अध्यात्म हेतु पूर्णतः त्याग तथा तत्त्वज्ञान हेतु पूर्णतः समर्पण अनिवार्य

अध्यात्म हेतु पूर्णतः त्याग तथा तत्त्वज्ञान हेतु पूर्णतः समर्पण अनिवार्य
सद्भावी मानव बन्धुओं ! अध्यात्म जीव और आत्मा के आपसी मिलन और व्यवहार की अनुभूति परक जानकारी है तथा तत्त्वज्ञान शरीर तथा अवतारी के बीच तथा जीव और परमात्मा के मिलन और व्यवहार हेतु बोधगम्य जानकारी ओर पहचान रूप परिचय करने-कराने वाला एक विद्यातत्त्व पद्धति है । इन दोनों की सफलता पूर्णतः त्याग और पूर्णतः समर्पण पर ही आधारित होती है । त्याग और समर्पण के बगैर क्रमशः अध्यात्म और तत्त्व-ज्ञान के सफलता की कल्पना करना भी घोर अज्ञानता एवं मूढ़ता का सूचक और परिचायक है तथा मुक्ति और अमरता असम्भव एवं मात्र कल्पना-मात्र की बात है ।
हमकी आत्मामय स्थिति अध्यात्म तथा हमकी परमात्मामय स्थिति तत्त्वज्ञान होता है । इन दोनों से पृथक् भी यानी अध्यात्म तथा तत्त्वज्ञान होता है । इन दोनों से पृथक् भी यानी अध्यात्म तथा तत्त्वज्ञान से रहित और पृथक् विचारमय रूप मिथ्याहंकारमय स्थिति भी विचारकों ने कायम कर दिया है जो मिथ्याभास एवं मिथ्याचार का ही समर्थक और पोषक तथा सत्यवादी  एवं सदाचार यानी सत्य-धर्मका ही प्रतिबिम्बवत्  रूप होता है । इस प्रकार समाज में विचार और विचारक; अध्यात्म और आध्यात्मिक तथा तत्त्वज्ञान और तात्त्विक होते हैं । विचारक-जीव-विचार और नीति-प्रधान; आध्यात्मिक आत्मा-साधना या अध्यात्म और अनुभूति रूप चिदानन्द या आत्मानन्द या दिव्यानन्द या ब्रह्मानन्द या चेतनानन्द प्रधान; तथा तात्त्विक-परमात्मा-तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या विद्यातत्त्वम् और अद्वैत्तत्त्वबोध या एकत्वबोध एवं मुक्ति और अमरता का बोध-प्रधान होता है साथ ही शाश्वत शान्ति और शाश्वत आनन्द रूप सच्चिदानन्द या परमानन्द जो आनन्द पाता नहीं है अपितु सदानन्दमय रहते हुये श्रद्धालु और जिज्ञासु बन्धुओं को सत्संग रूप भगवदानन्द प्रदान करता रहता है । इसे आनन्दप्राप्ति नहीं करनी पड़ती है, आनन्द हेतु योग-साधना भी नहीं करना पड़ता है । यह तो सच्चिदानन्द या परमानन्द रूप पूर्णानन्द होता है तथा सदानन्दमय ही रहते हुये जब अनन्य-भाव से भगवद् प्रेम, भगवद् सेवा, भगवद्-भक्ति तथा सत्संग द्वारा आनन्द प्रदान करते हुये परमानन्द का बोध करता है यदि ऐसा नहीं होता है तब हमारका सत्यतः या यथार्थतः या वास्तव में श्रद्धा और निवेदन पूर्वक समर्पण यानी सर्वतोभावेन भगवदर्पण नहीं किया है । पुनः श्रद्धा और निवेदन पूर्वक अपनी त्रुटियों हेतु क्षमा-याचना मांगते हुये हमार रूप शरीर और सम्पत्ति का मुसल्लम ईमान के साथ भगवदर्पण करे हमको शिघ्रातिशीघ्र हमाररूप बन्धन और जाल से छुड़ा और निकालकर अवतारी रूप परमात्मा के आत्मतत्त्वम्रूप हममें विलय रूप बोध के साथ ही परमात्मामय स्थिति रूप सदानन्दमय रहना चाहिये यही परमगति है । शाश्वत सच्चिदानन्दमय स्थिति ही सदानन्दमय स्थिति होती है । अर्थात् शाश्वत $ सच्चिदानन्द या परमानन्द त्र सदानन्दमय होता है जिनका प्रातः ब्रह्म बेला में ध्यान करने का उपदेश श्रीविष्णुजी महाराज देते थे जिसको गरुण-पुराण अध्याय पन्द्रह श्लोक संख्या अट्ठासी को देखें:---
                कृत्वा च मानसीं पूजां सर्व चक्रेष्वनन्यधीः ।
                                ततो गुरुपदेशेन गायत्रीमजपां जयेत् ।।
गरुण पुराण/15/83
                अधोमुखे ततो रन्ध्रे्रसहस्त्रदल पšजे ।     
                                हंसगं श्रीगुरुध्यायेद्वराभय कराम्बुजम् ।।
0पु0/15/84 !!
                क्षालितं चिन्तयेददेहं तत्पादामृतधारया ।
                                ×चोपचारैः सम्पूज्य प्रणमेत्तत्स्तवेन च ।।
0पु0/15/85 ।।
                तत् कुण्डलिनीं ध्यायेदारोहादवरोहतः ।
                                षट्चक्र कृतस×चारां सार्ध त्रिवलयां स्थिताम् ।।
0पु0/15/86 ।।
                ततो ध्यायेत्सुषुम्नारव्यं धाम रन्घ्राद् बहिर्गतम् ।
                                तथा तेन गता यान्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ।।
0पु0/15/87 ।।
ततो मच्चिन्तितं रूपं स्वयं ज्योतिः सनातनम् ।
                ‘ततो’ ‘सदानन्दसदा ध्यायेन्मुहूर्ते ब्रह्मसंज्ञके ।।
0पु0/15/88 ।।
एवं गुरुपदेशेन मनो निश्चल तां नयेत् ।
                न तु स्वेन प्रयत्नेन तद्विना पतनं भवेत् ।।
                                                       ग0पु0/15/89 ।।      
अर्थात् स्थिर बुद्धि से सब चक्रों में मानसिक पूजा करें और  गुरु के उपदेशानुसार अजपा-गायत्री का जप करें ।। ग0पु0/15/83 ।। तदन्तर ब्रह्मरन्ध्र में हजार पत्र वाले या पंखुड़ी वाले कमल पर हंसारुढ़ श्री गुरु का जिनके कर कमलों मे ंवह अभय विद्यमान है उनका ध्यान करें ।। 84 ।। उन गुरु के चरणों की सुधाधारा से धोया हुआ अपने देह का चिन्तन करके प×चोपचार से पूजन करें । गुरु की स्तुति और प्रणाम करें ।। 85 ।। तदन्तर छहों चक्रों में विचरने वाली साढ़े तीन वलय (साँप की भाँति मण्डल) करके स्थित कुण्डलिनी का आरोह-अवरोह क्रम से ध्यान करें ।। 86 ।। और बाद में ब्रह्म रन्ध्र से बाहर निकले सुषुम्ना नाम के धाम का ध्यान करें, उस मार्ग से गये हुये जीव को विष्णु का ब्रह्मपद प्राप्त होता है ।। 87 ।। तदनन्तर ब्रह्म मुहुर्त में मेेरे चिन्तित रूप जो स्वयं ज्योतिर्मय है उसका ध्यान करें फिर नित्य सदानन्दमयहैं उनका सर्वदा ध्यान करें ।। 88।। इस भाँति गुरु के उपदेश से मन को स्थिर करें, अपने प्रयत्न से नहीं, गुरु उपदेश के बिना जीव का पतन हो जाता है ।। 89 ।। इस प्रकार बन्धुवर इस श्रीविष्णु जी के उपदेश को जिसे श्री वेदव्यास जी ने गरुण पुराण में उद्धृत किया है, से स्पष्ट हो जा रहा है कि क्रमशः महत्व के क्रम से बतलाये गये ध्यान में अन्त में परम रूप में सदा-सर्वदा के ध्यान हेतु गुरु उपदेश द्वारा सदानन्दके ध्यान का ही उपदेश किया गया है जो अपने आप में समस्त वाणी में सद्ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थान पर है । इसी प्रकार अन्यत्र भी देखने को मिलेगा। यहाँ पर अधिक उद्धरण पेश करना उचित नहीं समझा जा रहा है क्योंकि बात को विशेष प्रमाणित करने पर भी बहुत व्यक्तियों को भ्रम होने लगता है कि सत्य तो सत्य ही होता है उसे प्रमाणित किससे किया जाय ।

