सदा भय बना रहता है कि पुनः हमें न जेल जाना पड़े
। ये शौकियन हड़ताल तथा जुलूस आदि कर-करा कर भीतर आते रहते हैं जो जितना अधिक बार
जेल यात्रा किया होता है वह वैसा ही यानी उतना ही प्रभावशाली नेता माना जा रहा है
भला ऐसी स्थिति-परिस्थिति में परमेश्वर या परमब्रह्म या परमात्मा या भगवान् ही
बेवकूफ है कि बाहर अशान्त एवं अव्यवस्थित स्थिति-परिस्थिति में रह-रहकर कार्य करे
। इसलिये भगवान् भी जेल-जीवन से ही लग रहा है कि कुछ समयों तक कार्य करके बाहर
देखता है । पुनः भीतर होकर कार्य करता-कराता है । पुनः बाहर निकलकर
निरीक्षण-परीक्षण करता रहता है ।
प्राचीन व्यवस्था में अपराध साबित होने के
पश्चात् प्रजा को जेल या राज्य निष्कासन यानी जंगल-जीवन दिया जाता था परन्तु आज
अधिकाधिक संख्या में अच्छे एवं सज्जन किस्म को जो पुलिस को घुस नहीं देते एवं
पुलिस को नाजायज तरीके से खुश नहीं रखते तो उन्हें दोषी अपराधी बना-बना कर झूठ-मूठ
में जेल भेजा जाता है तथा बदमाशों और डाकूओं से कमीशन लेकर रक्षण-व्यवस्था दी जाती
है । आज के कामिनी-कांचन के भूखे भेडि़या रूप रक्षक ही सज्जन एवं साधु किस्म के
व्यक्तियों पर मेमना के तरह से झपटकर खाते हुये भक्षक हो गये हैं । यानी भूखे भेडि़या
रूप भक्षक ही मेमनों रूप सज्जनों के रक्षक बने हैं; बाघ, चीता,
शेर
आदि मेमनों का जज या न्यायकत्र्ता बने हुये हैं । क्योंकि वास्तविकता तो यह है कि
किसी भी व्यक्ति को बिना उसका अपराध साबित (स्वच्छता रूपी निरीक्षण-परीक्षण के
साथ) हुये जेल भेजा ही न जाय परन्तु जो स्वतः ही शौकियन जेल जाते रहते हैं वे
प्रशासन-शासन किस रूप में करेंगे । वे
तो बी0 क्लास बन कर अपनी सुनिश्चित योजनायें बनाते हैं तो क्या भगवान् या
भगवान् का पूर्णावतार रूप अवतारी ही बेवकूफ है कि अपना दुष्ट-दलन रूप योजना तथा
उसका कार्यरूप देना बाहर में असुरक्षित एवं अव्यवस्थित रहकर करे, वह
भी जेल से ही करे, ऐसा ही होना चाहिये और लग भी रहा है कि हो भी
रहा है । इसलिये बन्धुओं भगवान् क्या करता है, क्या खाता है,
कैसे
रहता है आदि आदि पर झूठे माथा-पच्ची क्यों कर रहे हैं ? भगवान् के विषय
में विश्व का समस्त सद्ग्रन्थ खुले रूप में स्पष्टतः दिखला रहे हैं कि भगवान् का
मुख्यतः दो कार्य होता है --- सत्य-धर्म की संस्थापना तथा दुष्टों का दलन एवं
सत्पुरुषों का राज्य या समस्त दूषित-विचारों, दूषित-भावों,
दूषित-व्यवहारों,
दूषित कर्मों तथा दूषित आहार-विहार के स्थान पर ‘दोष-रहित’
यानी
‘निर्दोष जीवन-पद्धति’ से सबको युक्त करके ले चलना । परन्तु
