सन्यास और वैराग्य

सन्यास और वैराग्य
सद्भावी बन्धुओं ! सन्यास से तात्पर्य संस्कारिक कर्म के पूर्णतः त्याग से है । दूसरे शब्दों में कर्मों का न्यास ही सन्यास है। पुनः सांसारिक वृत्तियों का पूर्णतः त्याग करे एकमात्र परमब्रह्म, परमेश्वर या परमात्मा के खोज में लगाना ही सन्यास है । सन्यास सांसारिक त्याग का अन्तिम रूप होता है । सन्यास के अन्तर्गत माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, घर-दुआर, खेती-बारी, नौकरी-चाकरी, वेष-भूषा आदि सबका त्याग करके पूर्णतः विरक्त का जीवन जीना ही तथा परमात्मा के खोज में शेष जीवन को लगाना आदि आता है । परन्तु वैराग्य में कर्म का त्याग नहीं किया जाता है बल्कि आसक्ति और ममता का त्याग है । वैराग्य का अर्थ राग से विरक्त होना होता है । वैराग्य ज्ञान के पश्चात् की अवस्था है । परन्तु आज सामान्य महात्मन् बन्धु अपने वैराग्य वाला ही मान बुझकर समाज में विचरण कर रहे हैं इतना ही नहीं अनेकों वैरागी मठ और पन्थ हो गये हैं जिससे वास्तविक वैराग्य क्या है और वास्तव में वैरागी कौन है ! यह जान पाना ही कठिन हो गया । आज सन्यासी लोग मठियों में खेती करा रहे हैं और वैरागी लोग भोजन हेतु नाना वृत्तियों को अपना रहे हैं । जिससे सन्यास और वैराग्य जैसा सर्वोच्च, सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोत्तम मार्ग भी इतना बदनाम हो गया है जिसको लिखा तो लिखा है कहा भी नहीं जा सकता है । सन्यासी और वैरागी समाज में पूज्य होते थे परन्तु आजकल खिल्ली, हँसी-मजाक के पात्र बने हुये हैं । इनका कोई स्तर नहीं रह गया है, कोई महत्व  नहीं रह गया है कोई गरिमा नहीं रह गया है । चोर भाई, डाकू-बदमाश भी सन्यासी और वैरागी का रूप धारण कर अपना-अपना धंधा प्रारम्भ कर दिये हैं । आज दुष्ट-अत्याचारियों से स्थिति इतनी बदतर बन चुकी है जिसको कहना कम मुश्किल बात नहीं है । जिस प्रकार ज्ञान और वैराग्य मरणासन्न स्थिति में भक्ति के समक्ष पड़े थे कि नारद जी भी प्रारम्भ में नहीं ठीक कर पाये । समाज में ज्ञान और वैराग्य के रहस्य को समझने के लिये सारे भू-मण्डल को छान डाला यानी खोज डाला परन्तु कोई ज्ञानी ज्ञान का रहस्य तथा कोई वैरागी वैराग्य का रहस्य नहीं बतला सका, जबकि चारो तरफ ही  ज्ञानी और वैरागी का समूह का समूह था । जब चलते थे तो झुण्ड के झुण्ड चलते थे । अर्थात् जिधर देखिये उधर ही ज्ञानी और वैरागी दिखाई देते थे परन्तु वास्तविकता यह थी कि जब नारद जी ज्ञान और वैराग्य के रहस्य का पता लगाने, खोज करने का संकल्प लिया और संकल्प को पूरा करने हेतु ज्ञानी बनने वाले बन्धुओं से वैराग्य का रहस्य पूछने लगे तो एक भी ऐसा कोई बन्धु नहीं मिला जो ज्ञान और वैराग्य के रहस्य को बतला सके अन्त में नारद जी को बेहद् परेशान होकर बैठ जाना पड़ा परन्तु प ूरे भू-मण्डल पर एक भी वास्तविक ज्ञानी और वैरागी नहीं मिले। ठीक वही हाल आज भी है । कहने-सुनने वाले तथा दिखलायी देने वाले ज्ञानी और वैरागी बन्धुओं की कमी नहीं है परन्तु