आइये बन्धुओं अब यह देखा जाय कि बात क्या है कि अध्यात्म पूर्णतः त्याग को तथा तत्त्वज्ञान पूर्णतः समर्पण को ही स्वीकार करता है, क्या यह उलट कर अध्यात्मपूर्ण समर्पण तथा तत्त्वज्ञान त्याग को स्वीकार कर सकता है या नहीं । हम-आप सभी अब इसी के असलियत को अगले पैरा में देखेंगे ।

जैसा कि पिछले पैरों में बतलाया गया कि अध्यात्म जीव और आत्मा के बीच के मिलन और व्यवहार की अनुभूति परक जानकारी मात्र होता है जो चेतन जीवात्मा तथा जीवात्मा के आपसी क्रिया-कलापों का अध्ययन भी कहा जाता है यानी यह चेतना का विज्ञान है । चेतन और जड़ दोनों के मेल से सृष्टि तथा सृष्टि में सत्ता-शक्ति व्यक्ति-वस्तु की उत्पत्ति एवं स्थिति है जिसमें अध्यात्म मात्र एक अंश-चेतन मात्र का ही विज्ञान होता है और भौतिक विज्ञान एक अंश-जड़ मात्र का ही विज्ञान होता है तथा दोनों ही एक-दूसरे को मिथ्या एवं भ्रम तथा मिथ्याहंकारी और मिथ्याभिमानी सिद्ध करने तथा एक-दूसरे से द्वेष और फंसाहट का भाव रखते हैं जिससे दोनों का साथ ही स्वीकार करना अपने-अपने चेतन और जड़ के पृथक् सिद्धान्त के गरिमा एवं अस्तित्त्व को समाप्त करना है । परन्तु व्यावहारिक जो स्वाभाविक ही है यह है कि दोनों ही दोनों ही अन्योन्याश्रित रूप में जकड़े होते हैं जो इन दोनों के ही अपने सिद्धान्त की व्यावहारिक असफलता को प्राप्त होते हैं परन्तु अन्यथा कोइ्र उपाय उन्हें नहीं सूझती है कि जिससे वे अपनी-अपनी समस्याओं का हल या समाधान ढ़ूढ़ सके । ये दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में इतने प्रभावी रूप में छाये रहते हैं कि कोई व्यक्ति इनके प्रतिकूल विचार रख ही नहीं सकता है यदि कोई रखना भी चाहता है तो दोनों अपने-अपने क्षेत्रों के भौतिक और आध्यात्मिक सफल हुये प्रयोगों को दर्शा-दर्शा कर उसे ही अपने मिथ्याभिमान एवं मिथ्याहंकार से दबा देते हैं तथा मिलते ही नहीं है । यह सोचने लगते हैं कि कहीं हमारी इतने वर्षों के बनाये हुये हवा-महल गिर या ढह न जाय इसीलिये भय से तात्त्विक अवतारी सत्पुरुष से मिलते ही नहीं है जबकि वास्तविकता यह है कि उसी तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष के पास ही इन दोनों के समस्याओं का समाधान भी होता या रहता है फिर भी ये दोनों ही उलटे तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष को ही मिथ्याभिमानी एवं मिथ्याहंकारी कहने-कहवाने लगे हैं । ये दोनों ही आपस में भी मिलकर आपसी डाह, द्वेष एवं घृणा भाव को दूर नहीं कर सकते हैं क्योंकि दोनों ही एक-दूसरे से मिलेंगे तो अपने बने-बनाये सारे सिद्धान्त-महल ही ढह जायेंगे । एक-दूसरे का परित्याग किये बगैर अपने सिद्धान्त को स्थापित कर ही कायम रख ही नहीं सकते हैं । चेतन का प्रतिनिधि हमतथा जड़का प्रतिनिधि हमारहोता है । पुनः चेतन-हम का विज्ञान अध्यात्महै तथा जड़-हमार का विज्ञान मात्र ही विज्ञान है । जड़ और चेतन एक-दूसरे के कट्टर विरोधी गुण स्वभाव के होते हैं जिसका परिणाम ही है कि दोनों सिद्धान्त ही एक-दूसरे के विरोध में घोषणा करते रहते हैं और विज्ञान, अध्यात्म को मिथ्याहंकार कह कर परित्याग करता है और अध्यात्म विज्ञान को मिथ्याभिमानी एवं जढ़ी कह कर परित्याग करता हुये प्रत्याहारनामक एक अनिवार्यतः योग या अध्यात्म का अंग ही प्रतिपादित या कायम किये हुये है । प्रत्याहार का मूल सिद्धान्त -- विषयादीन्द्रिय निग्रहः प्रत्याहारहै जो जड़ रूप हमार या विज्ञान या जड़-जगत के प्रतिकूल है । अतः अध्यात्म चेतन-हम मात्र का विज्ञान होने के कारण जड़-हमारका पूर्णतः त्याग अनिवार्य है । त्याग या प्रत्याहार के बगैर अध्यात्म की बात कोरी कथनी है, कोरी कल्पना मात्र ही है, कोरा पाखण्ड और कोरा आडम्बर मात्र ही है । हमारमय हमकभी भी आत्मामय हमनहीं हो सकता है यदि ऐसा कहा और किया जाता है तो समाज को धोखा दिया जाता हैै, अपने आत्मा को धोखा दिया जाता है जबकि आध्यात्मिक महापुरुषों को ऐसा धोखापूर्ण कार्य करनी ही नहीं चाहिये । यही कारण है कि योग के सबसे बड़े प्रतिष्ठित शंकर जी एवं नारद तथा सनत्कुमार चारो मूर्ति, आद्यशंकराचार्य, गौतम बुद्ध, जैन महावीर, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द आदि आदि अध्यात्म के पहुँचे हुये महापुरुषों ने भी हमार का पूर्णतः त्याग कर दिया था इन आध्यात्मिक महानुभावों के जीवनियों को यदि बच्चों-बच्चियों को पढ़ाया तथा वैसा ही बनने या होने का सही ढंग से मुसल्लम ईमान के साथ निर्देशन दे दिया जाय तो आज सभी के सभी ही गौतम बुद्ध, आद्यशंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानन्द आदि आदि बन और हो सकते हैं । शुकदेव जी कोई मूर्ख नहीं थे और न नारद, सनक, सनन्दन, सनातन आदि ही, हनूमान आदि तो परमात्मास्तर के हैं इनकी कोई बात ही नहीं । अध्यात्म की कदापि क्षमता नहीं कि पूर्ण समर्पण तो पूर्ण समर्पण है अधूरा समर्पण भी कायम या स्वीकार करके अपने सिद्धान्त की गरिमा या अस्तित्त्व बचाया ही नहीं जा सकता है । अध्यात्म के सिद्धान्त की रक्षा हेतु पूर्णतः त्याग एक अनिवार्यतः पहलू है जिसके बगैर अध्यात्म सफल ही नहीं हो सकता है । यही कारण है कि अध्यात्म कभी भी अपने प्रति समर्पण कराने या समर्पित होने की घोषणा नहीं कर सकता है और यदि ऐसा करता-कराता है तो वह अधिक समय तक टिक नहीं सकता है उसे गिरना ही है, असफल होना ही है ।