तमोगुणी या दानवी या आसुरी एवं राक्षसी वृत्ति वाले तो खुलकर विरोध एवं संघर्ष
करते हुये पतिंगों की तरह रौशनी में जल कर खाक यानी विनाश को प्राप्त होंगे तथा
सज्जन पुरुष उसका शरणागत कबूल या स्वीकार करके मुक्ति और अमरता का परमानन्द या
सच्चिदानन्द को प्राप्त होकर परमशान्ति, परम कल्याण रूप परमपद को प्राप्त होते
हैं । इन कार्यों को ही भगवान् या भगवान् का साक्षात् अवतार को पूरा करना होता है
। अब वे (भगवान्) इस कार्य का लक्ष्य को कैसे पूरा करेंगे, कैसे रहेंगे,
क्या
खायेंगे आदि आदि भगवान् का सम्पूर्ण विधान मात्र भगवान् तथा उनमें अनन्य प्रेम,
अनन्य
सेवा, अनन्य भक्ति वाले सत्पुरुष रूप भगवद्प्रेमी आदि ही जानते हैं जिसमें
भगवान् तो पूरा-पूरा कर उसका प्रेमी-सेवक-भक्त कुछ-कुछ जानते हैं । शेष संसार सृष्टि
के लोग लाख सिर पटकेंगे । पहले कुछ नहीं जान पायेंगे । जैसे-जैसे होता जायेगा
वैसे-वैसे देखते जायेंगे तत्पश्चात् उसी के अनुसार जानते और पहचानते जायेंगे फिर
स्वीकार करना या उनको भगवान् मानना यह तो चन्द-समय का खेल है । दुष्टजन लाख छटपटाय,
लाख
सिर धुनें परन्तु रावण, बालि, मारिचि, ताड़का, सुर्पणखा,
खर-दूषण
आदि के तरह से ‘दुष्ट-दलन प्रक्रिया’ से समाप्त नहीं
होते हैं तब तक न तो जानने, देखने और समझने पहचानने की कोशिश करते
हैं और न जान-पहचान पाते हैं । ये तो पतिंगों की तरह टकराते रहते हैं और रोशनी में
जल-जल कर खाक होते रहते हैं । जबकि इन्हें चाहिये कि किसी भी विषय-वस्तु या
सत्ता-शक्ति से सम्बन्धित जानकारियों को जानते-जनाते, तर्क-वितर्क
करते शास्त्री या सद्ग्रन्थों से प्रमाणित करते-कराते हुये स्पष्टतः परमात्मा या भगवान् या सर्वोच्च सत्ता-शक्ति को जानते,
देखते
एवं यथार्थतः उसके तात्त्विकता रूप रहस्यों के साथ जानते, पहचानते
तत्पश्चात् जैसा व्यवहार करना उचित होता करते । परन्तु ऐसा तो करेंगे नहीं ।
शान्तिमय एवं स्पष्टतः प्रमाणों के साथ तो जानंे-जनायेंगे नहीं । सीधे बिना
समझे-बूझे गलत एवं मनमाना तरीकों को अपना-अपना कर विरोध करेंगे, संघर्ष
करेंगे, परेशान करेंगे और होंगे । कष्ट देंगे और कष्ट लेंगे लाख करोड़ हमारे
निवेदन रूप शान्तिमय वात्र्ता के साथ यथार्थ पद्धति से निरीक्षण और परीक्षण नहीं
करेंगे सीधे मारना और मरना यही इनके निरीक्षण-परीक्षण का विधान होता है । इनसे
बार-बार कहा जाता है कि बन्धुओं निरीक्षण-परीक्षण की हनूमान, सुग्रीव,
विभीषण
आदि की पद्धति अच्छी ऊँची एवं उत्तम थी उसे ही अपनाया जाय । परन्तु ये कामिनी और
कांचन रूप शरीर और सम्पत्ति या व्यक्ति और वस्तु में इतने माहे एवं जकड़े होते हैं