सही या यथार्थतः या वास्तविकता की खोज करने पर कहीं भी एक भी ज्ञानी और सन्यासी एवं वैरागी का पता नहीं है सब के सब वही नारद के समय वाले जैसे बनावटी ज्ञानी मात्र कथनी भर का तथा बनावटी सन्यासी और वैरागी मात्र दिखावा के लिये ही दिखायी दे रहे हैं । वास्तव में खोज करने पर स्पष्ट हो गया कि एक भी ज्ञानी और वैरागी नहीं है । सब के सब मात्र दिखावटी वाले हैं । इसप्रकार वास्तव में ज्ञान और वैराग्य एवं सन्यास क्या है तथा इसका महत्व क्या है ? इसकी यथार्थ जानकारी क्या है यह किसी को मालूम है नहीं, परन्तु मर्यादा रूप अहं बना रहे इसलिये कथन और दिखावा मात्र लिये ज्ञानी और वैरागी एवं सन्यासी रह गये हैं । रामावतार के पूर्व भी एक भी ज्ञानी नहीं थे जिससे कि शंकर जी के अध्यक्षता में शंकर जी के यहाँ मीटिंग (बैठक) हुई । ब्रह्मा और शंकर जी तथा पृथ्वी सहित समस्त महर्षिगण तथा सुरेश भी थे किसी ने स्वीकार नहीं किया कि मैं परमब्रह्म को जानता हूँ, जैसे नारद को सबसे बाद मंे आत्मा वाला सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार मिले थे वैसे ही आत्मा वाले शंकर जी आत्मा को ही हरि के रूप में वर्णित किया था फिर भी परमात्मा का पुकार हुआ परमात्मा के यहाँ से अवतार हेतु आकाशवाणी हुई कि मैं मनुष्य के शरीर धारण करके आ रहा हूँ, अब आप लोग भयभीत न होंवे । सतयुग में भी सभी देवतागण आपस में मीटिंग करके आत्मतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म, परमेश्वर, परमात्मा के विषय में बहुत ही विचार विनिमय किये थे परन्तु कोई जान-नहीं पाया । इस प्रकार स्पष्ट हो रहा है कि ज्ञान और वैराग्य एवं सन्यास का रहस्य नारद, ब्रह्मा, शंकर आदि को भी मालूम नहीं तो फिर और कौन बतला सकता है, कोई नहीं । एकमात्र परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा ही जब भू-मण्डल पर अवतार लेते हैं तभी उन्हीं के माध्यम से ज्ञान और वैराग्य का वास्तविक रहस्य जाना गया, जाना जाता है और जाना जा रहा है तथा उन्हीं के  द्वारा जाना भी जायेगा । उनके सिवाय परमात्मा या ज्ञान तथा वैराग्य और सन्यास के वास्तविक रहस्य को कोई अन्य व्यक्ति, विचारक एवं आध्यात्मिक भी नहीं बता सकते हैं ।
सन्यास और वैराग्य की भी अपनी एक अलग महत्ता है । इसकी अपनी एक अलग गरिमा है, इसकी भी अहं भूमिका है । सन्यास और वैराग्य से नाना तरह की दैवी अनुभूतियाँ, सिद्धियाँ एवं आश्चर्यमय सत्ता-शक्ति के विधान जानने, देखने तथा समझते हुये अनुभूति करने को मिलते हैं । यदि उनकी क्षमता भी यानी सिद्धियाँ और शक्ति भी सन्यासी और वैरागी को मिलती है।  