सद्भावी मानव बन्धुओं ! आइये अब थोड़ा-बहुत तत्त्वज्ञान और पूर्ण समर्पण को जाना, देखा, समझा, बूझा जाय । तत्त्वज्ञान जड़-चेतन रूप सृष्टि के आदि-अन्त सहित परमतत्त्व (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म के तात्त्विक रहस्यों के साथ यथार्थपूर्ण जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते-कराते हुये स्पष्टतः बोध--- अद्वैत्तत्त्वम् या एकत्वबोध एवं मुक्ति और अमरता के बोध एक साधन-साधना रहित यानी कर्म-विधान और अध्यात्म-विधान से रहित एक विशुद्ध पद्धति है । यह एक अशेष विद्या-तत्त्व पद्धति है जिसके अन्तर्गत जड़ का विज्ञान, विज्ञान तथा चेतन का विज्ञान अध्यात्म आदि-अन्त सहित पूर्णता के साथ ही इसमें निहित रहता है । यह जड़ और चेतन दोनों का ही उद्गम और अन्त में विलय रूप होता है । यही कारण है कि तत्त्वज्ञान-पद्धति को ग्रहण और त्याग की न तो आवश्यकता ही है और न तो घृणा ही । यह न तो प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को अस्वीकार भी नहीं करता है । यह राग-द्वेष रहित परन्तु प्रेम-युद्ध सहित भी होता है । यह काम-क्रोध रहित परन्तु अनन्य या संकल्प-दण्ड सहित होता है । यह जड़-चेतन रहित परन्तु शरीर-सम्पत्ति सहित भी होता है अर्थात् यह न जड़ होता है और न तो चेतन ही परन्तु जड़-चेतन दोनों ही इसी से उत्पन्न और अन्त में इसी में विलय भी होता है । यह न तो नाम ही होता है और न रूप ही परन्तु सृष्टि के समस्त नाम-रूप ही जिसमें से उत्पन्न और जिसमें विलय होते रहते हैं । यह सृष्टि में जो भी करेगा वह परम रूप में ही करेगा और जिसे भी धारण करेगा वह परमरूप ही होगा । तत्त्वज्ञान को सृष्टि में किसी से भी किसी भी प्रकार का घृणा नहीं होता है और चाह भी नहीं है । यह अनासक्ति भाव में रहने वाली स्थित में रहता हुआ भी घोर आसक्ति वाला रूप में दिखलायी देता है । तत्त्वज्ञान में सर्वोच्च शक्ति-सत्ता-सामथ्र्य निहित रहता है क्योंकि यह परमतत्त्वम् रूप परमसत्य रूप परमप्रभु या परमात्मा द्वारा परमात्मा का ही परिचय रूप होता है । परमात्मा के अलावा किसी को भी तत्त्वज्ञान देने का अधिकार नहीं होता और न तो परमात्मा के अलावा कोई अन्य सन्त-महात्मा आदि जब किसी पद्धति को जना देता है तो पहले तो वह परमात्मा बन कर या अपने को परमात्मा का ही अवतार कह कर जना या दे सकता है और दूसरे नम्बर पर यह है कि उसके द्वारा जनायी गयी या दी गई पद्धति तत्त्वज्ञान हो ही नहीं  सकता यानी सृष्टि में एक बार एक ही अवतार हो सकता है और मात्र वही ही तत्त्वज्ञान दे सकता है । हालांकि अवतार के कुछ पूर्व ही अवतार के ही अग्रदूत जो आत्मा रूप प्रकाश के प्रचारक होते हैं मिथ्याज्ञानाभिमान वश अवतारी बन-बन अपने अध्यात्म की पद्धति को ही तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान कह-कह कर घोषित करने लगते हैं तथा स्वयं भगवान् ही बन बैठते हैं । जनमानस जो जीव भी नहीं जानता-देखता या वह आत्मा को देख-देख कर उन्हीं की घोषणाओं में भ्रमित रूप में भटक-भटक कर आ जाते हैं और उन्हें ही अवतार तथा आत्म-ज्योति रूप आत्मा को ही परमात्मा स्वीकार कर लेते और मानने तथा समाज को प्रभावी रूप में मनवाने लगते हैं । आज तो ऐसे भगवानों की कमी ही नहीं है -- साईं, बालयोगेश्वर जी, सतपाल, श्री रामशर्मा, प्रभात रंजन सरकार उर्फ आनन्दमूर्ति जी तथा समस्त आत्मा वाले अध्यात्मवेत्ता महापुरुष ही भगवान् और अवतारी बनने लगे हैं । इतना ही नहीं रजनीश जैसा शैतान भी भगवान् बन गया है। जबकि इन महानुभावों को ऐसा नहीं करना चाहिये । इन महानुभावों के करतूती का ही परिणाम है कि आज का मानव समाज ही अध्यात्म और आत्मा से अधिकाधिक संख्या में भ्रमित तो हो ही गये, परमात्मा या भगवान् के प्रति आस्था भी समाप्त प्रायः हो गया है । आज भगवान् को भी भगवान् तथा अवतारी को भी अवतारी मानने से भी लोग इन्कार है, इन्कार ही नहीं विरोध भी करने लगे हैं, विरोध ही नहीं संघर्ष भी रकने लगे हैं, वह भी सामान्य स्तर पर नहीं, अपितु युद्ध स्तर तक उतारु हो गये हैं ।