कि वास्तव में ये आँख रहते ही अन्धे से भी अन्धा होते हैं क्योंकि अन्धों को
समझाने पर तो वे समझ जाते हैं परन्तु ये बन्धुगण समझाने पर भी नहीं समझ जाते हैं
परन्तु ये बन्धुगण समझाने पर भ्ी नहीं समझ पाते हैं । यह इनके घोर तमोगुण का लक्षण
होता है जिसके वशीभूत होकर लोक तथा परलोक दोनों से नष्ट हो जाते हैं ।
शरीराभिमानी एवं धनाभिमानी बन्धुगण तमोगुण रूपी
विचार-भाव एवं क्रिया-कलाप में इतने गहराई से मोह-पाश में जकड़े होते हैं कि
अन्धों में का अन्धा यानी सर्वप्रथम तो यह अविद्या या अज्ञान रूपी अन्धापन में
अन्धा हैं तत्पश्चात् उन अविद्या या अज्ञान वाले अन्धों में ही तमोगुण रूपी एक
दूसरा अन्धापन की बिमारी भी इन्हें हो जाती है अर्थात् एक तो अन्धी आँख दूसरे वह
भी फूट जाय । वही हाल इन दानव या शैतान या आसुरी एवं राक्षसी स्वभाव वाले ये
तमोगुणी जन होते हैं । सर्वप्रथम ये सम्पत्ति को स्थान देते हैं तत्पश्चात् शरीर
को उन दोनों --- सम्पत्ति और शरीर के सिवाय तो इन्हंे लाख कुछ दिखलाया जाय,
दिखलायी
ही नहीं देता है । ये अपने को स्वयं तो शरीर मानते ही हैं आध्यात्मिकों के
अध्यात्म को तो एक आडम्बर, पाखण्ड तथा मूर्खों की टोली मानते हैं
जबकि मूर्खता एवं जढ़ता के स्वयं में साकार मूर्ति होते हैं तथा आध्यात्मिक आकर्षण
का खिंचाव रूप शान्ति और आनन्द रूप कल्याण को ये मिस्मरीज्म व सम्मोहन कहते हुये
विरोध करते हैं परन्तु भगवान् के साक्षात् पूर्णावतार को तो ये अपना कट्टर शत्रु
मानते और समझते हैं जो उनके गुण-स्वभाव के अनुसार तो सत्य ही है परन्तु वास्तविकता
या यथार्थता ऐसा नहीं है । वास्तविकता तो यह होता है कि भगवान् सबका भला चाहते हैं
वह मानव तो मानव है सम्पूर्ण प्राणिमात्र को परमशान्ति या परमानन्द से युक्त करते
हुये मानव-सुधार एवं मानवोद्धार तथा ‘दोष-रहित-जीवन-पद्धति’ को
जनाते-समझाते एवं बोध कराते हुये ‘निर्दोष जीवन-पद्धति’ को
प्रभावी तरीके से लागू करना चाहता है परमात्मा या भगवान् का स्पष्ट कथन है कि शरीर
को सम्पत्ति रूप जड़-पदार्थ प्रधान न बनाया जाय । बल्कि विचार, उससे
ऊपर चेतन-शक्ति या अध्यात्म तथा उससे भी ऊपर यानी सर्वोपरि तत्त्व-ज्ञान का
सत्य-ज्ञान या सत्य-धर्म या तौहीद या विद्यातत्त्वम् की यथार्थता या वास्तविकता को
उसके तात्त्विक रहस्यों के साथ स्पष्टतः एवं पूर्णतः जानकारी-सैद्धान्तिक, प्रायौगिक
तथा व्यावाहारिक रूप तीनों विधानों से जान-समझ देख-बुझ तथा बात-चीत के माध्यम से
स्पष्टतः बोध के साथ पहचान कर लिया जाय तत्पश्चात् दूषित-विचारों के स्थान पर