यदि सन्यासी और वैरागी बन्धुओं द्वारा उनका सामाजिक प्रदर्शन रूप दुरुपयोग न किया जाय तो वे उत्तरोत्तर और ही लाभदायी एवं प्रभावी होती जाती है । साथ ही साथ यह तो स्पष्टतः दिखलायी देने लगता है कि मनुष्य के मान का कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी हो रहा है सब का सब ही सत्ता-शक्ति का आपसी लीला, नाहक, खेल मात्र है मानव या अन्य योनियाँ कठपुतली की तरह से निमित्त मात्र हैं । स्वास-प्रस्वास रूपी दो धागों से नचाती, देखती और आपस में आनन्द की अनुभूति एवं साक्षात् बोध करती-कराती, लेती-देती है । इन सारी बातों को ठीक-ठीक जानना, देखना, अनुभूति करना और बोधित होना हो तो सन्यास और वैराग्य तो सन्यास और वैराग्य है और ज्ञान से युक्त हो जाने पर सृष्टि की अन्तिम उपलब्धि है परन्तु सन्यास और वैराग्य का प्रारम्भिक और निम्न रूप दान और त्याग करके ही उसके आनन्द की जानकारी एवं अनुभूति की जा सकती है । दान से न तो उस वस्तु की कमी होती है और न त्याग में परेशानी परन्तु आज समाज से सन्तोष की ही समाप्ति हो गयी है जो दान और त्याग करने ही नहीं दे रही है । हर व्यक्ति नित्यशः जान, देख रहा है कि जो भी व्यक्ति जिस कार्य को लगन के साथ करता है उसके इस लगन की पूर्ति सत्ता-शक्ति स्वतः ही करते रहते हैं फिर भी लोग दान, त्याग, समर्पण आदि से डरते हैं । भयभीत रहते हैं । यह देख रहे हैं तथा प्रयोग भी कर रहे हैं कि बीड़ी पीने वालों के लिये बीड़ी, सिगरेट पीने वालों के लिये सिगरेट, गांजा-भांग पीने-खाने वालों के लिये गांजा-भांग, ताड़ी-शराब पीने वालों के लिये ताड़ी-शराब, मांस-मछली वालों के लिये मांस-मछली, गोरस वालों के लिये गोरस यानी दूध, दही तथा घी आदि पीने-खाने वालों के लिये दूध, दही, घी आदि सारी चीजें सत्ता-शक्ति की तरफ से स्वतः ही मिलता रहता है इतना ही नहीं दानी को दान के लिये भी उपलब्ध होता रहता है त्यागी को कभी भी कष्ट नहीं होता है, सन्यासी कहीं भूखे नहीं मरता है तथा तन-मन-धन का दान करने वाला धन की रजिस्ट्री, मन का विलय तथा तन का मौत करते हुये नहीं देखा जाता है, पूर्ण समर्पणी यानी तन-मन-धन आदि सर्वस्व का सर्मपण करने वाला तुरन्त तन-मन-धन को छोड़कर मर नहीं जाता है बल्कि अपने सीमित तन-मन-धन का असीमित तन-मन-धन में मिलाकर वह भी सीमित से असीमित या सीमाबद्ध से असीम हो जाता है । जिसमें वह अपना तन-मन-धन मिलाता है उसके यहाँ वैसा-वैसा बहुत तन-मन-धन रहता है जो बहुत में कम को, असीम में ससीम को मिला देता है वह भी उसी बहुत वाला, असीम वाला हो जाता है परन्तु नहीं मिलाने वाला सीमित का सीमित और सीमबद्ध का सीमाबद्ध ही रह जाता है । कोई व्यक्ति असीम बने बगैर मुक्त नहीं हो सकता है लाख सिर पटके ।
सद्भावी बन्धुआंे ! समाज दान-त्याग, वैराग्य और सन्यास से डर रहा है, भयभीत हो रहा है । जबकि वास्तविकता तो यह है कि दान और त्याग ही प्राप्ति की पहली कड़ी है । सृष्टि का प्राचीन इतिहास या सृष्टि के प्राचीन गाथाओं का थोड़ा भी गहनतापूर्वक देखा जाय तो दान और त्याग ही प्राप्ति की पहली कड़ी रही है । कोई दानी या त्यागी कभी भी दान और त्याग से समाप्त नहीं हुआ है बल्कि उसी दान और त्याग के माध्यम से उस स्तर तक जिस स्तर तक किया, स्थिरता के साथ यश-प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हुये कायम हो गया । जैसे शिव, दधीचि, हरिश्चन्द्र आदि समाप्त नहीं हो गये । राज्य