तत्त्वज्ञान को जड़-चेतन तथा जड़-चेतन से सम्बन्धित किसी भी सत्ता-शक्ति, व्यक्ति वस्तु से घृणा और त्याग नहीं है । हाँ,उसकी आसक्ति से घृणा और त्याग है, उसके दोषों से घृणा और त्याग है। मिथ्यावादिता एवं मिथ्याचारिता से घृणा और त्याग है। काम’ (कामना या इच्छा) से तो घोर घृणा और त्याग है । काम या इच्छा या आशा तो तत्त्वज्ञान का जबर्दस्त शत्रु ही होता है -- आशा हीं परमं दुःखं नैरश्यंपरमं सुखम् । एवं  श्रीरामजी ने भी कहा था-- मोर दास कहाई नर आशा । करहिं तो कहहु कहाँ विश्वासा।। किसी भी प्रकार का कामना या इच्छा या आशा वाला व्यक्ति तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या सत्य-धर्म पर टिक नहीं सकता है, उसकी इच्छा और आश ही उसको ले डूबेगी । इस प्रकार तत्त्वज्ञान ग्रहिता बन्धुओं को चाहिये कि तत्त्वज्ञान के उपलब्धि के सफलता हेतु कामना या इच्छा या आशा को मारना या समाप्त करना अनिवार्य होता है और कामको मारने हेतु हमका विलय अनिवार्य है और हमके विलय रूप बोध की सफलता हमारके पूर्ण समर्पण पर आधारित है । यदि हमारका पूर्ण समर्पण नहीं हो सकेगा तो हमका विलय-बोध भी कायम नहीं रह सकता है और हमया इच्छा या आशा को भी सारा या समाप्त नहीं किया जा सकेगा, और जब तक आशा-तृष्णा को मारा और समाप्त नहीं किया जायेगा तब तक भगवद् निष्ठा, भगवद् प्रेम, भगवद् सेवा, भगवद् भक्ति तथा भगवद्-भाव उत्पन्न और स्थिर ही नहीं हो सकेगा और जब तक भगवद्-निष्ठा, भगवद् प्रेम, अनन्य सेवा, अनन्य भक्ति आदि नहीं होगी तब तक यथार्थतः मुक्ति और अमरता का बोध भी कायम या स्थिर नहीं रह सकता है तो फिर मानव-जीवन के लक्ष्य की उपलब्धि ही कहाँ हुई । अतः आशा-तृष्णा को जरुर मारें ।

अतः अध्यात्म की तो क्षमता नहीं कि वह हमारका समर्पण करा सके क्योंकि चेतन और जड़ दोनों ही आपस में विरोधी गुण के हैं मात्र विरोधी ही नहीं, अपितु एक-दूसरे के अस्तित्त्व को अपने अस्तित्त्व में विलय करने-कराने हेतु सदा ही प्रयत्नशील भी रहते हैं । इस प्रकार अध्यात्म के अपने अस्तित्त्व को कायम रखने हेतु हमारका पूर्णतः त्याग ही अनिवार्य होता है अन्यथा हमकभी आत्मा की ओर कभी परिवार-संसार की ओर स्वाभाविक रूप में ही बढ़ता रहेगा जिससे अध्यात्म की उपलब्धि रूप शान्ति और आनन्द ही छिन्न-भिन्न हो जायेगा । अतः पूर्णतः त्याग ही इसमें जरूरी है । परन्तु तत्त्वज्ञान में त्याग अमान्य होता है क्योंकि त्याग में भी कत्र्तापन का अहंकार छिपा होता है जो तत्त्वज्ञान के माध्यम से एकमात्र तत्त्ववेत्ता रूप अवतारी का आहार या खुराक होता है इस प्रकार सब दृष्टियों से ही तत्त्वज्ञान की सफलता हेतु हमारका समर्पण जरूरी है । इल्जाम या दोषारोपण लगाते हुये कारागार में प्रतिबन्धित कर-करवा दे रहे हैं तो अन्य सामान्य जन समाज के साथ कितना घोर जोर-जुल्म करते होंगे और है भी जो बिल्कुल ही धरती के भाव रूप हैं जिनका सफाया, धरती पर शान्ति और आनन्द रूप कल्याणमय सत्पुरुष-समाज तथा उनके विधि-विधान रूप सत्यं वद्: धर्मं चररूप यथार्थतः सत्य-धर्मकी स्थापना हेतु अनिवार्य ही दिखलायी दे रहा है जो परमप्रभु का दुष्ट-दलन प्रक्रिया होता है ।