सद्विचार को; दूषित भाव के स्थान पर सद्भाव को; दूषित
व्यवहार के स्थान पर सद्व्यवहार को; दूषित प्रेम के स्थान पर सद्प्रेम को;
दूषित
कर्म के स्थान पर सत्कर्म को तथा दूषित आहार-विहार के स्थान पर सात्त्विक आहार एवं
सदाचारी-विहार के स्थान पर प्रतिस्थापित करते हुये पूरे विश्व के सम्पूर्ण मानव
समाज को ‘दोष रहित जीवन-पद्धति’ अर्थात् ‘निर्दोष
जीवन-पद्धति’ के संकल्प तथा उसी के विकल्प रूप ‘निर्दोष-दिव्य-जीवन-पद्धति’
के
कर्मों में लगाते हुये ‘लोक-लाभ तथा परमलोक निर्वाह’ हेतु
मुक्ति और अमरता का बोध प्रत्यक्षतः कराते हुये दिव्य आकाश रूप अपने परमधाम या
अमरलोक के योग्य बनाते हुये भू-मण्डल पर ही स्वर्ग से भी उत्तम शासन-प्रशासन
व्यवस्था रूप सत्पुरुषों का राज्य कायम करना ही भगवान् का लक्ष्य होता है, है
भी ।
कत्र्तव्य और कर्म दोनों दो बातें हैं । उचित
व्यवहार हेतु दोनों की पृथक्-पृथक् वास्तविक जानकारी हासिल करना अपने जीवन को
सुचारू एवं सफल बनाने हेतु भी अनिवार्य लग रहा है क्योंकि यदि उचित जानकारी नहीं
होगी तो उचित कर्म भी नहीं हो सकता है और उचित कर्म नहीं होगा तब तक वास्तव में
मानवोचित शान्ति और आनन्द की अनुभूति तो अनुभूति है सांसारिक सुख-ऐश्वर्य की
प्राप्ति भी नहीं होगा । यानी सांसारिक सुख-ऐश्वर्य एवं नैतिक मान-प्रतिष्ठा तथा
आध्यात्मिक शान्ति और आनन्द और तात्त्विक मुक्ति और अमरता की क्रमशः प्राप्ति एवं
यश-प्रतिष्ठा की अनुभूति तथा शान्ति और आनन्द की अनुभूति तथा मुक्ति और अमरता का
बोध रूप अद्वैत्तत्त्वम् या एको द्वितीयो
नास्ति या वन्ली वन गाॅड या ला। अिलाह अिल्ला हुव या 1ॐ की
यथार्थतः जानकारी, दर्शन एवं अनुभूति तथा बोध रूप पहचान होना
मुश्किल होगा; जो जीवों की परमगति है, परम लक्ष्य है,
परम
उद्देश्य है, परम-आनन्द तथा परमपद होता है ।
जो हमें करना चाहिये वह कत्र्तव्य है और जो कुछ
भी शरीर के माध्यम से किया जाय वह कर्म है । कत्र्तव्य तो ज्ञान, योग
एवं विचार प्रधान तथा कर्म मात्र-इन्द्रिय प्रधान होता है । जैसे कत्र्तव्य है कि
सदा-सत्य बोलें तथा धर्म के अनुसार चलें ‘सत्यं-वद्; धर्मं चर’
परन्तु
झूठा-सच्चा, अधर्म-धर्म यानी कर्म-धर्म आदि सब कुछ ही जिसे
इन्द्रियों द्वारा किया जाय अथवा किया जाता है वह सब ही कर्म है । जो हमें करना
चाहिये यदि इन्द्रिय वही करें तो उसे कत्र्तव्य कर्म कहा जाता है । हम आप सभी मानव
मात्र को तो अनिवार्यतः रूप में कत्र्तव्य कर्म ही करना चाहिये । अब प्रश्न या
समस्या सामने उठ रहा है कि कत्र्तव्य कर्म क्या है ?