दूसरा नहीं ले लिया । शरीर समाप्त नहीं हुये । हरिश्चन्द्र का राज्य विश्वामित्र नहीं करने लगे बल्कि रोहित ही राजा रहे परन्तु सत्य, त्याग और दान तीनों की मर्यादा भी हरिश्चन्द्र पा लिये सत्ययुग से आज तक भी सत्यवी हरिश्चन्द्र ही कहलाते हैं शिवि,, दधीचि, दिलीप आदि की शरीर समाप्त नहीं हुई परन्तु ग्रन्थों के पन्ना-पन्ना भी छाप गयी, सिनेमा बन गया, राजा-रघु बर्बाद नहीं हुये, भीख नहीं माँगना पड़ा बाद में भी उन्हीं का वंशज राज कार्य किया परन्तु सर्वस्व दान में वे अग्रणी हो गये । कर्ण विविध विधानों से दान देकर मौत को भी स्वीकार किया । मौत के समय भी कष्ट को न देखते हुये अपना दांत तक तोड़कर दे डाला, तो क्या समाप्त हो गया नहीं, उन्हीं दानों के आधार पर सदा के लिये कायम हो गया । समाप्त तो होना था कौन रहने आया है इच्छा मृत्यु वाले समाप्त हो गये और लोग हुये तो कौन बात है; परन्तु महत्व तो उनका है जो अपने पीछे समर्पण, वैराग्य, सन्यास, त्याग, दान तथा प्रेम, सेवा, भक्ति आदि करते हुये परमप्रभु के नाम-यश तथा अमरता के साथ सटकर, जुड़कर नामी, यशी तथा मुक्ति और अमरता को प्राप्त कर लिया। जाना तो दुनिया से एक दिन सबको है परन्तु कोई खा-पीकर अपना नाम-रूप भी खाने की व्यवस्था पुत्र-पुत्री आदि परिवार के माध्यम से कर जाते हैं जिससे नाम-रूप भी जाने के कुछ समय बाद ही क्रमशः बेटा-बेटी, पति-पत्नी या भाई-बहन आदि खाते हुये गुजरते रहते हैं यानी नाम-रूप भी खा जाने वाली एक पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपना बना-बना कर एक व्यवस्थित परम्परा लागू कर जाते हैं जिससे उन्हीं की अपनी पीढ़ी ही चैथी-पाँचवीं तक जाते-जाते साफ नाम-रूप आदि खा जाते हैं । फिर भी ये अन्धे सब उसी पीढ़ी-पीढ़ी वाली नाम-रूप खाने वाली प्रथा और परम्परा को लागू करते रहते हैं तथा उन्हीं नाम-रूप के भविष्य-भक्षकोंको अपना प्रिय एवं हितेच्छु समझते हैं जबकि दान, त्याग, सन्यास, वैराग्य तथा तत्त्वज्ञान और पूर्ण समर्पण किसी के नाम-रूप को खाता नहीं अपितु विविध रूपों में, विविध स्थानों पर सदा-सदा के लिये बढ़ाता, स्थिर करता तथा फैलाता रहता है । प्राचीन इतिहास या गाथाओं को पढ़-सुनकर गहराई से मनन-चिन्तन करके यथार्थतः की अनुभूति पूर्वक जानकारी हासिल करके स्पष्टतः जान, समझ, देख, पहचान कर ही अपना अगला जीवन निर्धारित करना चाहिये । अग्रसोची सदा सुखी । आदि कथा की यथार्थता इसी में है कि यथार्थता किसमें है क्या करके अमर होंगे । सामान्यतया भी देखने को यही मिलता है कि दान और त्याग, वैराग्य और पूर्ण समर्पण ही प्राप्ति और रक्षा तथा व्यवस्था और पूर्णता की प्राप्तिहै । आये दिन सामान्य क्रिया-कलाप एवं लोक-व्यवहार में भी यही देखने को मिलता है कि जतन-जतन ही खतम तथा खतम-खतम ही जतन हैउदाहरण अर्थ देखें--- किसान जब खेती करता है और खेत में जो फसल धान या गेहूँ फर (फल) पक्कर तैयार होता है तो किसान उसे जतन करता हुआ काटकर खलिहान में लाता है अपना आराम-सुख त्याग कर उसको