सद्भावी बन्धुओं ! परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या यहोवा या गाॅड या अल्लातआला तथा उसके सम्पूर्ण सृष्टि या खिलकत की परिपूर्णतम् जानकारी ही वेद है । चाहे वह संस्कृत में हो या अंगे्रजी में अथवा अरबी में हो या हिन्दी में । इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है । हाँ, इतना अवश्य है कि संस्कृतउनका (परमात्मा का) विशेष समीपी या नजदीकी की भाषा है । यही कारण है कि संस्कृतको संस्कृतिप्रधान संस्कारिक भाषा माना जाता है । इतना ही नहीं, संस्कृत का ही सामान्य एवं सुगमता पूर्वक जानी-बोली एवं समझी जानी वाली भाषा है जो भाव-प्रधान विशेष परन्तु जानने, समझने में आसान भी है । फिलहाल जो भी हो वास्तविकता या यथार्थता या सत्यता को किसी भी भाषा विशेष मात्र में बाँधा नहीं जा सकता है । सत्य एवं धर्म किसी भाषा-शैली आदि से ऊपर का एक सम्पूर्ण सृष्टि में ही सृष्टि-संचालन का सर्वोपरि विधि-विधान है । जिसके यथार्थ जानकार के कदापि किसी भी भाषा में बाँधा ही नहीं जा सकता है । अतः भाषा की लड़ाई व्यर्थ है । भाषा तो भावों की अभिव्यक्ति मात्र होती है । भावों की अभिव्यक्ति जिस माध्यम से होती हो नहीं उसी भाषा होती है । भाषा की लड़ाई एक बिल्कुल ही जढ़ता एवं मूढ़ता की लड़ाई होती है जो कदापि नहीं होना चाहिये । मानव बन्धुओं भाषा प्रधान न होकर भाव प्रधान होना चाहिये  रखते हये अपने जीवन को ही सर्वतोभावेन उसी पर यानी सद्भाव पर ही रख देना चाहिये । उसमें भी सत्य रूप सद्भाव को तो सदा-सर्वदा ही सर्वोपरि, सर्वाेत्कृष्ट का कायम एवं सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोत्तम स्थान पर ही प्रतिष्ठित या कायम रखते हुये अपने जीवन को ही सर्वतोभावेन उसी पर यानी सद्भाव पर ही रख देना चाहिये ।

हम आप समस्त मानव बन्धुओं को ही चाहिये कि यह जानकारी और यादगारी सदा ही कायम रहे कि किसी भी तौर तरीके से भी आपस में भेद एवं डाह-द्वेष न उत्पन्न करने पाये क्योंकि परमात्मा एक एकमात्र अद्वैत्तत्त्वम्या गाॅड या अलम् या एकत्वबोध रूप ही होता है जो भेद-भाव को बर्दास्त नहीं कर सकता है । हम सभी मानव आपस में किसी भी प्रकार का भेद-भाव उत्पन्न और कायम करके शान्ति और आनन्द मय या अमन-चैन का जीवन नहीं जीसकते हैं, कदापि शान्त नहीं रह सकते हैं। शान्ति और आनन्दमय जीवन हेतु भेद-भाव रहित होना जरूरी है अत्यावश्यक है, अनिवार्य है ।

सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! सृष्टि के अन्तर्गत उसका समस्त शरीर ही एक जड़-मूर्ति होती है जो अपने आप में क्रियाहीन होती है परन्तु वह जड़-मूर्ति स्वास-निःस्वास द्वारा ही चालित होती है । अर्थात् शरीर को क्रियाशील होने हेतु स्वास-प्रस्वास एक अनिवार्यतः क्रिया-प्रक्रिया है । इस स्वास-प्रस्वास के बगैर समस्त शरीर ही एक स्थूल जड़-मूर्ति मात्र ही होती है या हो जाती है । इसे आप भी अनुभव करें । इस प्रकार जब स्वास-प्रस्वास से ही शरीर क्रियाशील होता है और स्वास-प्रस्वास हिन्दी, अंग्रेजी अरबी, उर्दू, फारसी आदि होता नहीं, यह तो सभी शरीरों में एक ही होता है, चाहे आप हिन्दू हों या जैन, बौद्ध हों या यहूदी, ईसाई हों या मुस्लिम, सिक्ख हों या कोई भी क्यों न हो, यदि जीवधारी हैं तो सभी में ही यह एक ही होता है। अब थोड़ा सा विचार की आवश्यकता है, नहीं साधना और तत्त्वज्ञान तो, थोड़ा विचार तो करना ही पड़ेगा कि जब हम आप सभी मानव की क्रियाशीलता स्वास और प्रस्वास पर ही आधारित है और स्वास-प्रस्वास किसी भी देश, जाति, वर्ग का अथवा विज्ञान तथा अध्यात्म का तो होता नहीं है । तो एकमात्र सत्ता-शक्ति की क्रियाशीलता और गति-विधि होती है जिसमें शरीर और संसार के बीच के क्रियाशीलता और गति-विधियों की प्रायौगिक जानकारी मात्र तो विज्ञान है परन्तु स्वास-प्रस्वास के मध्य होने वाली क्रियाशीलता का प्रायौगिक विशिष्ट जानकारी मात्र ही अध्यात्म है । विज्ञान तथा अध्यात्म में से किसी को भी यह जानकारी बिल्कुल ही नहीं होती है कि स्वास-प्रस्वास कहाँ से आता और कहाँ को चला जाता है अथवा जीव (अहं) तथा आत्मा (सः) की यथार्थता क्या है ? आखिरकार ये कहाँ से और कैसे आते हैं और कहाँ को और कैसे चले जाते हैं ? हम आप सभी भाषा की लड़ाई लड़ते हैं यह कितनी बड़ी मूढ़ता एवं तुच्छता है क्योंकि भाषा की लड़ाई लड़ने से पूर्व तो हमें यही देख लेना चाहिये कि भाषा क्या है ? तो यह मिलेगा कि भाषा भावों की अभिव्यक्ति है । तो पुनः यह प्रश्न उठ खड़ा हो जाता है कि भाव क्या है तो मिलेगा कि ‘‘भाव शरीर के अन्तर्गत होने वाला जीव की अभिप्रेरणा मात्र है जो इन्द्रियों के द्वारा अभिव्यक्त होता रहता है।’’ फिर प्रश्न उठता है कि जीव क्या है ? तो इसका शोध करने पर पता चलेगा कि आत्म’-शक्ति शरीरों में प्रवेश करके सृष्टि में (संसार में) कर्म करने और भोग भोगने हेतु आत्म’- शक्ति और शरीर के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने-कराने वाला एक दोनों के मध्य एक सूक्ष्म-रूप होता है जो मन और बुद्धि के माध्यम से इन्द्रियों से कार्य करता-कराता तथा भोग-भोगता हुआ अभिव्यक्त होता है या जाना जाता है । पुनः यदि यह प्रश्न उठाया जाय कि आत्म’-शक्ति क्या है तो यह जानकारी संसार तो संसार है सम्पूर्ण सृष्टि में भी किसी को न तो होती है और न रहती है । यह विज्ञान तो विज्ञान है, अध्यात्म को भी मालूम या पता नहीं होता कि आत्म’-शक्ति क्या है, इसका आगमन कहाँ से होता है तथा अन्त में यह कहाँ को चला जाता है आदि आदि इसके यथार्थता की जानकारी किसी भी बन्धु को ही नहीं रहती है । परम आकाश रूप परमधाम से परमप्रभु रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप गाॅड रूप अलम् रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा का ही जब भू-मण्डल पर साक्षात् पूर्णावतार होता है तब उसी परमप्रभु से ही आत्म’ -शक्ति की यथार्थ जानकारी हो पाती है क्योंकि आत्म’ - शक्ति की उत्पत्ति, संचालन तथा अन्त में विलय भी उसी पूर्णावतार रूप अवतारी सत्ता के आत्मतत्त्वम् रूप से ही और में ही होता है । यही कारण है कि तत्त्वम् रूप वह तात्त्विक या तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष ही एकमात्र ऐसा सर्वोच्च-शक्ति-सत्ता सामथ्र्य होता है जो आत्म’ - शक्ति रूप आत्मा या ब्रह्म की आदि-अन्त सहित यथार्थतः जानकारी दे देता है । अर्थात् जो शरीर आत्म’ - शक्ति रूप आत्मा या ब्रह्म का ही आदि-अन्त सहित यथार्थपूर्ण जानकारी देती हो तथा साथ ही साथ तत्त्वज्ञान पद्धति से या विद्या-तत्त्व पद्धति से अपने यथार्थतः तत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्रूप को जनाते-दर्शाते हुये अद्वैत्तत्त्वम् या एकत्वबोध कराता हो तो उसे साक्षात् ही परमप्रभु का पूर्णावतार मान लेना चाहिये, इसमें सन्देह नहीं कि थोड़ी भी गुंजाइश नहीं होना चाहिये । क्योंकि परमप्रभु के सिवाय अन्य किसी की भी यह क्षमता-सामथ्र्य नहीं जो आत्म’ - शक्ति के आदि-अन्त को जना-दर्शा तथा आत्मतत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वम् का यथार्थपूर्ण बोध करा सके । अतः ऐसा तत्त्वज्ञान पद्धति परमप्रभु की ही होती है ।

जैसा कि सर्वविदित ही है कि वेदकी उत्पत्ति परमप्रभु के प्रणव अथवा स्वास-प्रस्वास या फूँक से ही हुई है । तो इसकी यथार्थता को स्पष्टतः जान-समझ लेना चाहिये कि जब हम सभी के मानव शरीर स्वास-प्रस्वास के बगैर तो मात्र एक जड़वत् मूर्ति ही होता है जो मुर्दा या मृतक कहलाता है और इसे कोई माता-पिता या पति-पत्नी या भाई-बहन या पुत्र-पुत्री या सगा-सम्बन्धी अथवा दोस्त-मित्र आदि भी कहने-कहाने नहीं जाता और यदि जाता भी है तो उस शरीर को मुर्दा या मृतक कह कह कर बर्बाद (फूँकने, गाड़ने, दहाने) करने के लिये ही पूछेंगे । परन्तु स्वास-प्रस्वास ही ऐसा है जिससे कि शरीर क्रियाशील रहती है, मुर्दा नहीं कहलाने पाती है । अर्थात् शरीर जो कुछ भी करती है, जो कुछ भी जानती, जनाती, देखती, दिखलाती है, सब कुछ ही शरीर नहीं जानती-जनाती, व नहीं करती-कराती है बल्कि स्वास-प्रस्वास ही के माध्यम से सः रूपा आत्म’ -शक्ति और अहं’  रूप जीव ही जानता, जनाता, देखता, दिखलाता तथा करता-कराता है । शरीर तो एक साधन मात्र ही होता है कर्तानहीं। अब मुख्यतः यह देखना है कि शरीर की सारी गतिविधियाँ और स्वास-प्रस्वास की क्रियाशीलता में शरीर प्रधान है या स्वास-प्रस्वास तो स्पष्टतः दिखलायी देगा कि शरीर हेतु स्वास-प्रस्वास एक अनिवार्यतः क्रिया-प्रक्रिया है । स्वास-प्रस्वास ही शरीर तथा शरीर भी स्वास-प्रस्वास की ही होती है यही बात यथार्थ है । स्वास-प्रस्वास रूप सः और अहं रूप सोऽहँ-ह ँ्सो किसी का भी माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, सगा-सम्बन्धी या दोस्त-मित्र आदि भी नहीं होता है, कोई शरीर भी स्वास-प्रस्वास से रहित होने पर किसी का भी माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री एवं सगा-सम्बन्धी या दोस्त-मित्र आदि भी नहीं होता है तो फिर प्रश्न यह बनता है कि तब आखिरकार माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, दोस्त-मित्र एवं सगा-सम्बन्धी आदि क्या है ? तो शोध करके जान, समझ एवं देख लीजिये तथा अनुभव भी कर लीजिये तो पता चलेगा कि माता-पिता, भाई-बहन, पु.त्र-पुत्री, दोस्त-मित्र, सगा-सम्बन्धी आदि सारा सम्बन्ध मात्र ही एक बन्धनहै, मिथ्याभास है, आसक्ति और ममता रूपी मोह-पाश है जो झूठ-मूठ में हमार बन-बन तथा फंसा-फंसा कर जीव को अपनी यथार्थ स्थिति रूप स्वास-प्रस्वास से विचलित कर-करके या भटकाकर इन्द्रियों में तथा कर्म और भोग के माध्यम से मिथ्याभास रूप आसक्ति और ममता रूप मोहपाश में फंस-फंसाकर शरीर-सम्पत्ति या व्यक्ति-वस्तु या कामिनी-कांचनमय होकर जड़वत् या जढ़ी बन जाता है जिससे उसका विवेक और बुद्धि भी मूढ़ता में परिवर्तित होकर यथार्थतः परमात्मा और आत्मा के प्रतिकूल आचरण करने लगते हैं ।