पहरा-जतन करता है तत्पश्चात् अन्न को निकाल कर और ही अच्छी तरीका से जतन हेतु दंवरी (मढ़ाई) ओसवनी आदि करके अन्न को डेहरि या बखार या अन्य उचित स्थानों में रखते हैं तथा भूसे को भुसऊल में और पुआल को खलिहान में ही या दुआर पर भी लाकर जतन हेतु रख लेते हैं । इतना ही नहीं, जतन करते-करते धान या गेहूँ को मुँह और पेट में तक रख लेते हैं परन्तु यह उन्हें कौन समझावे कि जतन का ही अन्तिम रूप खतम है यानी जतन करते-करते राशन को पेट में पहुँचाता है जो खाना ही पेट में जाकर पखाना बन जाता है और पखाना बन-बन कर बाहर पुनः खेत में चला जाता है अर्थात् सब जतन करते-करते तो खाना बनाये परन्तु खाया ही पेट में जा-जा कर पखाना बनने लगता है । इस प्रकार से देखने पर तो हमारी दृष्टि यही देख रही है कि मानव सब तरह से जुटाना-खाना-पखाना । पुनः जुटाना-खाना-पखाना मात्र इसी में अपना सारा जीवन व्यर्थ में ही बर्बाद कर देता है । और नहीं तो इसी को जीवन लक्ष्य बनाकर सुखमानकर बर्बाद हो रहा है ।
बन्धुओं ! यह प्रक्रिया यही पर समाप्त नहीं हुई पुनः देखें कि किसान बन्धु देखते हैं कि खाते-खाते कोठार खाली हो गया। धान-गेहूँ आदि अन्न का खातमा यानी समाप्ति हो गया तब बचे-खुचे  थोड़े अन्न को अपने परिवार में बीज कह-कह कर रक्षा करने लगते हैं और देखते हैं कि बीज खा जाने पर परेशानी बढ़ जायेगी, अब खाने को कम किया जाय, बीआ (बीजा) को खतम करने पर बीज कहाँ से आयेगा । इस प्रकार खतम को कुछ नियन्त्रित करने लगते हैं जैसे सामानों की कमी होने पर सरकार तुरन्त नियन्त्रण लगा देती है वैसे ही । तत्पश्चात् देखते हैं कि अगला साल या वर्ष का खर्च कहाँ से चलेगा क्योंकि इधर तो अगली खाली (फसल) तैयार नहीं हुई तब तक पिछली खतम या समाप्त की घण्टी बजाने लगती है । अब यह देखना है कि अगली साली (फसल) आती कहाँ से है, कैसे आती है ? यह जब तलाश किया जाता है तब यह बात सामने स्पष्टतः दिखलायी देती है कि जिससे किसान बीआ (बीज) कहकर जतन किया था, काफी ठीक तरह से सुरक्षित रखा था उसी बीज को खेतों में डालकर अनेकों जुताई कर-करवा देता है । यानी बीये (बीजों) को बिल्कुल ही मिट्टी में मिला देता है ।इतना ही नहीं उसमें समयानुसार पानी भी डालता या देता रहता है अर्थात् सर्वप्रथम बीज को खान-पान के घर से निकाल कर त्याग कर खेत में डाल या खेत को समर्पित कर देता है यानी बीज कहलाने वाले सुरक्षित अन्न-धान गेहूँ आदि को मिट्टी में मिला देता है यानी बीज कहलाने वाले अन्न को सदा के लिये मिट्टी में मिलाकर खतम या समाप्त कर देता है इतना ही नहीं ऊपर से बीज और मिट्टी में पानी भी देते रहता है । थोड़ा भी नहीं सोचता कि बीज सड़ेगा या खतम हो जायेगा या समाप्त हो जायेगा । बीज तो खतम या समाप्त करना ही पड़ता है साथ-साथ उससे उत्पन्न या मिला हुआ रूपया-पैसा भी खाद्-पानी तथा मजदूरी के रूप में खतम करते रहते हैं इस प्रकार खतम करते-करते वही बीज स्वयं तो समाप्त हो जाता है परन्तु वह समाप्ति नहीं है वह उसका विकास, उसके अस्तित्त्व का समाज में सदा कायम रहना तथा उसका फैलाव है । ठीक इसी प्रकार मानव बन्धुओं ! जीव के समस्त योनियाँ हैं जिसमें धान-गेहूँ की तरह ही अन्य समस्त योनियाँ मात्र भोग के लिये है जैसे सामान्यतया राशन (धान-गेहूँ आदि) भोजन या भोग के लिये ही है वैसे ही शेष समस्त योनियाँ ही मात्र भोग (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) आदि के लिये ही है परन्तु अन्न में बीज के समान ही योनियों में मानव या मनुष्य योनि है तथा मिट्टी के समान यानी धरती के समान सबको भरण-पोषण रूप धारण करने वाली के समान धर्म है जो धरती की तरह-तरह से ही बल्कि उससे बहुत-बहुत ही उत्तम तरह से भरण-पोषण करते हुये धारण करने वाला है यानी धरती वाला किसान है तो धर्म वाला भगवान् यानी धरती का सेवन करने वाला किसान है तो धर्म का (पूर्ण रूप) भगवान् है । धरती से उत्पन्न अन्य बीज रूप में धरती में ही फलता-फूलता है ठीक उसी प्रकार सत्ता-शक्ति से उत्पन्न मानव योनि रूप मनुष्य धर्म में ही फूलता (आनन्दित रहता) फलता (मुक्ति और अमरता का बोध करता) और फैलता (प्रचार-प्रसार के माध्यम से सत्य-धर्म की संस्थापना और फैलाव यानी विकास होता) है । मानव रूप बीज के लिये सेवा और भक्ति ही खाद और पानी है सत्संग उसका निकाई या सोहनी आदि है धर्म ग्रहण ही अन्न का ग्रहण रूप है तथा अधर्म ही पखाना या मज रूप में त्याग के योग्य है । सत्य-धर्म के अलावा शेष कर्म आदि सब अधर्म कहलाता है जो सर्वथा त्याज्य होता है । जैसे पेट से पखाना या मल का त्याग नहीं होगा तो अन्न का ग्रहण भी बन्द हो जायेगा । ठीक इसी प्रकार अधर्म (धर्म रहित कर्म) भी यदि त्याग नहीं किया जायेगा तब तक धर्म ग्रहण नहीं हो पायेगा और जो अन्न ग्रहण नहीं किया जायेगा उसका लाभ तो लाभ है उसका  स्वाद भी नहीं मिल पायेगा । ठीक उसी प्रकार जो अधर्म को  त्याग करके उचित रूप में धर्म को ग्रहण नहीं करेगा वह धर्म का लाभ रूप मुक्ति और अमरता का बोध तो नहीं ही कर पायेगा, सच्चिदानन्द रूप परमशान्ति और परमानन्द रूपी शाश्वत आनन्द को भी नहीं जान, समझ पायेगा । पीने-खाने वाले अन्न के समान ही भोग-भोगने वाली तीरासी लाख निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे योनियाँ है परन्तु बीज रूपी अन्न के समान ही मानव रूपी मनुष्य योनि है । जो व्यक्ति बीज को भी खाद्यान्न की तरह खा-पीकर समाप्त कर देता है तो उसकी अगली साली (फसल) ही समाप्त हो जाती है ठीक उसी प्रकार मानव योनि को भी जो व्यक्ति एवं जीव अन्य योनियों की तरह ही सांसारिक भोग में समाप्त कर देता है उसका अगातम सदा के लिये दुःखदायक, कष्टदायक होता है जो नाना तरह से दर-दर की ठोकर खिलाती है । परन्तु जो जीव मानव शरीर को बीज को धरती में मिला देने की तरह धर्म में अपने को पूर्णतः (तन-मन-धन से ही) विलय करके बीज के मिट्टी में मिल जाने के समान ही धर्म में विलय कर जाता है वह भी उसी बीज की तरह खा-पानी पाने जैसे अनन्य-सेवा, अनन्य-भक्ति करके तथा सोहनी निकाई-गुणाई के माध्यम से फसल के