सद्भावी बन्धुओं थोड़ा भी समझ-बूझ के काम लिया जाय तो स्पष्ट हो जायेगा कि कोई शरीर न तो किसी की माँ है और न तो किसी का पिता ही, न तो किसी का भाई है और न तो किसी की बहन ही; न तो किसी का पुत्र है और न किसी की पुत्री ही और न तो किसी का सगा-सम्बन्धी है और न तो किसी का दोस्त-मित्र ही; यह शरीर तो एकमात्र स्वास-प्रस्वास का साधन मात्र ही है यानी शरीर स्वास-प्रस्वास की है तथा स्वास-प्रस्वास ही शरीर का जीवनाधार है । इसलिये हम सभी बन्धुओं को स्वास-प्रस्वासमय अपनी स्थिति करके जहाँ से स्वास आकर शरीर में प्रवेश करती हो तथा जहाँ पर प्रस्वास जाकर सदा-सदा के लिये स्थिति या अवस्थित हो जाता हो उससे ही सीधा सम्बन्ध करके स्वास से प्रवेश होने वाले सः तथा प्रस्वास के माध्यम से शरीर से बाहर होने वाले अहंयानी सोऽहँ-ह ँ्सो से भी ऊपर उठकर परमतत्त्व रूपी आत्मतत्त्वम् से मिलकर तत्त्वमय होकर रहना चाहिये जिससे कि यह शरीर पूर्णतः परमात्मा की हो जाय और सदा-सदा ही परमात्मामय ही रहते हुये सांसारिक क्षणिक सुख के स्थान पर परमात्माके शाश्वत शान्ति और शाश्वत आनन्द से युक्त होकर तुच्छ शारीरिक, पारिवारिक एवं सीमित सांसारिक जीवन के स्थान पर वृहद् या विस्तृत तात्त्विक या तत्त्वमय या परमात्मामय मुक्ति और अमरता का बोध करता हुआ सकल जहाँन एवं सारा भू-मण्डल पर ही अलख-विचरण करना चाहिये और विश्व-बन्धुत्व अथवा वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धान्त को सार्थक बनाया जाय तथा समाज को स्पष्टतः दिखला दिया जाया कि सत्यं वद्: धर्मं चररूप सत्य-धर्म कितना बड़ा लोक हितकारी एवं जन -सुखकारी तथा यही एकमात्र ऐसा मार्ग है जिसके आधार पर दोष-रहित-जीवनअथवा निर्दोष जीवनमुक्ति और अमरता तथा शाश्वत शान्ति और शाश्वत आनन्द के बोध के साथ ही जीवन सुगमतापूर्वक ले चला जा सकता है जिससे सकल समाज का ही सुधार और उद्धार रूप मानव-कल्याण रूप समाज-कल्याण स्पष्टतः देखा जा सकेगा । इसमें थोड़ा भी सन्देह की गुन्जाइश नहीं रहेगी, बशर्ते की यथार्थतः जान-समझकर अपने जीवन को पूर्णतः समर्पित कर दें ।

अतः शरीर और संसार एवं सृष्टि तथा स्वास-प्रस्वास और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् की परिपूर्णतम् जानकारी, अनुभूति तथा यथार्थतः बोध के साथ ही, वेद है अर्थात् परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या गाॅड या अल्लातआला तथा उसके ब्रह्माण्ड या सृष्टि या खिलकत की अनुभूति परक एवं बोधगम्य परिपूर्णतम जानकारी ही वेद है । न कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद मात्र चार सद्ग्रन्थ ही । किसी भी भाषा एवं किसी भी सम्प्रदाय विशेष में वेदको बाँधा नहीं जा सकता है । चाहे जिस भाषा में हो एवं जिस सम्प्रदाय में हो, परन्तु ऐसी जानकारी जो परमात्मा या परमेश्वर या यहोवा या गाॅड या अलम् या अल्लातआला तथा उसके सृष्टि या खिलकत के सम्बन्ध में यथार्थपूर्ण जानकारी है तो है तो वह वेद कहलाने का ही हकदार है, वह भी वेदकी यथार्थता से बहुत ही दूर एवं अपनी नाजानकारी, नासमझदारी एवं मूढ़ता का ही परिचय देना है तथा परमात्मा और उसके सृष्टि को सीमित करना है ।

सद्भावी मानव बन्धुओं ! ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद हो अथवा जबूर, तौरत, इन्जिल, र्कुआन हो अथवा रामायण, गीता, पुराण हो, यह सब ही वेद के अन्तर्गत आयेंगे । इतना ही नहीं, परमब्रह्म तथा उसकी सृष्टि या ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी वाले सम्पूर्ण सद्ग्रन्थ ही वेदके अन्तर्गत आयेंगे क्योंकि वेदतो परिपूर्णतम् एव यथार्थपूर्ण जानकारी का ेही कहते हैं चाहे वह जिस भाषा,देश, जाति का ही क्यों न हो । यानी यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी वाले सम्पूर्ण सद्ग्रन्थ ही वेदहै ।