अलावा अन्य सभी घासों को खेत से निकाल कर बाहर कर देने के समान ही सत्संग के माध्यम से अनन्य भगवद् सेवा, अनन्य भगवद् भक्ति के अलावा के अलावा शेष समस्त आसक्ति-ममता रूपी मोह आदि तथा राग-द्वेष आदि समस्त घासों रूप सम्बन्धों को खेत रूपी अपने शरीर एवं विचार से निकाल कर बाहर फेंक देना चाहिये या पशुओं को घास खिलाने जैसे पशु जैसे जढ़ एवं मूढ़ रूप अज्ञानी मानव हेतु भोग-भोगने के लिये छोड़ या उनको उनका सम्बन्ध दे दिया जाता है । क्योंकि वे जढ़ एवं मूढ़ अज्ञानी मानव सम्बन्धी वैसे ही होते हैं जैसे पशु । पशुओं का सम्बन्ध मानव से जैसा कर्म और भोग मात्र के लिये होता है वैसे ही अज्ञानी मानव सम्बन्धी जन भी पशुओं जैसे ही मात्र कर्म और भोग के लिये ही सम्बन्धित रहते हैं । जैसे घास, भूसा, पुआल आदि पशुओं के लिये अन्न आदमियों के लिये होता है । ठीक उसी प्रकार आसक्ति-ममता-मोह रूपी शारीरिक सम्बन्ध आदि मूढ़ एवं जढ़ रूप अज्ञानियों के लिये है तथा मुक्ति और अमरता का बोध के साथ ही भगवद् प्रेमानन्द रूप परमानन्द की अनुभूति और बोध का लाभ तत्त्वज्ञानी भक्तों, सेवकों और पे्रमियों के लिये है ।

सद्भावी बन्धुओं ! मानव जीवन के वास्तविक  आनन्द को प्राप्त करने के लिये यह अत्यावश्यक है कि बीज रूपी अन्न के समान ही जैसे वह अपने को किसान द्वारा मिट्टी में मिला दिये जाने पर ही फूलने, फलने तथा किसान के माध्यम से ही फैलने का अवसर पाता है ठीक उसी प्रकार से मानव बन्धु अपने मानव शरीर को धर्म में विलय करने-कराने वाले तत्त्ववेत्ता रूप सद्गुरु के विलय कराने में थोड़ा भी विचार न करते हुये अपने पूर्णतः धर्म में विलय हो जाने देना चाहिये । जैसे व जिस प्रकार से भी सद्गुरु ले चले या आप के तन-मन-धन का धर्म में विलय करे कर देना चाहिये तब ही जाकर फूलने (संसार में यशी-प्रतिष्ठित होने) फलने (मुक्ति और आनन्द के साथ ही भगवद् प्रेमानन्द की उपलब्धि अनुभूति और बोध सहित) तथा फैलने (गरुण, नारद, धु्र्र्रव-प्रह्लाद, हनूमान, जटायू, केवट, सेबरी, सुग्रीव, विभीषण, भरत-लक्ष्मण, राधा, उद्धव, अर्जुन, गोपियाँ आदि की तरह) और सदा-सदा के लिये लोक-प्रतिष्ठा के साथ लोक और परमलोक दोनों स्थानों पर ही परमप्रभु रूप परमात्मा के अवतार वाली शरीर के साथ-साथ मूर्ति और चित्र तथा पूजनीय रूप में सदा-सदा के लिये कायम हो जायेंगे और रहेंगे भी । यह मर्यादा और महत्व होता है दान, त्याग, वैराग्य, सन्यास एवं परमप्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव का । जो जिस स्तर का दान, त्याग, समर्पण करता है वह उसी स्तर का मर्यादा, प्रतिष्ठा लोक प्रतिष्ठा आदि पाता है अर्थात् जो जैसे बोते हैं वे वैसे ही काटते हैं । भोगी रोते ओर खोते हैं, योगी-हँसते और देखते हैं तथा तत्त्वज्ञानी मात्र ही पाते और खाते हैं या लाभ लेते हैं । 

सम्पर्क करें

परमतत्त्वम् धाम आश्रम
B-6, लिबर्टी कालोनी, सर्वोदय नगर, लखनऊ
फोन न॰ - 9415584228, 9634481845
Email- bhagwadavatari@gmail.com

Total Pageviews