वेदअथवा यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी पूर्णतः चार भागों में विभाजित है-- सत्यप्रधान; ‘कल्याणप्रधान; ‘सुन्दरताप्रधान तथा कर्मया अर्थप्रधान । सर्वप्रथम भाग में-  परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या बचनया अलम् या परमब्रह्म या यहोवा या परमेश्वर या परमात्मा से सम्बन्धित यथार्थपूर्ण  परिपूर्णतम् जानकारी तो -- सत्यप्रधान जानकारी के अन्तर्गत आता है; जो तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान या परमविद्या या विद्यापद्धति है । दूसरे भाग में-- आत्म’- ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर या डिवाइन लाईट रूप सोल या स्पिरिट या आलिमे नूर रूप रूप अल्ला, आदि शब्दों से उद्बोधत आत्मा से सम्बन्धित अनुभूति परक परिपूर्णतम जानकारी अथवा चेतन तथा चेतन से सम्बन्धित प्रायौगिक या क्रियात्मक एवं अनुभूति परम जानकारी कल्याण प्रधान जानकारी के अन्तर्गत आता है जो योग या अध्यात्म है । श्रेय विद्या या विद्या आदि इसे ही कहा जाता है । पहले वाला तो एकमात्र अवतारी सुरक्षित रहता है परन्तु इसी दूसरे भाग में ही ऋषि-महर्षि, ब्रह्मर्षि, प्राफेट्स, पैगम्बर तथा समस्त साधना-मार्गी या आध्यात्मिक सन्त-महात्मा होते हैं । शंकर जी, वशिष्ठ जी, वेद व्यास जी, अष्टावक्र जी, गौतम बुद्ध, जैन महावीर, आद्यशंकराचार्य, ईशामसीह, मुहम्मद साहब, गुरुनानक देव जी, सन्त कबीर, रामकृष्णदेव परमहंस, स्वामी विवेकानन्द जी, योगानन्द जी, शिवानन्द जी, मुक्तानन्दजी, हंस जी, बालयोगेश्वर जी, सतपाल, आदि आदि सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग तक के साधना-मार्गी या आध्यात्मिक क्रिया-प्रक्रिया वाले सभी सन्त महात्मा आदि ही जितने चेतन-आत्मा वाले हैं सभी दूसरे भाग में है । तीसरा भाग -- स्वरप्रधान जो संसार में सुन्दर और अच्छा लगने वाला विधान होता है’ - है । इसकी यथार्थता स्वर या स्वास-प्रस्वास के आरोह-अवरोह या बाहर-भीतर या उतार-चढ़ाव जिसे सूरभी कहा जाता हैसे है । यानी स्वर स्वास-प्रस्वास तथा स्वास-प्रस्वास से समस्त जानकारी मात्र होता है जिसका अपना स्वतः में कोई खास पृथक् अस्तित्त्व तो होता नहीं । इसलिये यह योग-साधना या अध्यात्म तथा शरीर प्रधान या कर्म के मध्य ही स्थित होता है । इसकी क्रियाशीलता दो भागों में विभाजित है -- पहला स्वर-संचार -साधना- पद्धति जो अभीष्ट सिद्धियों के माध्यम से अभीष्ट सांसारिक कार्यों के सफलता हेतु प्रयुक्त होता है और दूसरा- यह गायन-वादन में भी स्वर की ही प्रधानता होती है । गायन-वादन की सारी क्रियायें स्वर पर ही आधारित होती है इसी से यह तीसरे भाग में ही स्थान ग्रहण लिया। इसकी भी अपनी एक अहंभूमिका है । वेदया जानकारी का चैथा भाग-- शरीर तथा संसार के मध्य तथा भोग से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी ही इस वर्ग के अन्तर्गत आती है । यह कर्म और भोग जिसमें अर्थया धनदोनों की मध्यस्थता करता है । इसलिये इसे अर्थप्रधान वेदविधान मात्र कहा जाता है । धनोपार्जन तथा उसके भोग-उपभोग की सम्पूर्ण जानकारी ही इस श्रेणी में है ।

सद्भावी बन्धुओं ! सत्य, कल्याण, सुन्दरता एवं कर्म यह चार भागों में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एवं परम-ब्रह्म का अस्तित्त्व, उनका ज्ञान, उनका व्यवहार या उपयोग बंटा हुआ है । यह सत्यही ऋत् या ऋक् या ऋग्वेद है कल्याणही शिवम्या ह ँ्सो या ब्रह्म या आत्मा है । सुन्दरता ही स्वर या जीव या नीति या विचार है और कर्म ही संसार या शरीर या इन्द्रियाँ या शिक्षा या सुख-दुःख होता है । अर्थात् सत्य-प्रधान ऋग्वेद; कल्याण प्रधान-यजुर्वेद; स्वर-प्रधान सामवेद तथा कर्म-प्रधान या शरीर और संसार-प्रधान या अर्थ प्रधान- अथर्ववेद की जानकारी परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा ने दिया जिसमें सर्वप्रथम तीन सत्यम, शिवम्, सुन्दरम् रूप तीन ही वेदया जानकारी थी जिसमें कर्म या अर्थ प्रधान जानकारी रूप अथर्ववेद नाम चैथा वेद मिलकर कुल चार वेद अर्थात् चार-प्रकार की जानकारियाँ सृष्टि में प्रचलित हुई जो संयुक्त रूप में वेदनाम या शब्द से जानी जाती है जिसका अर्थ या भाव यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम जानकारी से है । वेदवास्तव में लिपिबद्ध सद्ग्रन्थ विशेष ही नहीं होता है अपितु यथार्थपूर्ण परिपूर्णतम् जानकारी है जो परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा से सुनकर जाना गया था और जाना जाता है और जाना जायेगा। वह सम्पूर्ण यथार्थपूर्ण जानकारी ही वेद है । यह इसीलिये श्रुति भी कही जाती है क्योंकि यह मात्र सुनकर जानी गयी है । 

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